Sunhare Pal

Sunday, December 27, 2009

अंधेरे और उजालो के बीच

दरखतों के बीच से
गुजरता जब कोई परिंदा
धूप और बैसाख की
परवाह किए बिना
हर शाख बुनती तब एक घरौंदा
दूधिया, धवल या
फिर हो सुआपंखी
हर रंग में लुभाती जिन्दगी
दाना - दाना खाने
लिए अधखुली चौंचे
हर दम करती मानो बंदगी
पीन पंख फड़फड़ाएं
उड़ने को जी चाहे
हर मंजिल अनजानी, है नई डगर
न जाने राह लम्बी
आंख अभी धुंधली
हर आहट...डराये, है जोश मगर
नव कौंपल जब
नीड़ कोई सजाए
नभ भर लाये झोली भर सितारे
तब सूरज चंदा
मिलजुल कर सारे
नववर्ष की संध्या पर नव गान पुकारे
प्रेम सुधारस बरसाये
राग मधुर सुनाये

Monday, November 30, 2009

स्थगन

लो आज फिर रसोई से सफेद छुरी गुम हो गई, कहां जा सकती है? शक की सुई फिर भुआ की ओर उठ गई। घर में यह पहली बार घटने वाली घटना नहीं है। जबसे भुआ इस घर में काम करने आई है तबसे कई चीजे गुम हो चुकी है। साबुन, टूथपेस्ट, टूथब्रश से लेकर अगरबत्ती, केसर-चंदन डिब्बी के अलावा रसोईघर की कटोरी, चम्मच, गिलास और यहां तक कि दीपावली पर बच्चों के पटाखों का डिब्बा भी गुम हो चुका है। बहुत गुस्सा आया जब पटाखों का डिब्बा गुम हुआ था तब। निश्चय कर लिया था मैंने इस बार जरूर से भुआ की छुट्टी कर दूंगी। बहुत हो चुका, अब बर्दाश्त के बाहर है उसकी छोटी मोटी चीजे चुराने की यह आदत।
भुआ को जब काम पर रखा था तब ही बहुत लोगों ने अगाह कर दिया था - इसे काम पर तो रखा है पर इसकी आदत ठीक नहीं....हाथगली है.....साबुन की तो विशेष चोर है......इसे घर में डाला तो है पर सावचेत रहना......इसके पास और कहीं काम नहीं हैं.....इसे कोई नहीं रखता.....
जब वह नई-नई आयी थी उसे लेकर हमसब बहुत खुश थे। बरसो के संचित पुण्य के समान वह हमें सेवाभाव लिए मिली थी। यह पहली ही कोई काम वाली थी जिसकी हर कोई प्रशंसा कर रहा था। सुबह से लेकर दिन ढ़ले तक लगी रहती भुआ। फिल्मों में रामू नामक नौकर की तरह घर में कामों को इतनी मुस्तैदी से करती मानो घर की सदस्या ही हो। उसके मुंह पर किसी काम के लिए मनाही तो मानो थी ही नहीं। हर काम के लिए हर समय तैयार भुआ शान्तिभाव से निरंतर काम में जुटी रहती। फलस्वरूप वह घर में सम्मान पाने लगी और उसका नामकरण हुआ ‘भुआ’। सम्मान के साथ घर में भोजन-पानी-नाश्ता सबकुछ उसे मिलने लगा। हमारी निर्भरता उस पर इतनी बढ़ गई कि वह एक घंटा भी देरी से आती तो हम सब उसके लिए व्यगz हो उठते। उस दिन जब वह पहली बार देर से आयी थी तो -
- क्या बात है आज भुआ नहीं आई? रोज तो साढ़े नौ-दस बजे तक आ जाती है। आज तो ग्यारह बज रही है।
बाऊजी ने आकर प्राथमिकी दर्ज करायी- ‘‘मेरे बाथरूम से साबुन की बट्टी चली गई। कल ही तो मैंने नई निकाली थी।’’ ताजुब्ब तो जरूर हुआ पहली बार हुए इस खुलासे पर। सबने अंदाजा लगा लिया था कि कहां गई होगी? पर कोई कुछ नहीं बोला। साबुन से अधिक सभी की बैचेनी इस बात से थी कि अगर भुआ नहीं आई तो क्या होगा? किसी को स्कूल तो किसी को मिटिंग में तो किसी को पार्लर जाना था। मोहरी पर झूठे बर्तनों का ढ़ेर, बाथरूम में गंदे कपड़ों का अम्बार लिए पूरा घर सफाई के लिए ताकता मुंह बांये अस्त-व्यस्त पड़ा था।
तभी फाटक की कुंडी बजी। देखा भुआ प्रविष्ट हो रही है। सबकी जान में जान आयी।
- साढ़े ग्यारह बज रही है, भुआ इतनी देर से क्यों आयी?
