Sunhare Pal

Friday, September 5, 2008

किलर

ट्रेन धीरे धीरे रफ्तार पकड़ने लगी. प्लेटफार्म पीछे छूटने लगा. मैं जो अब तक अपनी सीट पर मुड़ी हुई खिड़की से बाहर झांक रही थी तो घूमकर सीधी हुई. जैसे ही मैं सीधी हुई तो मेरी नजरे सामने बैठे व्यक्ति पर गिरी और मेरी उपर की सांस उपर और नीचे की सांस नीचे रह गई. मानो चलना ही भूल गई हो.
मेरे सामने की बर्थ पर जो व्यक्ति बैठा था उसे देखकर मेरी घिग्घी बंध गई. बिल्कुल हू-ब-हू जासूसी सीरियलों वाला किल्लर. मेरी हालत बिल्कुल ऐसी थी जैसे चूहिया का सामना किसी बागड़ बिल्ले से हो जाय. एकदम हट्टा कट्टा लम्बा तगड़ा किल्लर जैसा आदमी ठीक मेरे सामने बिराजमान था. उसने सिर पर अंगजों के जमाने की काली हेट ओढ़ रखी थी और आंखों पर काला चश्मा लगा रखा था. चेहरे पर घनेरी दाढ़ी और लहराते हुए गर्दन के पीछे तक झूलते लम्बे बाल, गले में लटकी बड़े-बड़े मनकों की माला और क्रॉस लिपटी आठों अंगुलियों में भांति भांति की अंगूठिया चमक रही थी तिस पर धारण किये हुए उसके काले वस्त्र खौफ पैदा करने के लिये काफी था. जिन्हें देखकर मेरे शरीर में सरसरी सी हो आयी. अब मेरी नजरों ने उपरी बर्थ को टटोला. उपर की दोनों बर्थ खाली थी. यानि वो किल्लर और मैं दोनों आमने सामने अकेले थे. वह कहां देख रहा है यह भी नहीं कहा जा सकता था क्योंकि उसने आंखों को काले चश्में से जो ढ़क रखा था.
बड़ी विचित्र और भयानक स्थिति थी. ऐसे तो मैंने उदयपुर से जयपुर और जयपुर से उदयपुर तक की रात्री जर्नी ट्रेन में अकेले कई बार की थी पर यह पहला ऐसा अवसर था. अपने सामने ऐसे व्यक्ति को बैठे देख चाहे कितनी भी साहसी या प्रौढ़ा महिला हो, झुरझुरी हो आना स्वाभाविक थी.
मुझे कुछ नार्मल होने में यहीं कोई पांच-आठ मिनिट लगे. अब यात्रा तो करनी ही थी मैंने पैरों को समेटा. पांव में चप्पल चुभती सी लगी तो चप्पल उतार दी. और कोई चारा भी नहीं था.
शायद अगले स्टेशन पर कुछ और लोग चढ़ जाय कूपे में और यह उपर की दोनों बर्थ भर जाय. मैं मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगी. सच! उस समय के हरि स्मरण ने मेरा मनोबल बढ़ा दिया. क्या कर लेगा अगर उसे सोना जेवरात चाहिये तो क्या है मेरे पास? मन की नजर घूमने लगी तन पर - गले में पहना मंगलसूत्र दो ढ़ाई तोले का, हाथ के पहने सोने के कड़े तीन तोले के, अंगूठी और कान के टॉप्स बस यही तो है शरीर पर धारण किये हुए कुल मिलाकर छ: सात तोला सोना. और पर्स में हजार दो हजार से अधिक नहीं था. ए.टी.एम. जो रखती हूं मैं. ले ले भई! यह सब और जान बख्श दे. मानो इसे रूपया पैसा या जेवरात नहीं चाहिये तो?
