Sunhare Pal

Wednesday, October 29, 2014

चुहल


मैं देख रहा हूं मोहन काॅलोनी की गली न. 11 में मकान नं. 115 जिस पर लिखा है - ‘शान्तिकुंज’ । जिस पर कल शाम से ही मेहमानों की आवाजाही शुरू हो गई है। सबसे पहले पम्मी आ गई। अपने पति, बेटा बहू, बेटी दामाद और पोते दोहते के साथ। पम्मी का लगाव अपनी भाभी से सदैव ही रहा। फिर भला इस मौके पर वह पीछे कैसे रहती? भाभी की सेवानिवृति का अवसर जो है।
विभा सबकी चहेती है। आॅफीस स्टाॅफ हमेशा उससे खुश रहा और अब उसकी सेवानिवृति को यादगार बनाने के लिए बलाॅक ‘ए’ स्टाॅफ, बी.बी. हेड आॅफीस और सिटी जोन सबने मिलकर पहले विदाई समारोह और फिर दावत का आयोजन रखा है। उसी में सम्मिलित होने के लिए सभी सगे सम्बन्धी, नाते रिश्तेदार, मित्र दूर दराज का सफर तय कर एकत्रित हो रहे है। सभी के लिए खाने ठहरने के सारे इंतजामात हो चुके है। सूचिया तैयार है फिर भी कई काम है जो ऐन मौके पर ही होने है। उल्लासमय वातावरण से पूरा घर गमक रहा है। फिर पम्मी का पूरे परिवार के साथ आना मानो घर में जान ही आ गई। जबसे पम्मी आई है विभा क्या सभी उसके आगे पीछे डोल रहे है। नन्द के दोहते पोते की बालसुलभ अठखेलियों से विभा बावली हुई जा रही है।
‘‘रात के ग्यारह बज रहे है, अब सो भी जाओ।’’ दिवाकर ने जम्हाई लेते विभा की ओर देखकर कहा- कल का ही दिन बचा है। बहुत कुछ तैयारी अभी बाकी है।
‘‘हो जायेगा। क्यों चिंता कर रहे हो भैया? अब तो मैं आ गई हूं। तुमहारी मदद को ये तीनो पुरूष हैं ही और बाकी रसोई में हम सब इतनी महिलाएं है ही। वैशाली बाजार का काम निब्टा देगी.....’’अपने परिवार की ओर इशारा करती पम्मी ने कहा।
‘‘वो तो सब करोगे ही पर इनका काम तो इन्हें ही निबटाना होगा न। वो तो हम करने से रहे। तुम्हारे पुराने साथियों में, स्कूल के मित्रों में कार्ड बंट गये?’’ दिवाकर ने विभा की ओर मुखातिब होकर पूछा।
‘‘छौड़ो भैया, भाभी के काम बहुत प्राॅन्ट है। सबकुछ पेपर पर कर लिया होगा। हमारी तरह दिमाग में बोझा लेकर नहीं घूमती वह। हां तो भाभी.....पम्मी विभा की ओर मुढ़कर कहने लगी- ‘‘सेवानिवृति के समय आप कौनसी साड़ी पहन रही है? जरा दिखाओ तो सही।’’
नन्द के कहते ही विभा ने अलमारी खोल साड़ी के पैकेट निकालने लगी।
मैं देख रहा हूं करीने से साड़ी कवर में न केवल साड़ी बल्कि उसकी मैचिंग के सभी चीजें उसमें व्यवस्थित रखी हुई है। जिन्हें देखते ही पम्मी ने कहा- ‘‘आहा! देखा न भैया, मैं न कहती थी भाभी के काम का जवाब नहीं। वाह! मैंगो राईप कलर। साड़ी को हाथ लगाते हुए पम्मी आगे बोली- ‘‘प्योर काॅटन है। इस पर ब्लेक थ्रेड की एम्ब्रायडी बहुत खिल रही है।’’
‘‘कैसी लगी?’’ विभा ने पूछाा।
‘‘खूब खिलेगी आप पर। वैसे आप कोई भी रंग पहने, सब जंचते है आप पर..... पर ये मैंगो राईप कलर ही क्यूं चुना आपने.... जरूर कोई कारण रहा होगा... ?.....क्यूं भैया ?
‘‘ओह! पम्मी....... एक तो इसमें फोटो अच्छे आयेंगी और दूसरा इस पर दाग नहीं लगेंगे। तुम तो जानती ही हो कि सेवानिवृति के समय अक्सर लोग...... माला गुलाल....’’ पीछे शब्द फुसफुसाकर कहती हुई विभा शर्मा गई। विभा की स्थिति देख सब हंसने लगे।