- आज मेरे अग्यारस है। मंदिर में भजन हो रहे थे जरा बैठ गई।
सचमुच श्वेत वस्त्रों में लिपटी उस अधेड़ काया के माथे पर चंदन का टीका सुशोभित होता हुआ सौम्यता के साथ उसके साध्वीभाव की गवाही दे रहा था। आकर उसने बड़ी तन्मयता से काम संभाल लिया। किसी ने उसे कुछ नहीं पूछा।
अब सभी उसकी इस बात से परिचित हो गये थे कि हर महीने की अमावस्या, पूर्णिमा और ग्यारस जैसे विशेष दिनों पर वह मंदिर में भजन करने बैठ जाती है तो आने में देर तो हो ही जायेगी। वैसे भी उसकी दौड़ कभी घड़ी से रही ही नहीं। बस आहिस्ता आहिस्ता काम को अंजाम देने में जुटी रहती। कभी कहते भुआ यह काम पहले कर लो वो बाद में करना वह तुरंत आदेश की पालना करने लग जाती।
उफ! इससे पहले जितनी भी काम वाली आयी थी कैसी जुबान दराज और तूफान मेल थी। काम किया या नहीं वो जा, वो जा और जब तक काम पर नजर पड़ती वह रफूचक्कर। महीने में चार-पांच लांघा। जब समय मिले मुंह उठाकर चले आना। बिना कहे छुट्टी मार जाना। एक से बढ़कर एक मुसीबत थी। भुआ जैसी तो कोई आयी ही नहीं। मंदिर में जरा भजन में बैठ गई तो ठीक ही है। उपवास है उसके। एक तो बिचारी विधवा और ऊपर से जवान बेटे की मौत। इस दुख से तो उसे हरि स्मरण ही पार लगायेगा।
जब मन में ऐसे शुभ विचार चलते तो बाऊजी ने भी कहना छोड़ दिया कि भुआ कब उनके पूजाघर से अगरबत्ती, माचिस या केसर डिब्बी ले गई। भुआ को किसी ने कुछ नहीं कहा। चोरी और वह भी साबुन, अगरबत्ती जैसी छोटी-मोटी चीजों की। इतने बड़े घर के जखीरे में इन छोटी-मोटी चीजों की क्या बिसात? सब्र की जा सकती है। अगर भुआ काम छोड़ देगी तो घर में मुसीबत हो जायेगी। इतने बड़े घर का काम कौन करेगा? सभी ने सचेत व सर्तक रहने की एक दूसरे को हिदायत दी और अपने अपने काम पर लग गये।
इस बीच घर के लोगों ने उसे चीजे चुरा कर खाते पकड़ा था। कभी लड्डू तो कभी पापड़ी मौका मिलते ही भुआ बिना पूछे लेकर खाने लगी। एक दिन तो भुआ पकड़ी गई। एक पोलिथीन की थैली में विम पाऊडर भरते हुए मैंने खुद पकड़ लिया-
‘‘यह क्या भुआ?’’
‘‘कुछ नहीं भाभीसा.......एक क्षण के लिए वह अचकचा गई पर दूसरे ही क्षण उसे बहाना सूझ गया ‘‘बेसिन साफ कर रही हूं’’ और वह फटाफट साफ बेसिन की ओर बढ़ गई। उसके इस तरह बेवकूफ बनाने के नाटक रचने पर मन तो ऐसा उफना कि इसे अभी हाथ पकड़ कर बाहर करे।
उसकी चोरी पकड़ी जाने पर हिदायत भरे स्वर घर में फिर उभरे।
- ध्यान रखा करो।
- कहां-कहां ध्यान रखे इतने बड़े घर में?
- ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। ये चोर है तो कोई दूसरी देखो।
- तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे काम वाली सड़क पर पड़ी हो। ढ़ूंढ़ने निकले और मिल गई।
- क्या, सब घरों में काम करने नहीं आती क्या कोई?
- इतने बड़े घर में कोई काम करने को राजी हो तब ना.....