यह कोई किल्लर हुआ तो? मुझे क्यूं मारेगा कोई? मेरी किसी से क्या दुश्मनी. फिर मुझे मारकर उसे क्या मिलेगा? जो भी हो अब हिम्मत और चतुराई से काम लेना पड़ेगा. कहते हैं न कि अकल बड़ी कि भैंस. मन की इस जुगाली के चलते मैंने इत्मीनान से पहलू बदला. खुद के इस इत्मीनान पर खुद मुझे भी आश्चर्य हुआ. सामने मौत बैठी और मैं इत्ती बैखौफ?
गाड़ी से भी तेज रफ्तार पर धड़धड़ा रही थी सोच की गाड़ी. ‘आखिर बुरा से बुरा क्या हो सकता है मेरे साथ?’ केवल इतना सोचते ही मन की सनसनाहट कानों तक को कंपकंपाने लगी. स्त्री का शरीर जिसे प्रकृति ने कमजोर बनाया है. यह भी तो सब अनर्थो की जड़ है. पर तुम तो अब उस आयु को पार कर चुकी हो. पूरी प्रौढ़ा दिखती हो. अब डर कैसा? जब तुम तो भरी जवानी में भी ऐसे अकेली सफर करने की आदी थी. याद आया प्रीतमपुरा का वह हॉस्टल. दसवीं के बाद से बाहर निकल गई थी. पहले पढ़ाई के लिये फिर नौकरी के लिये. कितनी बोल्ड? डर किस चिड़िया का नाम है यह तो तुम जानती ही नहीं थी फिर इस पड़ाव पर आकर डर रही हो स्त्री होने के कारण. इतिहास गवाह है स्त्रियां कितनी सबल हुआ करती थी. जरा सोचो तो. मुझे लगने लगा कि मैं अपनी सांस सुन पा रही हूं. गाड़ी की इस गड़गड़ाहट के इस शोर के बावजूद.
गाड़ी धीमी होने लगी थी मेरी नजरे जो अब तक खिड़की से बाहर देख रही थी सामने की बर्थ की ओर घूम गई. बर्थ खाली थी. ‘यानि वो गया’. नजरे उसे कूपे में इधर उधर तलाशने लगी. वह कहीं नजर नहीं आया. एक लम्बी सांस अपने आप खींचकर भीतर भर गई. मैंने राहत महसूस की. गाड़ी रूकी नहीं थी धीरे चल रही थी. यहां कोई स्टेशन भी नजर नहीं आ रहा. मैंने खिड़की से बाहर इधर उधर नजरे दौड़ाई. शायद गाड़ी को सिगनल नहीं मिल रहा दिखता है इसलिये धीमी हो गई. छक-पक-छक-पक-छक-पक. गाड़ी हिचकौले खा रही थी. मैंने अपने चप्पलविहिन पांव में फिर चप्पल डाल ली. सामान संभालने लगी जबकि सामान पहले से ही यथावत अच्छी तरह जमा हुआ था. सूटकेस अपनी जगह था. बेग भी था और पर्स भी. मन हुआ कुछ पढ़ा जाय और बैग की जीप खोल मैंने एक पत्रिका निकाल ली. कल ही आयी थी नई नई. मैं पत्ते उलटने पुलटने लगी. गाड़ी ने फिर रफ्तार पकड़ ली. वह अपने काले बूटों से ठक ठक करता आया और फिर मेरे सामने की बर्थ पर पसर कर बैठ गया.
‘ओह! तो यह यहीं है, गया नहीं.’ कुछ देर पहले जो बेफिक्री और निश्चिंतता मेरे उपर छायी थी वहां फिर हवाईयां उड़ने लगी. मैं सहज होने के प्रयास के साथ पत्रिका के पन्नों में आंखें गड़ाने लगी. काले-काले गोल-गोल सारे गड़बड़झाला होते अक्षरों को पकड़ने के लिये मैं लाईन-इर-लाईन पढ़ती जा रही थी पर कुछ समझ नहीं आ रहा था. इतने में सामने की बर्थ पर हरकत हुई. मैं चौकन्नी हो कनखियों से देखने लगी - वह उठा था और अपना छोटासा बैग खिड़की के किनारे रखा. शायद उसमें से उसने कुछ निकालकर मुंह में डाला था. सुपारी, जर्दा या पान मसाला क्या पता क्या था. मैं तो बस वैसे ही जड़ बनी बैठी रही.