‘‘हूं तो ये बात है।’’ कहते हुए पम्मी ने विभा के कंधों पर साड़ी फैला दी। ‘‘बहुत खूबसूरत लग रही है आप।’’
‘‘हश!’’ पम्मी की इस टिप्पणी पर विभा फिर शरमा गई। पम्मी ने झूठ नहीं कहा साठा की उम्र में भी विभा वाकई में अभी बहुत आर्कषक लगती है। सरकार चाहे उसे रिटार्यड कर दे पर अभी उसके शरीर में बिजली जैसी चपलता और ऊर्जा है। मैंने देखे है उसके नौकरी के 38 बरस। सरकारी नौकरी करके उसने दिवाकर की पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने में पूर साथ दिया। जीवन के अड़तीस बरस किसी कामकाजी महिला के लिए कम नहीं होते सो लगातार संघर्षाे की धूपछांव से गुजरते विभा को आराम कम और काम का बोझ ज्यादा ही ढ़ोना पड़ा।
पर ये जरूर कहूंगा कि निरंतर कार्य करते रहने के कारण उसके व्यक्त्वि में एक अनूठी आभा समाहित हो गई। जिससे शारीरिक सौष्ठव भी बकरार रहा। चहुं ओर भूरि भूरि प्रशंसा के उठते स्वर उसमें ऊर्जा भरते रहे। क्या कुछ पीछे छूट गया है शिकायतों के स्वर मंद होते गये। इसका आकलन उसने क्या किसी ने नहीं किया। कब गर्म तवे से हाथ चिपके, कब स्कूटी से पैर फिसला और हड़बड़ी में एक के बदले कब वो दो दो चश्मे सिर ओर आंखों पर चढ़ाए वह दफ्तर पहुंच गई। ये भला अब कोई क्यूं याद करेगा। महीने के शुरूआत में मिली पगार में कितना इन्तजार भरा मिठास है अब यह चरचा यहीं विराम ले रही है क्योंकि आने वाली सुबह अब हमेशा जैसी सुबह नहीं होगी। कल के सूरज का आगमन विश्राम की सुप्तपड़ी कलियों को चटका देगा और फिर जीवन को विश्रान्ति मोड में ले जाकर हमेशा के लिए टिका देगा।
मैं देख रहा हूं आॅफीस जाने के लिए तैयार होती विभा की तस्सली और ठण्डापन को। घर से चली तब भी चिरपरिचित सहकर्मियों के बीच कार्यकाल का अंतिम गुजरते दिन पर मन की सर्द छाया उसके मुखमंडल को घेरे हुए थी। काम की गति को शाम 5 बजे रजिस्टर पर अंतिम हस्ताक्षर अंकित करते समय प्रत्येक उपस्थित व्यक्ति खुशी व गम के रीमिक्स वातावरण में तैर रहा था। विभा ने साईन कर हौले पेन बंद किया। मैंगो राईप साड़ी का बसंती रंग, डायमण्ड रूबी की ज्वेलरी, होठों पर लगी लिपिस्टिक का नूरानीपन इस ठण्डेपन को दूर करने में असफल हो रहा था। एकाएक विभा की आंखें छलछला आयी। पर्स खोल रूमाल निकाल उसमें उन बूंदों को मानो सहेज लिया। उसके गले में एक माला आ गिरी। उसकी नजरे उठी। उसकी जगह कार्य संभालने वाला उसका अधिनस्थ था। फिर तो एक के बाद एक करके मालाएं उसके गले में आती रही। गला पूरा मालाओं से लद गया।
आॅफीस बिल्डिंग के खुले लाॅन से सटे बरामदे में कुर्सिया लगी थी। निके आगे टेबल कुर्सिया लगाकर मंच बना दिया था। एक ओर माईक रखा था। वहीं किनारे की टेबिल पर ढ़ेर सारी फूलमालाएं व चमकती पिन्नियों में बंद उपहार के पैकेट सजे हुए थे। सुशान्त ने माईक संभाला विदाई समारोह का संचालन करने के लिए। ये सुशान्त ही है जो है स्टनोग्राफर पर उसे मंच संचालन का बहुत शौक है। अपने इस हुनूर को दिखाने के अवसर आॅफीस में यदा कदा ही ऐसे अवसर आते है। सुशान्त अनिकेत का मित्र है ओर अनिकेत विशाल का और विशाल देवदत्त का।
‘‘विभा इनसे मिलो ये है देवदत्तजी।’’