फिर चुप्पी लग गई। दीपावली की सफाई सिर पर थी। यह चली जायेगी तो कहां से ढूंढ़ेगे नई? यह तो कम से कम जमी जमायी है। कोई बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसका सबकुछ देखाभाला हैं। दीपावली निकलने दो फिर सोचा जायेगा। पर अब तो हद हो गई पटाखों की चोरी....आने दो उसको।
वह सप्ताहभर से विशेष अवकाश पर है। ग्यारस का उद्यापन दे रही है। ‘क्या फायदा ऐसी भक्तिभाव का? चोर कहीं की।’ भुआ को लांछना देते हुए सबने लताड़ा। इस बार तो उसका हिसाब चुक्ता कर ही देंगे। दो साल हो गये उसे काम करते-करते। पता नहीं कितनी चीजों को चुरा चुकी है अब तक, जो अभी तक हमारी निगाह में नहीं आयी है। घर के सभी सदस्य एक जुट हो गये थे कि वह आये उससे पहले सभी कामों को निपटा लिया गया। बबलू, चिंकी, सोनू से लेकर सभी बड़ों ने अपने-अपने कपड़े धोकर सुखा चुके थे। झूठी प्लेटे भी साफ हो चुकी थी। पूरा घर दुzत गति से साफ हो रहा था।
दमकते घर में फोन की घंटी बजी।
- छोटे की शादी की तारीख पक्की करने की बात कह रहे थे समधीजी। एक महीने बाद ही शुभ लग्न आ रहे है।
भुआ को निकालने का विचार फिर निरस्त हो गया। छोटे की शादी में भुआ ने दत्त-चित्त होकर काम किया। खूब खाया और खुले मन से दिये गये उपहार बटोरे। कुछ छोटी-बड़ी चीजे चुरायी होंगी तब भी किसी ने ख्याल नहीं किया।
पर एक दिन तो हद हो गई। नई दुल्हन का पर्स खोल लिया और पकड़ी गई। उसे खूब लताड़ा गया। पक्की उम्र का हवाला दिया गया। उसे सख्त हिदायत थी कि वह जाये तब बताकर जाया करे। जब तक दूसरी का बन्दोवस्त न हो जाय उसे रखने की विवशता अब भी घेरे हुई थी फलस्वरूप भुआ पर पूरी सर्तकता से ख्याल रखा जाने लगा।
नई की तलाश जारी थी। कई जगह इस बारे में बात चलाई गई। अभी तक कहीं से पलटकर संतोषजनक जवाब नहीं आया। उस दिन आजाद मोहल्ले से गुजर रही थी। तभी एक परिचित आवाज कानो से टकराई। मुड़कर देखा भुआ खड़ी थी।
- पधारो भाभीसा.
- तुम यहां रहती हो भुआ?
तभी ही मन में विचार कौंधा भुआ के घर के अंदर जाया जाय। मैं उसके घर के अंदर प्रविष्ट हो गई। साफ सुथरा पक्का दो मंजिला मकान। छोटे पुत्र की विडियो शूटिंग की दुकान, दो-तीन किरायेदार, उसकी समृद्ध स्थिति पर ताजुब्ब हुआ। दालान और बरामदे से गुजरती हुई मैनें उसकी रसोई में झांका। एक परिचित चीज से नजर टकरायी- ‘संडासी’ यह तो हमारे घर की है। गुमी हुई संडासी की याद हो आयी। आगे बढ़कर मैंने उसे उठा ली और उलटने पलटने लगी।
- यह तो बिल्कुल हमारे घर जैसी है।
- छोटा बेटा अहमदाबाद से लाया था।
‘झूठी और चोर’ बुदबुदाते हुए मैंने संडासी रख दी और तेजी से बाहर चल दी।
मैं बहुत श्रुब्ध थी - ‘क्यों सह रहे है हम भुआ को? ऐसी क्या विवशता है? क्या यह हमारी परवशता नहीं?
- छोड़ो सुधी, जाने दो। क्यों परेशान हो? कई लोग आदत से मजबूर होते है।
- आदत?