धुंधलाका पसरने लगा था. साथ ही ठण्डी हवा के झोंके भी. मन हुआ खिड़की का शीशा उतार लूं. नवंबर माह की इस शुरूआती ठंड ने अगर जकड़ लिया तो पूरी सर्दी नाक सूं सूं सूड़कती जायेगी. पर मैंने ठंडी हवा को आने दिया. उस सामने बैठे व्यäि से अधिक खूंखार नहीं थी ये ठंडी हवा. वो चुपचाप वैसा ही निर्विकार भाव धरे बैठा हुआ था. मन ने कहा इससे बात करनी चाहिये.
पर क्यों? तुम्हें क्या काम है इससे? क्या कुछ समय चुप नहीं बैठा जा सकता? अपरिचितांे से क्यों बोलना पड़ रहा है? मन ने ही घुड़का था मुझे.
पर बोलने से अजनबीपन टूटता है. अगले की थाह ली जा सकती है. क्या बुराई है बोलने में. अच्छे-अच्छे दादा टाईप लड़कों से कई बार निपट चुकी हूं मैं. मन ने फिर हौंसला दिया. मैं बात शुरू करने का बहाना ढूंढ़ने लगी क्योंकि मैंने उससे बात करने का मन बना लिया था. अब मुझे उससे डर कम लग रहा था बल्कि उसमें मेरी उसमें रूची बढ़ने लगी थी. कि वह कौन है? कहां जाना चाहता है? क्या करता है? इत्यादि इत्यादि. क्योंकि हरेक आदमी का एक अतीत होता है और अपना एक रचना संसार. और उसमें बसती कई किस्सागोई जिनमें मेरी रूची बसती है. अंधेरा छाने लगा था और मुझे बहाना मिल गया था उससे बतियाने का -
‘‘लाईट जला दूं.’’ आगे चलकर मैंने पूछा था. और उसने कुछ भी प्रत्युäर नहीं दिया. क्षणांश बाद मैंने लाईट जला दी और दोनों हथेलियों को जोड़ आदतानुसार बोली ‘‘जय श्री कृष्ण’’ वह भी कुछ बुदबुदाया था. फिर चुप्पी छा गई .
‘‘कहां जायेंगे आप?’’ मैं पूछने ही वाली थी कि टी.टी. आ गया. चलो अभी पता चल जायेगा कि ये कहां तक चलेगा. पर यह क्या? वह तो उठकर खड़ा हो गया और चलता बना. टी.टी. ने मेरा टिकिट चैक किया. सामने उसे न पा मैंने टी.टी. से आखिर पूछ ही लिया ‘‘क्या उपर की बर्थ खाली हैं?’’
‘‘यस मैडम. अभी तो खाली ही हैं.’’
मेरा मुंह ‘फक्क’ हो गया.
मैं नीचे झुक पैरों से अपनी चप्पले टटोलने लगी. वह यथावत थी. वह फिर सामने आकर बैठ गया. उसकी अंगुलियों में पहनी अंगूठियां बल्ब की रोशनी में चमकने लगी.
‘‘ये जो आपने बिल्ली की आंख जैसी लहसुनिया पहन रखा है उसे इस सर्प की अंगूठी के साथ नहीं पहनना चाहिये.’’ मैंने यूं ही झूठमूठ ज्योतिष बघारी.
मेरे कहने पर वह थोड़ा सकपकाया और हिला डुला. उसने अंगुलियों में पहनी अंगुठियों को नजर भर देखा पर बोला कुछ नहीं. मेरा यह प्रयास भी विफल गया.