‘‘हां हां पहचानती हूं इन्हें।’’
‘‘बताओ तो कौन है?’’
‘‘बचपन से ही इन्हें जानती हूं। ये देवदत्तजी है। इनके पिता मेरे पिता के मित्र रहे। इसलिए इनका हमारे घर आना जाना था।’’
‘‘ठीक पहचाना तुमने’’ दिवाकर ने कहा।
‘‘लीजिये यह मिठाई लीजिये।’’ विभा ने देवदत्त से कहा।
‘‘नहीं मिठाई मैं नहीं खाता, डायबिटीज है।’’ विभा ने खमण की प्लेट आगे कर दी। देवदत्त ने एक टुकड़ा खमण का उठा लिया। ‘आती हूं’ कहकर इसके बाद विभा आगे बढ़ गई। हंसी खुशी में मगन विभा को देखकर बहुत अच्छा लग रहा है।
समय पंख लगाकर उड़ गया। आज विभा कितना थक गई होगी। रात बिस्तर पर गिरते ही  पहली बात विभा ने यहीं कही ‘‘बहुत थक गई हूं।’’
‘‘तुम क नहीं थकती, यह तो तुम्हारा तकिया कलाम है। दिवाकर का कुछ ओर ही मूड था उसने विभा से चुहल की तो वह चिढ़ गई।
‘‘तुम्हें तो मशीन लगती हूं मैं। दो दिन से लगातार चल रही हूं क्या थकूंगी नहीं।’’
‘‘कम से कम आज तो मूड खराब मत करो।’’ देवदत ने अपनी बाहें पसारी।
‘‘आप बात ही ऐसी करते है।’’ विभा कुछ ढ़ीली हुई।
‘‘अच्छा ये बताओ तुमको देवदत्त से बात करते हुए कैसा लग रहा था?’’
‘‘क्या मतलब? कैसा क्य?
‘‘नहीं नहीं मैं वैसे ही पूछ रहा था। वो तुम्हारे यहां आता जाता था न! दिवाकर के कहने का अर्थ विभा समझ गई। ‘'उससे क्या? जिस रास्ते जाना ही नहीं मैं उधर देखती ही नहीं।’’ विभा ने कहा और करवट बदलकर मुंह फेर लिया।
सही तो कह रही है विभा। विभा का छोटा भाई इस मौके पर नहीं आया। सब आये पर वो नहीं आया। विभा ने उसे बुलाया ही नहीं। उससे सारे नाते तोड़ लिए। दिवाकर ने मना किया तो कहने लगी- जिस रास्ते जाना ही नहीं उधर क्यूं देखना? 
विभा के खर्राटों का कठघरा दिवाकर को जकड़ने लगा। खामोश विभा की हर श्वास चीख रही है- ‘खून के रिश्ते से नाता तोड़ लेने वाली विभा के बारे में देवदत्त को लेकर ये विष कीड़ा दिवाकर तुम्हारे मन में क्यों पनपा?’ 
मैं देख रहा हूं विभा सो चुकी है गहरी निद्रा में लीन और दिवाकर जाग रहा है कचैटते मन में क्षणभर पहले आये विषैले ख्याल के फन को कुचलते हुए- ‘‘विभा के बिना रह सकते हो तुम? बेशक देवदत्त बचपन में विभा के घर आता जाता रहा। विभा के पिता ने देवदत्त से उसके विवाह की बात भी चलाई...पर बात आगे बढ़ी नहीं। खत्म हो गई..... तो फिर ये मन कौन सा बिना छोर सिरा ढूंढ लाया। विभा से विवाह हुए 40 वर्ष गुजर चुके। आज भी दीवाना हूं उसका। आज ीाी वह मुझे लुभाती है। उसके बिना जीने की कल्पना नहीं। उम्र के इस पड़ाव पर आखिर ये क्षुद्र विचार मन में आया कहां से? विभा ने पूरी निष्ठा से अपना जीवन, तन और मन मुझे समर्पित कर दिया फिर ये शक का कीड़ा....क्यों कर कुलबुलाया। बिन बरीश बरसाती मच्छर ने डंक मार दिया हो.‘‘....आक! थूं’’ मुंह में कसैलापन भर गया था। उठकर उसने बेसिन में कुल्लाकर पानी पीया। मुंह का जायका बल चुका था। विभा ने करवट बदली खिड़की से आती निर्मल चांदनी में उसका मुंह कांतिमान होता दिवाकर के सामने था। दिवाकर उस चेहरे की सौम्यता पर झुकने ही वाला था कि गर्म सांस उससे टकराती कह गई- ‘तुम मर्द कितना जल्दी अपना संतुलन खो बैठते हो....।’