सभी गुस्से में थे। एक बार फिर भुआ का निकाला जाना तय हुआ। सब एकमत होकर कमर कस चुके थे- बस! किसी तरह यह महीना पूरा हो जाय। अभी 31 तारीख आने में 4 दिन शेष थे। परन्तु छोटी नन्द के परिवार सहित छुट्टियों में आने की सूचना ने भुआ के जाने पर फिर स्थगन आदेश जड़ दिया।

Friday, November 20, 2009

मैं और तुम


उसका और मेरा संघर्ष कब शुरू हुआ ये तो मुझे ठीक से मालूम नहीं, हां इतना मालूम है कि जब मेरे हाथ पैर और आंख नाक बन रहे थे और मुझमें थोड़ी- थोड़ी हरकत शुरू हुई थी तभी मैंने अपने पड़ौस मैं अपनी ही जैसी हल्की सी सरसराहट महसूस की थी। यद्यपि वो ओर मैं अपनी अलग-अलग थैलियों में थे, सिर्फ अहसास मात्र से ही एक दूसरे की उपस्थिति का हमे आभास मिल रहा था।
उसे ज्यादा जगह और ज्यादा आराम चाहिये था, उसने मुझे धकियाना शुरू कर दिया। वो ताकतवर था और मैं दुर्बल, फलस्वरूप मैं सिमटती गई और वो मेरी जगह पर भी अपना एकाधिकार करता चला गया।
मैं गहन अंधकार और पीड़ा से मुक्त होने के लिए छटपटाने लगी। पहले बाहर आने के लिए उसके और मेरे बीच संघर्ष होने लगा। पहले आगे सरककर उसने मेरा मार्ग अवरूद्ध कर दिया, मेरा दम घुटने लगा।
जब दो दस्ताना पहने हाथों ने मुझे खींचकर बाहर निकाल, उल्टा लटका दिया तब मैं बेहद घबराई हुई थी। इसलिए रोना भी भूल गई। मेरी पीठ पर थपकियां पड़ने लगी क्योंकि मैं रूक-रूककर सांस ले रही थी। चोट के दर्द से मैं बिलबिला उठी और डॉक्टर ने मुझे सीधा कर दिया। सीधा होते ही मैंने अचकचाकर पहली बार आंखें खोली।
उसके व मेरे बाहर आने का अन्तराल केवल दस मिनिट का रहा होगा किन्तु यहां भी वहीं बाजी मार ले गया। डॉक्टर द्वारा वो बड़ा और मैं छोटी घोषित हुई।
‘‘बहुत कमजोर बेबी है, उसे इन्टेसीव में रखना होगा’’ कहते हुए डॉक्टर ने मुझे पास खड़ी सफेद स्कार्फ बांधे हुई नर्स को थमा दिया। फिर मुझे कुछ होश नहीं रहा।
जब मैंने दुबारा आंखे खोली तो एक बड़े बल्ब की तेज रोशनी से मेरा परिचय हुआ। शायद वो मुझे गर्मी देना चाहते थे। सच! पीड़ा और ठण्ड के मारे मेरा बदन अकड़ा गया था। गर्मी पाकर थोड़ी राहत मिली और मैं हाथ पांव चलाने लगी। मुझे जगता देख फिर वहां से उठा लिया गया। लम्बी कारी डोर को पार करते हुये मैं नर्स की गोदी से वार्ड तक पहुंची। मुझे मेरी मां के बगल में लिटाते हुए नर्स बोली, ‘‘टेक केयर बहुत कमजोर बेबी है।‘‘
मुझे अपने सिर पर कोमल हाथों की छुअन महसूस हुई। दूसरे ही क्षण उनकी कोमल अंगुलियां मेरे काले, घने घुंघराले बालों से अठखेलियां करने लगी मैंने स्पर्श पहचान लिया, ‘‘ये तो मेरी मां है’’ खुश हो मैं मां से सटने के लिए हाथ पांव चलाने लगी। तब तक मुझे पता नहीं था कि बाहर आकर भी तुमने सर्वत्र अपना एकाधिकार जमा लिया है। मैंने देखा एक बूढ़ी औरत जो कि आंखों पर सुनहरी फ्रेम का चश्मा चढ़ाए हुये थी एक पोटली मां की ओर बढ़ाते हुए कहने लगी इसे दूध पिलाओ बहू ...... ओह! तो ये तुम हो।
जिसे मैं पोटली समझी थी दरअसल इसमे तुम थे और ये बूढ़ी औरत तुम्हारी व मेरी दादी मां ...... दादी मां तो मां का भी विस्तार होती है ऐसा कुछ-कुछ मुझे याद आ रहा था।