‘‘आप ज्योतिष में बहुत विश्वास करते हैं?’’ मैं भी हार मानने वाली नहीं थी. उपेक्षित भाव से उसने अपने कंधे कुछ उचका दिये थे बस. फिर वही चुप्पी.
‘‘ठंड कुछ बढ़ गई है.’’ मैंने विषय बदला.
इस पर वह उठा और उसने खिड़की के शीशे नीचे गिरा दिये. कुछ तसल्ली हुई. ‘पाषाण कुछ पिघला तो सही.’
मेरे हाथ बैग टटोल रहे थे. खाने के डिब्बे निकाल मैंने बर्थ पर फैला दिये.
‘‘खाना खाओ भैया’’ स्वर की सहजता व मिठास पर मैं खुद आश्चर्य चकित थी.
‘‘नहीं, आप खाईये.’’ पहली बार उसने मुख खोला था.
‘‘लीजिये न’’ मैंने मनुहार की. ‘‘दरअसल मेरे पास दो टिफिन आ गये है खाने के. बच्ची भी ले आयी और भाई भी ले आया. भाभी ने भेज दिया था. इसमें शायद आलू के परांठे हैं. आप लीजिये ना. गोभी के आचार के साथ तो यह बहुत स्वादिष्ट लगते है.’’
अपने इस बेतल्लुफ व्यवहार पर मैं खुद आश्चर्यचकित थी. एक पेपर प्लेट में परांठा आचार नमकीन और एक बर्फी का टुकड़ा रख मैंने प्लेट उसके आगे बढ़ा दी. कुछ उलझन के बाद उसने ले लिया. हम खाने लगे और बातों का सिलसिला चल पड़ा. कहां के हो भैया? क्या करते हो भैया? घर में कौन कौन हें? कितने भाई बहन हो? कितने बेमानी और कितने प्राईवेट प्रश्न मैं यूं ही पूछे जा रही थी जैसे उससे मुझे कोई रिश्ता नाता जोड़ना हो और वो हर बात का अब बड़े आराम से जवाब दे रहा था.
खाना खत्म होने के साथ ही गाड़ी रूक गई. वह गाड़ी से उतरा. प्लेटफार्म से पानी भर लाया. ‘‘दीदी पानी पीओगी?’’
‘‘नहीं, बोतल है मेरे पास.’’
‘‘चाय कॉफी कुछ लाऊं?’’ वह पूछ रहा था.
‘ना बाबा रे! ना. मैंने उसी क्षण मना कर दिया. बहुत किस्से हो चुके है नशीली चाय कॉफी से मुसाफिरों के लूटने के.’ प्रत्यक्ष में मैं सहजता से बोली -
‘‘नहीं भैया चाय कॉफी मैं नहीं पीती. डायबिटीज है.’’ मैंने जानबूझकर झूठ बोला. शायद वह मेरे खाने का ऋण उतारना चाह रहा हो. मैं क्यों नाहक उस पर शक कर रही हूं. दूसरे ही क्षण मन ने मुझे लताड़ा - ‘हर गमले में फूल नहीं लगे होते विम्मो रानी, कुछ गमलों में केक्टस भी उगते हैं.’ खाने के बाद हल्की सी ठंड चढ़ आयी थी पर चाय की इच्छा को मन ही मन दबाना पड़ा.
गाड़ी चल चुकी थी. और वह सामने बर्थ पर बैठ गया था पूर्ववत. ‘किल्लर’ मन ने उसे संबोधित किया. पर मैं अब काफी नार्मल हो चुकी थी. पर मेरी सर्तकता में कहीं कोई कमी नहीं आई थी.
‘‘आजकल कहां काम कर रहे हो भैया?’’ मैंने उसे यूं ही बतियाया.