Saturday, June 23, 2012

हस्ती इनकी

बीच रास्ते में चलते
कई बार आ घेरती है रेवड़

रेवड़, जिसकी भेड़चाल 
देखकर मन विमोहित सा 
हो उठता है
सिर झुका कर 
एक के पीछे एक लग 
अनुसरण करते जाना
क्या यही हैं 
इनकी करूण गाथा ?

रेवड़, जो लिए चलती है
एक कुत्ता, अपने संग
जो चैकसी करता है
रखवाली भी कभी कभी
मार्गदर्शन लेना
वो भी एक कूकर से
क्या नहीं है 
भीरूता इनकी?

रेवड़, जो धरती पर
भूचाल बन बढ़ती जाती
तनिक टूटी या बिखरी तो
फिर आ जुड़ती
चुम्बक जैसी खींच कर 
फिर सट जाती झुंड में
हां, यही है
विराट हस्ती इनकी

रेवड़ कह लो इनको या झुंड
झुंड में रहना, जीना, खाना
झुंड के पीछे झुंड
दसियों बीसियों नहीं
सैंकड़ो की तादाद में होते हुए
रोक दे जो बहते रास्ते
क्यों कहते हो उसे तुम 
एक निरीह भेड़

एक सूखा गुलाब

छूट गया हूं मैं
पिछली कक्षा में पढ़ी
किताब की तरह
कर लिए गये 
जिसके सारे सवाल हल
और पाठों का भी
दोहरान हो चुका
कई बार
परीक्षाओं के उपले
थेप चुका हूं बार-बार
फेल और पास की
किश्ती खै चुका हूं
जाने कितनी बार
हो चुके है सब बेमानी
इम्तहान और परिणाम
की घोषणा के साथ 
बदल गया है साल
पीले पड़े गये कागज तमाम
किताब हुई पुरानी
जिस पर लगें है आज भी
निशान, अर्थो और महत्वपूर्ण 
टिप्पणियों के साथ
पहले जैसे अब नहीं भरती
पुरानी किताब 
फरफराहट का दंभ
आ गई है नई किताब 
जो सहेज दी गई 
भूरे कवर के साथ
नई किताब की चमक में
छिप गया 
पिछले साल का कलेण्डर
जिसपर आया था कभी
वेलेन्टाईन एक बार
कह रहा है आज भी
भीतर रखा
एक सूखा गुलाब