कड़क कलफदार साड़ी, ऊंचा, जूड़ा बांधे, नीचे झुकी हुई दादी के गले में मुझे लटकती हुई चमकती चीज ने आकर्षित किया और मैंने मुट्ठी में भीचं लिया।
‘‘हाय, देखो तो सही, अभी से मेरी चेन उतरवाने लगी है’’। कहती हुई वह मेरी बन्द मुट्ठी खोलने का प्रयास करने लगी। मैंने भी कसकर पूरी ताकत लगा रखी थी इसके बावजूद उन्होंने मेरी मुट्ठी खुलवा ली।
मैंने तुम्हारी और देखा, तुम मां की गोदी में गर्व से मुस्करा रहे थे। ‘मुझे भी गोदी में उठाओ’ मैं अपने हाथ पांव फैंकने लगी। मैंने बहुत हाथ-पैर चलाए पर मुझे किसी ने नहीं उठाया। अपनी इस हार से क्षुब्ध होकर मैं रोने लगी तभी दादी ने फटकारा,‘‘लड़की होकर गला फाड़ रही है।’’
भूख के मारे मेरी आँतड़ियां कुलबुला रही थी। तुम्हें मां का दूध पीते देख मेरी भूख और तेज हो उठी। मैं और तेजी से चिल्लाने लगी।
तुम इस सबसे बेफिक्र हो चपर-चपर दूध पीने में व्यस्त थे। तभी मुझे अहसास हुआ कि मैं दो सशक्त बाहों में हूँ। मैं कुछ देख पाती इससे पूर्व ही वह चेहरा नीचे मेरे मुँह पर झुक आया। अपने मुलायम गालों पर मुझे चुम्बन के साथ एक तीखी चुभन भी महसूस हुई और मैं ऊं..ऊं.. कर उठी। मुझे चूमकर चेहरा ऊपर उठा, ‘ये तो मेरे पिता है’ मैंने झट पहचान लिया। मेरे ऊं...ऊं... करने पर उन्होंने पानी की बोतल मेरे मुंह से लगा दी।
चुप हो गटगट पानी पीने लगी। मुझे पानी बेस्वाद लगा और मैं उसे मुंह से बाहर ठेलने लगी। मेरी नजरे पिता की नजरों से टकराई।
‘उसके लिए तो मां का दूध और मेरे लिए ये उबला बेस्वाद पानी’। पिता के कठोर चेहरे की नरम नरम पनीली आंखें मे जाने क्या मुझे लहराता नजर आया मानो वे कह रही हो, ’मैं इसके सिवा तुम्हें दे ही क्या सकता हूं, मेरी बच्ची।’ उन आंखों के सम्मोहन मे बंधी मैं चुपचाप पानी पीने लगी। अपनों के इस पक्षपात पूर्ण रवैये से बेखबर नींद मुझे घेरने लगी और मैं सो गई।
शोरगुल सुन मेरी नींद टूटी। देखा बहुत से मिलने वाले लोग आये हुए थे। हर आने वाला बधाई कह रहा और तुम एक गोदी से दूसरी गोदी में घूम रहे थे। मुझे समझ नही आ रहा था कि आखिर तुममे ऐसी क्या खासियत है। सिस्टर नर्स तो कह रही थी कि मैं बहुत सुन्दर हूँ ... गोरी चिट्ठी, बड़ी बड़ी आंखों वाली हूँ, बिल्कुल अपनी मां पर गई हूँ और तुम .... मुझसे बिल्कुल विपरित काले कलूटे, तभी तुमने किसी को गोदी को शू-शू कर गीला कर दिया। पर ये क्या...। फिर भी तुम्हें सब चिपकाए है।
तुम्हारी मुट्ठी में बहुत से नोट बन्द थे। ये सब तुम्हें मिलने वालो ने उपहार स्वरूप दिये थे, जिन्हें मुट्ठी में दबाये तुम मुस्करा रहे थे। मुझे लगा जैसे तुम मुझे चिढ़ा रहे हो। यह सब मैं चुपचाप पलंग के पायताने लगे झूले में से देख रही थी। जब मुझसे अपनी और उपेक्षा सहन नही हुई तो मैं सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए जोर-जोर से हाथ-पांव चूसने लगी। जब किसी ने ध्यान नही दिया तो मुझे फिर रोना आ गया।
तभी दो नन्हीं बाहें मेरी ओर बढ़ आयी मुझे पुचकारती हुई उठाने का असफल प्रयास करने लगी, ‘‘अरे-अरे उसे मत उठाओ, अभी तुम छोटी हो’’ मां ने उसे टोका।
‘‘छोटी टहा अबटो मैं दीदी बन गई हूँ।
‘‘हां तुम दीदी बन गई हो ......’’