- स्टेट रोडवेज में ड्राईवर हूं.
- कबसे?
- इससे पहले क्या करते थे भैया?
- ट्रके चलाता था ट्रांसपोर्ट की.
- अच्छा ट्रके चलाते थे. बताओ तो जरा तुम्हारी उन ट्रकों के पीछे कुछ लिखा होता था कि नहीं. जैसाकि सबके पीछे कुछ न कुछ लिखा होता है. मैं बेतकल्लुफ होकर उससे ऐसे बात करने लगी जैसे वो मेरा सगा भाई हो. ‘‘हां, उसके पीछे लिखा हुआ था.’’ वह सुनाने लगा -
ये इश्क नहीं आसां,
बस इतना समझ लीजे।
इक आग का दरिया है
और डूब के जाना है।
मैं हो हो कर हंस पड़ी. वो भी हंसने लगा. उसने फिर सुनाया -
ऐसा कोई जहान मिले
चेहरों पर मूस्कान मिले
काश मिले मंदिर में अल्लाह
मस्जिद में भगवान मिले
- मेरे दोस्त की ट्रक पर लिखा हुआ था.
- कितना सच है इसमें मुझे बहुत अच्छा लगता है ट्रकों के पीछे लिखा पढ़ने में. मेरी बहुत दिलचस्पी है इसमें और वह सुनाने लगा और भी कई फिकरे जो लिखे हुए थे उन ट्रको के पीछे जो उसके अपनों की थी. जिनमें जिन्दगी के कई फलसफे बिखरे हुए थे.
बात करते करते कब नींद लग गई. सुबह जब नींद खुली तो जैसे ही ख्याल आया कि में ट्रेन में सफर कर रही हूं तो घबरा कर हाथ गले में पड़े मंगलसूत्र पर गया. अयं! मंगलसूत्र हाथ में नहीं आया. मैं फटाक से उठ बैठी और गला टटोलने लगी. साड़ी की तहों में लिपटा मंगलसूत्र गले में यथावत था. तभी मुझे उसका ख्याल आया तो मैंने इधर उधर आसपास देखा. वह किल्लर कहीं नहीं था. यानि किल्लर जा चुका है?
‘पर किल्लर कैसे कह रही हो तुम उसे बारबार?’ मन ने टोहका. ‘बहुत गलत बात है किसी का पहनावा या हुलिया उसका परिचय नहीं होता है.’
‘हूं डराया तो बहुत था उसने.’ दोनों हाथ जोड़कर मैंने ईश्वर को नमन किया और उठ बैठी. पांव में चप्पल डाली और टाफयलेट की तरफ चल दी.
निपटकर जब वापस आकर मैंने बर्थ पर फैले चादर तकिये समेटने शुरू किये तो तकिये के नीचे से फिसलता हुआ एक कागज का टुकड़ा नीचे पांव के पास आ गिरा.
‘यह क्या हैं?’ मैंने उसे उठाया और बंद तह को खोलकर देखा. सुन्दर सी हेंडराईटिंग में कुछ लिखा हुआ था -
मुझे भाई कहकर तुमने अपने आपको बचा लिया. मैं वो नहीं हूं जो तुम समझ रही थी. तुम्हारा मंगलसूत्र चूड़िया छीनने के लिये मैं तुम्हारे साथ गाड़ी में चढ़ा था. जालोरी गेट से ही तुम्हारे साथ हो लिया था. आइन्दा इतना जेवर पहनकर यात्रा मत करा करो. मेरे भी एक बहन थी जिसे दहेज के लोभियों ने जला दिया. मैंने उनको मारकर बहन के खून का बदला ले लिया. पर अब गुजारा तो करना ही पड़ता है. कल तुममें मैंने मीनू को पा लिया था.
बर्फ से भी ठंडे हुए मेरे हाथ पांव सन्न सन्न करने लगे. शिराओं में तो खून मानो जम ही गया था.