Tuesday, December 20, 2011

आज का दिन



आज का दिन

आज का दिन खूनी था शायद, तभी तो- अभी वह घर से निकलकर पचास कदम आगे बढ़ भी नहीं पाया था कि........
बस! एक मोड़ ही मुड़ा था। सीधी और चाौड़ी सड़क थी। सुबह के सात बजे वह निकला था, तब हल्का धुंधलाका था पर अब सात बजकर पांच मिनिट होने को हैं, चारों ओर पूरा उजियाला पसर चुका है। स्ट्रीट लाईट बंद हो चुकी है। वीरान सी सड़कों पर कुछ इक्के दुक्के लोगों के होने का एहसास भर हुआ था उसे।
वे लोग- उनके चेहरे कपड़े से लिपटे हुए थे। उसे लगा वे सफाई कर्मचारी है, आज शायद सड़क पर कोई विशेष सफाई अभियान हो। पर वह गलत था। वह सफाई करने वाले नहीं थे, बल्कि हमलावर थे। यकायक उन्होंने आकर उसे घेर लिया और प्रहार के लिए जैसे उनके डण्डे उठे, वह भागा। उसने न इधर देखा न उधर बस पांव जिधर उठ गये वो सरपट दौड़ पड़ा। उसने बेतहाशा दौड़ बढ़ाई। वे पीछे थे, कुल गिनती में चार लोग।
वह दौड़ रहा था और दौड़ते-दौड़ते ही उसने निर्णय किया- कहीं पनाह लेनी होगी। एक घर सामने था- मिश्राजी का।
वह उन्हें अच्छी तरह जानता था। घर की फाटक खोल भीतर घुसने में वह सफल हो गया। दरवाजे तक पहुंच पाता इससे पूर्व ही उन हमलावारों में से एक के लठ्ठ का प्रहार उसके पांव पर गिरा। पिंडली पर लगी भंयकर चोट के कारण वह थोड़ा लड़खड़ाया इतने में दूसरा प्रहार उसके कंधे को तोड़ गया। वह संभल नहीं पाया। वहीं अपने सिर को दोनों हाथों से बचाते हुए उकड़ू बैठ कर सहायता के लिए पुकारने लगा। अब तो वे चारों उस पर पिल पड़े। वे उसे इस तरह पीट रहे थे मानो रूई धुन रहे हो। तड़ातड तड़ातड़, प्रहार पर प्रहार। उसकी भयानक चीखे और डण्डे बरसने की आवाजे दोनों घुलमिलकर खौफनाक रिदम बन गई थी।
जानलेवा हमला हो रहा था उस पर। डण्डों के अगले मुहाने पर लगभग 6 इंच तक कीले ठुकी हुई थी। जो पिटाई के साथ साथ उसकी चमड़ी भी उधेड़े जा रही थी। धड़ाधड़
धड़ाधड़........
आज का दिन ममता भरा दिन था शायद, तभी तो- सड़क बुहारते हुए उसकी नजर इस हमले पर गिरी। वह झाडू हाथ में लिए हुए अपनी सरकारी ड्यूटी पर थी। सड़क से कचरा हटा रही थी। इसी दौरान उसे दौड़ते हुए बूटों का स्वर सुनाई पड़ा। सामने देखा- एक युवक के पीछे कुछ लठैतों को दौड़ते हुए। वह कुछ समझ पाती तब तक वह लड़का एक घर के भीतर घुस गया, पर वह वहीं बाहर संकरी बाऊंडरी में फंसकर धिर चुका था। वे उसे निर्दयता से पीट रहे थे। वह उस जगह के लिए दौड़ी जहां ये हादसा हो रहा था। उसने उन्हें रोकते हुए ललकारा- ‘‘खबरदार जो किसी ने अब इस पर हाथ भी उठाया तो.......क्या मार डालोगे उसे?कमीनों ऽ ऽ ...... एक निहत्थे पर चार चार पिल रहे हो। शर्म नहीं आती तुम्हें.......दफा हो जाओ यहां से नहीं तो एक एक को टांग तोड़कर .....’’दहाड़ते हुए उसके हाथ में झाडू मजबूती से कुछ इस तरह ऊपर उठ आया मानो एक सशक्त हथियार हो। उसने हमलावरों में से एक का हाथ पकड़ कर धक्का दिया और घेरे को तोड़ती हुई भीतर घुस कर उसने अपना आंचल पीटने वाले पर फैलाकर ढ़कने की कोशिश में वह उससे लिपट गई। इसी बीच एक वार से खनखनाकर कांच की सारी चूडि़या झड़ गई।
अचानक हुए इस व्यवधान से हमलावर कुछ ठिठके। वह गुस्से में भरी हुई फिर बरसी- ‘‘कुछ तो शर्म करो। ओ मोहल्ले वालो क्या तुमकोे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा है ? आंख कान वाले
अंधों-बहरो.....जरा सुनो तो....क्या सबके सब नपुसंक होकर दुबके बैठे हो? खोलो, अपने दरवाजे खोलो......’’
समय की नजाकत को समझ हमलावर भाग खड़े हुए। अब वह उस भयभीत युवक को सहला रही थी। अपने आंचल से उसके बहते खून को पौंछते हुए उसने पुचकारा- ‘‘क्यों ये दुष्ट तेरी जान के पीछे पड़े थे...........कहां कहां चोट लगी तुझे......मुझे बता तो......’’