तू अकेली ही क्या कम थी जो बहन को और ले आयी। दादी से दीदी को मिला ये उलहाना सुन मेरी मुट्ठियां भींच गई जिनकी गिरफ्त में मेरे कुछ केश आ गये और वे खींचने लगे, मैं दर्द से बिलबिला उठी।
बहुत रोने के कारण नामकरण हुआ रोनी लड़की और तुम्हारा राजा बेटा, अक्सर मैं गीले में सोयी रहती जबकि तुम्हारी लंगोट दादी आधी-आधी रात तक जागकर बदलती रहती। मां भी पहले तुम्हें दूध पिलाती, तुम्हारा पेट भरने के बाद बचा दूध मुझे मिलता। तुम्हें गोदी से उठाए दादी कहती कितना दुबला पतला है मेरा लाल जबकि भरपूर दूध पीकर तुम गोल मटोल लगने लगे थे,‘दादी झूठ भी बोलती है।’
दादी हर रोज मेरे लिए पिता से कहती, ‘‘अरे! इसके लिए अभी से धन जमा करना शुरू कर दो, बेटी है बढ़ते हुए देर नहीं लगेगी। कुछ नहीं तो बैंक में एफ. डी. ही करवा दो बेटा, आखिर शादी का दहेज जुटाना कोई मामूली बात नहीं है।’’
‘मेरे प्रति सबके मन में यह चिन्ता का कैसा बोझ’। मैं सहमकर सिसकियां भरने लगी। मां ने मुझे उठा लिया तभी गले से स्टेथोस्कोप लटकाए डॉक्टर आ पहुंची जिनसे मैं खूब परिचित थी। हर माह गर्भ में यहीं तो हमारा परीक्षण करती थी। मैंने तुम्हारी ओर नजर उठाकर कहा तुम इससे बेखबर छत ताक रहे थे।
‘‘बहुत रोती है यह’’ मां मेरी शिकायत डॉक्टर से करने लगी।
‘‘बच्ची कमजोर है, उसे तुम्हारा दूध अधिक पिलाया करो’’ और वो मुआयना करने में जुट गई।
‘‘सुन लिया माँ मैं यूं ही नही रोती’’
एक मीठी आवाज सुन मैं चौंकी। आप चाहे तो इसे मैं ले जाऊं, मैं झट पहचान गई ये तो मेरी नानी है’ जो मुझे गोदी में लेने के लिए नीचे झुकी हुई थी। बिल्कुल दादी की तरह बूढ़ी, जिस तरह दादी तुम्हें सीने से सटाती थी ठीक उसी तरह नानी ने मुझे अपने वक्ष से चिपका लिया। गर्व से में पुलकित हो उठी। मैंने तुम्हारी ओर देखा, तुम बेफिक्र हो अंगूठा चूसने में मगन थे ‘‘बुद्धू कहीं के’’, नानी आयी है और तुम पहचान भी नहीं पाये।
नानी मुझे साथ ले जाना चाहती थी इस बात पर मेरे पिता मौन थे। मैंने मां की ओर देखा उनकी आँखों मे हल्की सी चिन्ता की लकीरे उभरी हुई थी।
माँ तुम कैसे रखोगी इसे ये बहुत रोती है।’’
नानी के सामने मां का यह आरोप सुन मुझे बहुत दुख हुआ क्या मैं ऐसे ही रोती हूँ। गीले में पड़ी रही तब भी नहीं रोऊं ? क्या भूखी होऊं तब भी नहीं। यहां तक कि दादी उल्टी सीधी कहे तब भी नहीं।
नानी कह रही थी इसके लिए बकरी पाल लूंगी। उह! मुझे नहीं पीना बकरी का दूध। तुम्हारे लिए मां का दूध और मेरे लिए बकरी का दूध! पहली बार घृणा का भाव मेरे मन मैं जागृत हुआ।
आखिर यही तय हुआ कि कुछ दिनों के लिए नानी मुझे ले जायेगी ताकि मां तुम्हारी अच्छी तरह देखभाल कर सके। जाते समय पिता ने मुझे चिपका लिया। इतना कसकर की मेरा दम घुटने लगा और मैं रो पड़ी, वो मुझे पुचकारने लगे उनके कई चुम्बन मेरे मेरे गालों पर पड़ने लगे। मैंने भी कसकर उनकी कमीज पकड़ ली।
‘‘बेटी है बेटा इससे इतना स्नेह मत बढ़ाओ, कितना भी प्यार करोगे तो भी एक दिन छोड़कर चली जायेगी’’।
दादी की बात चुभ गई और मेरी मुट्ठी की बन्द कमीज छूट गई।
कुछ दिन बाद मां तुम्हें लेकर मुझे देखने के लिए नानी के यहां आयी। तुम आते ही मेरे बिस्तर पर लेट गये उस समय मैं सोई हुई थी। तुमने शू-शू करके मुझे भी गीला कर दिया। ‘तुम यहां भी आ धमके अपना एकाधिकार जमाने, आखिर क्यों?’
मुझे नींद से जगती देख मां ने मुझे उठाकर सीने से ले लगा लिया। मैं विद्रोह कर चिल्ला उठी, ‘मुझे नही आना तुम्हारी गोदी में। मैं तुम्हारा स्पर्श भूल चुकी हूं, इसमे मेरी कोई गलती नहीं, तुमने क्यों अपने से जुदा किया मां? क्या जिस जगह भैया पला-बढ़ा उस जगह मैं न पली थी? तुम्हारे ही खून से मेरा निर्माण हुआ था तो क्यों तुमने मेरे और भाई के बीच ये पक्षपात किया?’