अब तक दबे बैठे, या तमाशा देखने वाले सभी लोग बाहर निकल आये थे। सभी के मुख से उसके गुणगान हो रहे थे। कोई कह रहा था.......जन्म देने वाली से भी बढ़कर, नवजीवन देने वाली मां’’, किसी ने कहा- ‘‘उसके जीवन की रक्षा कर सचमुच वह यशोदा मैया बन गई है।’’ यहां वे इस बात को सब नजरअंदाज कर चुके थे कि यहीं वो महिला है जिसने अभी-अभी मोहल्ले वालो को गाली गलौच दी थी। उन्हें बेशर्म और खुदगर्ज कहकर उनकी गैरत को ललकारा था।
आज का दिन शायद मानवीय सभ्यता के कलंक अछूत दर्शन का भी था। तभी तो- मुर्दा बस्ती के उन लोगों ने यह भी कहा था- हरिजन स्त्री है, इसे क्या मुंह लगाना यह तो हर रोज ही सड़क बुहारने आती है।
‘जल ही जीवन है’ जिसे वह घायल युवक मांग रहा था। वह युवक जो कि उनकी पिछली सड़क पर रहने वाले डगवाल सा. का बेटा था जिसे वे भलीभांति पहचानते थे। कोई भी उसे पानी नहीं दे रहा था क्योंकि वह उस हरिजन स्त्री की गोदी में गिरा पानी मांग रहा था। एक मेहतर ने इसे छू लिया है। अब कौन अपना धर्म भ्रष्ट करें?
मैया अपने आंचल से उस पर हवा कर रही थी। पर पानी...? पानी...वो कहां से लाती? तमाशाबीन लोग खामेश से इस बेबसी का अनोखा खेल देख रहे थे। उसने हाथ जोड़कर मोहल्ले वालो से प्रार्थना की। तब जाकर किसी एक का मन पसीजा और विकल्प के रूप एक आईडिया उसको क्लिक हुआ होगा तभी तो वह एक डिस्पोसेबल ग्लास में पानी भर कर दूर रख गया। उस मैया ने उसे सहारा देकर उठाना चाहा तो वह उठ नहीं पाया। उसका कंधा झूल गया। मैया ने चम्मच के लिये फिर याचक दृष्टि दौड़ाई। कोई समझकर प्लास्टिक का चम्मच लाता इससे पूर्व ही उस युवक की पत्नी दौड़ती हुई चली आई। उसके पीछे पीछे उसकी सगी मां भी थी। सचमुच यह एक संवेदनाशून्य दिवस होता अगर वे लोग नहीं आयी होती तो? उनके आने से सोये लोगों की संवेदनाएं अब जाग चुकी थी।
आज का दिन एक सुनियोजित अपराध का भी था। पूरणमल ठेकेदार बरसो से वर्मा स्टील कम्पनी में टेण्डर भरता आ रहा था। अभी तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि टेण्डर उसे न मिला हो या किसी ने कोई मीनमेख भी निकाली हो। बरसो से वेस्ट का मलबा वही उठाता आ रहा है। इस बार देखो- ये नया नया लड़का क्या आया, अकल की गर्मजोशी दिखाने लगा। जोड़ बाकि की गणित तो पिछले भी सब जानते थे पर वे सब भरी पूरी उम्र के घर गृहस्थी वाले लोग थे। उनकी भी अपनी जरूरते थी। पैसे के बिना सब सून, सेटल था ऊपर से लेकर नीचे तक।
‘‘अब इसने आकर ऊपर बैठे अफसर को कौनसा पान चबवाया कि इस बार का टेण्डर उसके हाथ ही निकल गया। मेरा तो सारा धंधा ही चैपट कर दिया इस कल के लौंडे ने.......’’पिच्च करके पीक थूकते हुए पूरणमल ने इस छोरे को सबक सीखाने की ठान ली थी। किसी को कानों कान खबर न हो और काम हो जाय। ऐसा ही तरीका था पूरणमल का।
आज का दिन भंयकर असमंजस से गुथमगुत्था होने का दिन भी था शायद। किसने हमला करवाया? कौन थे हमलावर? क्या रंजिश थी? कुछ लूटकर तो नहीं ले गये?
सब यथावत था। जेब को हाथ तक नहीं लगाया गया, घड़ी, चेन, मोबाईल सब यथावत थे तो फिर क्यों जानलेवा हमला हुआ? किसलिए और किसने किया अपराध? जितने मुंह उतनी बाते। जितनी संवेदनाएं उतने दिमाग। खोज लाये दूर की कौड़ी पर-
किराये के अपराधी कहीं पकड़ में आते हैं क्या? आज का दिन अपराध का ही नहीं भ्रष्ट प्रशासनिक दर्शन का भी था। पिटाई करने वालो के खिलाफ एफ.आई.आर. भी दर्ज हुई। किसने हमला करवाया और कौन थे हमलावर, आखिर पता लग ही गया।
जब सब खोज खबर हो गई तो क्यों नहीं पकड़े गये अपराधी? प्रश्न सिक्के के एक पहलू की तरह सामने था तो उत्तर भी सिक्के के दूसरे पहलू की तरह पीछे दबा, छिपा झलक रहा था। सभी ने जान लिया था- पिटने वाले युवक ने भी, उसके घर वालों ने भी, तमाम रिश्तेदारों ने भी यहां तक कि मोहल्ले वालों ने भी। पुलिस रिपोर्ट का कोई परिणाम नहीं निकलेगा। कोई नहीं पकड़ा जायेगा क्योंकि उन गुण्डों में से दो पुलिस वालों के बेटे थे और बाकि बचे दो राजनैतिक संरक्षण पाये हुए शराबी कबाबी। जिनका वास्ता तत्कालीन विधायक से होता हुआ कुछ और ऊपर तक.....शायद भाई भतीजे थे।
तो आज का दिन.....................अभी भी बहुत कुछ शेष है, ये किस्सा अंतहीन है। कहां तक की बात मैं कहूं?

Saturday, November 26, 2011

आदमी का अहसास


जिन्दगी की किताब पर
रोज होते है
हास परिहास
नित नये रूप में
छपते है
संवाद
चाय के पानी की तरह
खौलते है गैैस पर
फ्र्रिज में रखे
दूध का ठण्डापन
जमने न देता
डिब्बे में बंद
चीनी की मिठास
जागता है फिर गर्म अहसास
मुंह के सामने
लगी प्याली की तरह
गर्म धुंए से
लौटता है फिर
आदमी का विश्वास

Thursday, November 24, 2011

तेरे रूप कितने



तेरे रूप कितने


आज मैं फिर इस शहर के करीब पहुंच चुकी हूं। दूर से ही पहाड़ी पर शान से इठलाता हुआ प्राचीन दुर्ग मुझे शहर के पास पहुंचने का संदेश दे रहा है। सांध्यवेला की समाप्ति पर धुंधले
अंधेरे में किसी तिलिस्म की भांति खड़ा है यह दुर्ग। झिलमिल प्रकाश और स्पाॅट लाईट में महल, स्तम्भ, प्राचीन मंदिरों के शिखर, प्राचीर सबकुछ जीवन्त हो अपना जादू बिखेर रहे है। भक्ति और शक्ति के लिए विख्यात यह नगर अब मेरे लिए अनजाना नहीं रहा। पन्ना, पद्मिनी, कर्मावती और मीरा जैसी ललनाओं ने इसे इतिहास में अपनी अनूठी पहचान अर्पित की थी।
‘क्या इस मिट्टी में स्त्री महिमा के कण आज भी मौजूद है?’ यह विचार मन में आते ही मैंने अपनी आंखे मूंद ली, सिर स्वतः ही सीट के सहारे टिक गया। एक चेहरा बंद आंखों में घूम गया - तुम्हें किस नाम से पुकारूं ‘काकीसा’ हां यही ठीक रहेगा। तुम्हारा अदब कायदा देखकर तुम्हें नाम से बुलाना अच्छा नहीं लगेगा मुझे। हालांकि उम्र में तुम मुझसे चार-पांच साल मुश्किल से बड़ी होगी। तुम भी मुझे मम्मीजी कहकर बुलाती थी। कितना अजीब था रिश्तों का संबोधन। मैं तुम्हें काकीसा और तुम मुझे मम्मीजी, रिश्तों का ये संबोधन हमारी सामाजिक स्थिति को रेखाकिंत करते हुए अपनी-अपनी मर्यादाओं में बंधा हुआ था।
-पता है आज मैं तुम पर लिखने की सोच रही हूं।
-मुझ पर? काली रंगत पर सफेद दंत पंक्ति चमकाती तुम सामने होती तो हंस पड़ती, ‘‘देखो रे! कालकी की किस्मत चमकी। ’’ हर बात पर तुम यही तो कहती थी। एक बार जब तुमने कहा था- ‘‘देखो कालकी के दिन पलटे, मजे से गाड़ी में घूमती फिरती है।’’ जब तुमने खुद का उपहास उड़ाया। मुझे अच्छा नहीं लगा।
-ऐसा क्यों कहती हो?
-मैं नहीं मम्मीजी, वो कहेंगे।
-वो कौन?
- क्या बताऊं मम्मीजी सब मुझसे जलने लगे है। इस कान्हा के भाग्य से मुझे मिली ए.सी. की ठंडक उन पर कहर बरपा रही है। कान्हे के साथ मुझे कार में घूमते देख उनके सीने पर सांप लौटने लगता है। रामेश्वर की बहू सब कह देती है मुझे।
-कौन रामेश्वर?
-ओ ऽ मम्मीजी आपके आर्शीवाद से......और उसने हंसी रोकते हुए साड़ी का फोहा बनाकर मुंह में ठूंस लिया।
मतलब? मतलब यह था कि रामेश्वर उसका बेटा है। जिसकी पत्नी उसे सुनाती है- कान्हा पाकर तुम तो निहाल हो गई माई। ‘‘कान्हा’’ मेरे दोहत्र को तुम इसी नाम से पुकारती हो।
सचमुच रूद्र के कारण काकीसा के दिन पलट गये थे। दरअसल काकीसा मेरे दोहित्र की आया थी। पक्के वर्ण की साधारण शक्ल वाली दुबली और लम्बे कद वाली महिला एक ऐसा गरिमामयी व्यक्तित्व - जिसे मैं कभी नाम से नहीं पुकार पायी।
बेटी चाहती थी कि एक बार मैं उसे देख परख लूं। सवा माह के शिशु को लेकर वह चली गई थी मेरे पास से। जब रूद्र दो माह का हो चुका तो वह अपनी प्रेक्टिस की दुनिया मैं लौटना चाहती थी। अतः उसने अपने नन्हे मुन्ने के लिए काकीसा रूपी दादी का बंदोवस्त कर लिया।
दादी इसलिए की वह खुद को रूद्र की दादी के रूप में प्रस्तुत करने लगी। बेटी ने मुझसे पूछा- ‘‘कैसी लगी आपको काकीसा?’’
हाॅल में रूद्र को उसे झूला झुलाते तुम्हें देख, मैं हंसकर बोली- ‘‘डेढ़ हजार की दादी।’’ मेरे इस उत्तर पर वह भी मुस्कुरा उठी। सचमुच रूद्र को डेढ़ हजार रूपये प्रति माह में दादी मिल गई थी।
तुम उठी और अबोध शिशु को शू-शू करा लायी। अब तुम तन्मयता से उसकी नैप्पी बांध रही थी। मैंने बेटी की ओर देखा और बेटी ने मेरी ओर मैंने आंखों ही आंखों में इशारा किया और ‘हांमी’ भर दी। मेरी हांमी देख उसे तस्सली हुई।
दोपहरी का समय था। छोटी बेटी की शादी की वीडियो सी.डी. चल रही थी। तुम भी वहीं फर्श पर बैठी सी.डी. देख रही थी। पीठी का दृश्य था तुम आनंदित हुई पीठी के गीत गाने लगी। दृश्य परिवर्तन हुआ तो तुम झट से बोली- ‘‘यह तो मायरा हो रहा है’’और प्रफुल्लित हुई वह ‘वीरे’ गाने लगी। तभी झूले में सोया रूद्र कुनमुनाया। तुम उठी और झूला देती लोरी गाने लगी। मुझे अच्छा लगा और विश्वास भी हुआ कि मेरे दोहित्र की पालना तुम अच्छे से कर लोगी। यह सब करते हुए कितनी प्रसन्न मुद्रा में रहती थी तुम। जब हम तुम्हें साथ लेकर मंदसौर दर्शन करने गये थे, पूरे रास्ते तुम्हारे भजन चलते रहे जिसने सफर को यात्रामय कर दिया था। तुम हर जगह अपने को जोड़ देती थी।