मैंने आंखे उठा कर देखा-मां की आंखों में बन्द मोती लुढ़कने को बैचेन थे। जिन्हें उन्होंनें कठीनता से भींचे रखा था। ‘ये तुम्हारे चेहरे पर कैसी पीड़ा है मां? ये तुम्हारे आगोश में कैसी नर्म गर्मी है जिसकी आंच में मैं पिघलती जा रही हूँ ..... पिघलती जा रही हूँ। सारे शिकवे शिकायत भूलकर जमती जा रही हूँ ..... स्पंदनहीन हुई समाती जा रही हूँ मीठी नींद के आगोश में ........’

Monday, October 19, 2009

रोशनी

रोशनी
यह एक बेहद ठण्डी सुबह थी। रात भर बरसात की धीमी तेज बौछार चलती रही। रह रहकर हवा के तेज थपेड़े खिड़की के शीशों से टकरा टकराकर उन्हे झंकृत करते रहे। सर्दी में हुए इस मावठ और शीतलहर की ठण्डी हवा ने पूरे वातावरण में ठिठुरन भर दी। आकाश अभी साफतौर से खुला नहीं था।
सिस्टर बेसीला जब अतुल के घर पहुंची तो घड़ी सुबह की सात बजा रही थी किंतु अभी भी धुंधलाका पसरा हुआ था। चारों ओर छितराये मकान और खाली पड़े प्लाटों के बीच कच्ची और उबड़-खाबड़ सड़क को पार करती हुई वह अतुल के मकान तक पहुंची। सन्नाटे को चीरते हुए आगे बढ़ते हुए थ्रीव्हिलर के रूकते ही उसकी भड़भड़ाहट खामोश हो चुकी थी। बेसीला ने नेमप्लेट पढ़ी - 7 च गोकुल विहार।
हां यही घर है। उसने गर्दन हिलाई और भाड़ा चुकाया। कॉलबेल दबाने से पूर्व उसने भरपूर नजर से घर को निहारा। तो यह है अतुल का नवनिर्मित घर। कितना बुला रहा था उसे। एक बार आ जाओ। हमारा नया मकान देख जाओ। और वो उसे हमेशा ठण्डे आश्वासन ही देती रही। हालांकि उसका मकान देखने की इच्छा मन में थी।
एक्च्युल में वह बेसीला नहीं थी। मांझल थी। बेसीला तो चर्च के पादरी का दिया हुआ नाम था। मांझल अतुल की पूर्व पड़ौसिन थी। तुतलाने के कारण वह बचपन में उसे मांझल की जगह माचिस कहा करता था। बाद में भी सही बोलने के बावजूद उसने अपनी आदत नहीं सुधारी। इस नाम से उसे पुकारने में उसे अनोखा आनंद आता था। उनके बीच न खून का रिश्ता था न मित्रता का। पड़ौसी होने की, एक साथ खेलकर बड़े होने का एक आत्मीयता भरा प्रगाढ़ स्नेह था। जो कि समय बदल जाने के बाद भी, सबकुछ बदल जाने के बाद भी आज भी उसी तरह कायम था।
आज भी अतुल की स्मृति में वह घर अंकित है जो कभी मांझल का हुआ करता था। जहां वे रेत के घरोंदे बनाया करते थे। फूल पत्ती रोपकर बगीचा बनाकर उसे छोटे-छोटे शंख सीपियों से अपने नाम को लिख मांझल सजा दिया करती थी। अपने से सुंदर उसका घरौंदा देख अतुल चिड़चिड़ा उठता। तब किसी हुनुरबंद शिल्पी की तरह मांझल बड़ी गंभीरता से कहती ‘‘मेरा घर तुम ले लो मैं दूसरा बना लूंगी।’’
‘‘सच्ची में’’ अपनी विस्फारित कंचे सी आंखे घूमता हुआ अतुल अंतरिम स्वीÑति चाहता और वह सचमुच वह घरौंदा अतुल के लिये छोड़ दूसरा बनाने में जुट जाती। होनी किसे मालूम थी, वो एक काल का दिन था - सड़क हादसा हुआ और सबकुछ निगल गया। केवल मांझल बची। दस-ग्यारह साल की घायल बच्ची। फिर कुछ लोग आये थे जिन्होंने उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया था। इसके बाद वह एक अच्छे स्कूल में पढ़ने चली गई। बाद में मांझल वहां की टीचर बन गई। कभी मां के साथ मिलने चला जाया करता था अतुल। मां कुछ न कुछ ले जाया करती थी उसके लिये। एक बार उसके जन्मदिन पर अतुल की मम्मी ने उसके लिये चाकलेट भिजवाई थी। पता चला चाकलेट वह खुद खा गया और उसे एक भालू वाला छल्ला दे आया। जिसे देख वह बहुत हंसी थी। पुरानी स्मृति के उभरते ही बेसीला के होठों पर मुस्कान उभर आयी। कॉलबेल दबाने से पूर्व ही घर का द्वार खुल चुका था।