मुझे लिखता देखकर तुम चाय बना लायी थी।
-अपनी भी बनाई?
-ओ मम्मीजी मेरे तो दूसरे के घर का पानी नहीं ओजता।
-क्या?
-हां, मेरे आखड़ी है।
-मतलब?
मतलब यह था कि काकीसा ने अपने स्वर्गीय पति को लेकर बाधा ले रखी थी। जब तक वह उनके नाम का रातीजगा नहीं दे देगी तब तक किसी घर का पानी तक नहीं पीयेगी। उसके अनुसार उसका पति मृत्यु बाद देवता बनकर प्रकट हुआ है और अब बहू के शरीर में आता है। उन्होंने ही रात्रि जागरण मांगा है। वह उनको वचन दे चुकी है और जब तक वचन पूरा न हो जाए वह किसी के यहां का पानी तक नहीं पीयेगी। वह यह बाधा(आखड़ी) ले चुकी है। सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ। पति से इतना गहरा अनुराग, उसकी मृत्यु के बाद भी........
कुछ भी हो तुम अपने कायदे की बहुत पक्की थी। हमारे घर में खाने के लिए क्या कुछ नहीं था पर तुम....हर चीज के आग्रह पर तुम्हारा एक ही जवाब होता- ‘‘मेरे काम नहीं आता।’’ तुम कुछ भी नहीं खाती थी। तुम्हारा यह त्याग देखकर मैं सहज ही यह अनुमान लगा बैठी थी कि तुम्हें अपने पति से असीम प्रेम मिला होगा। किन्तु तुम्हारी बातों ने तो मेरे अनुमान की परखच्चियां उड़ा दी। तुम अब तक की सारी उम्र में अपने पति के साथ केवल पांच-सात साल ही रही बस!
-हो मम्मीजी क्या करती जब मैंने अपनी आंखों से उसे सौत के साथ सोते देख लिया तो फिर उसके बिस्तर पर चढ़ूं तो भाई के बिस्तर पर चढ़ूं इतना दोष लगे मुझे।
-क्या मतलब?
-सच्ची में मम्मीजी, मैं अपने तीनो बच्चों को लेकर निकल आयी। बड़ा रामेश्वर तो फिर भी तीन बरस का था पर उदयलाल तो दूध चूखता था।
-फिर अपने पीहर में रही?
-थोड़े दिन। फिर मजदूरी करते हुए अलग रहने लगी।
-मजदूरी से काम चलता था तुम्हारा?
चलता....कभी कभी कोई पेटियों रख जाता। लोग सीधा आटा दाल दे जाते...चलता रहा...बगत निकल गी। यह कहकर एक सुखभरी सांस खींची थी तुमने। अपनी शर्तो पर जिन्दगी जीने के सुख की। तुम अपने पति के पास वापस कभी नहीं गई। जबकि वह एक अच्छी सरकारी नौकरी में था। तुम समय परिस्थिति से समझौता कर चलती तो एक अच्छी जिन्दगी जीती। पर इसका तुम्हें कोई मलाल ही नहीं, बल्कि तुम मुझे पल पल पर चैंका देती। तुम्हीं ने बताया था कि उसमें कहीं थोड़ी सद्बुद्धि थी जो पेंशन में मेरा नाम लिखवा दिया था उसने। आज भी तुम्हें वह पेंशन मिल रही है। ‘‘तुम्हें उससे लगाव तो रहा होगा तभी......?’’
-लगाव कठा’रो। देवता बण’र आया पछे तो करणो पड़ै। हूं तो सात फेरा री परणी। हूं तो पतिवरता नार। म्हारो धरम कई है....आप ही बतावौ?
मुंह की बात पूरी भी नहीं होने दी थी तुमने और तमक उठी थी तुम अपने पक्ष में दलील देते हुए। तुम कितनी खुद्दार हो। जवानी में पति को पथ भ्रष्ट देखा तो अलग हो ली। जिन बच्चों को तुमने इतनी तकलीफ से पाला उनके साथ भी तुम नहीं रहती?
- क्या करूं मम्मीजी, बहू थोड़ी गरम है। मुझे लेकर दोनों में घमासान होवै तो मैं अलग ही भली।
बेटी के पास जितने दिन भी रही तुम्हारी बाते, तुम्हारे आदर्श और तुम्हारे व्याख्याएं समस्त स्त्री जाति के गौरव को रूपायित करती, महिमा को परिभाषित करती और कई जगह खुद मुझे झकझोरने वाली थी। पर पन्ना-पद्मिनी-मीरा की इस धरती पर आज भी भारतीय स्त्री के उस स्वाभिमान भरी महिमा का कहीं अस्तीत्व हैं ? यह मुझे दस माह बाद महसूस हुआ।
बेटी का फोन था- ‘‘मां, कल काकीसा. ने रातीजगा दिया था। बहू के शरीर में देवता आये थे। देवता ने आदेश दिया कि वह कहीं काम न करें... और काकीसा ने देव आज्ञा मान काम छोड़ दिया है।’’
‘‘क्यों? तुमने उन्हें जाने क्यों दिया...रोक क्यों नहीं लिया...वापस बुला लो उन्हें?’’
‘‘मां बहुत मुश्किल है। उन्हें कोई नहीं डिगा सकता। मुझे तो लगता है कि काकीसा की बहू बहुत चालाक है। देवता का नाटक कर काकीसा का काम करना छुड़वा दिया। ताकि वह अपने घर का काम करवा सकें। एक दिन मैंने खुद घर जाकर देखा था। घर में काम के मारे काकीसा का बुरा हाल था।
अपने ही अन्धविश्वासों में जकड़ी तुमने आराम की नौकरी को तिलांजली दे दी थी। तुम्हारी यह विभिषिका कोई पहली कहानी नहीं है। भारतीय स्त्री की सदियों सदियों की कहीं अनकहीं यही कहानी है।


Wednesday, May 11, 2011

गीत


हे परोपकारी भगवन
तू रीते घट भर दे
सूखे ताल तलैया भर दे

पथिको को छैया दे
हे परोपकारी ईश्वर....
सावन को हरियाली दे दे

भादो को रिमझीम दे

पर्वतों को खोये जंगल दे

उजड़ो को बसेरे दे

हे परोपकारी भगवन...

पंछी को अमराईया दे दे

गैया के थन भर दे

रातदिन हेण्डपम्प की

खट पट कम कर दे

हे परोपकारी ईश्वर...

भैया को चबेना को दे दे
तू मैया को घर दे
तिनका तिनका लौटा दे

तू सब पीड़ा हर ले
हे परापकारी भगवन....