‘‘मकान ढ़ूंढने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई? अभी नई-नई बस्ती बसी है।’’ उसके हाथ से सामान लेते हुए अतुल की पत्नी वृन्दा ने पूछा।
‘‘नहीं’’ चारों ओर नजरें घुमाकर वो मुस्कुरा उठी।
मां किससे बात कर रही है, कौन आया है? एक एककर वृन्दा के तीनों बच्चे यह देखने चले आये।
बड़ा बबलू- सांवले मुखड़े पर पसरी नाक और उछलते हुए कटोरी कट बाल वाला। सफेद स्कूल यूनीफार्म पहने हुए, छोटा छोटू - कच्छा बनियान पहने सर्दी से कांपता हुआ, अभी आधा तैयार और तीसरी बिट्टू - दुर्बल देह पर शमीज और उस पर हाफ कट स्वेटर धारे हुए, बिल्ली के कान जैसे सिर के दोनों ओर पोनीटेल - रबड़बेंड से बंधे हुए।
‘‘हैलो पूसी केट’’ आकर्षित हो बेसीला ने उसे छूना चाहा। उसके बोलते ही बिट्टू मां के गाऊन के घेरे को अपने चारों ओर लपेटते हुए घूम गई। जिससे मां के गाऊन का घेरा कस गया। उसमें छिपी बिट्टू ऐसी नजर आ रहा थी जैसे कंगारू की झोली में बच्चा। वृन्दा उसे खींचते हुए झुंझला उठी -
‘‘छोड़ न! मुझे गिरायेगी। फिर मेहमान की ओर उन्मुख होकर बोली -
‘‘बैठो बेसीला चाय लाती हूं। बहुत सर्दी है बाहर। रात भर के सफर की थकान भी होगी।’’ कहते हुए वृन्दा ने बैठक के दीवान पर रजाई लाकर डाल दी।
-मम्मी मेरी बेल्ट कहां है.....
-तुम्हारे टिफिन में क्या रखूं? परांठा आचार या सैण्डविच....
-मेरी विज्ञान की किताब नहीं मिल रही.....तीनों स्कूल जाने की जल्दी में थे।
‘‘जरा बच्चों को स्कूल भेज दूं फिर हम तसल्ली से बैठेंगे।’’
हां हां कोई जल्दी नहीं। तुम निपटा लो। वैसे भी उदघाटन सत्र ग्यारह बजे शुरू होगा और वह सुस्ताने लगी। बेसीला ने कसकर रजाई अपने चारों ओर लपेट ली। सिस्टर बेसीला यहां तीन दिवसीय प्रशिक्षण शिविर में प्रशिक्षु बनकर आयी थी। वैसे तो बाल कल्याण विभाग वालों ने ठहरने की सारी व्यवस्था की थी किंतु वह अतुल के यहां ठहरने की अनुमति फादर से लेकर आयी थी।
-ओह! मम्मी देखो न यहां कितने मकौड़े जमा हो गये है।
-देखूं कहां......उफ! यह कचरा अभी तक यहीं पड़ा हुआ है।
-बबलू! बबलू · ·, तुमने रात को कचरा बाहर नहीं डाला।
-रात मुझे नींद आ रही थी मैंने छोटू से कहा था डालने को।‘‘बताया हुआ काम नहीं करता।’’कहते हुए शायद उसने छोटू के कान उमेठ दिये थे।
छोटू चीखकर रो पड़ा। दोनों के बीच तड़ातड़ शुरू हो गई। रसोई से बाहर निकल मां ने दोनों को अलग किया।
-क्या बात है सुबह-सुबह किस बात से मारपीट कर रहे हो?
-मम्मी देखो यह बड़े भाई पर हाथ उठाता है। बबलू तत्परता से बोला।
-नहीं पहले दादा ने मेरा कान खींचा था......ये मेरा बताया काम नहीं करता.....मैंने इसको कचरा डालने के लिये कहा था......मम्मी मक्काड़े.......मकौड़े.......... ही मक्काड़े...... मकौड़े........ बाथरूम में मैं नहाने कैसे जाऊं.......रोज-रोज कचरा डालने का मेरा ही ठेका है क्या......मैं नहीं डालूंगा आप छोटू और बिट्टू को क्यूं नहीं कहती......
-चुप ··, वृन्दा चीखी। उसके सब्र का बांध टूट चुका था। इस चीख चिल्लाहट में अतुल भी जाग गया था।
- ये क्या हल्ला गुल्ला हो रहा है बबलू.....छोटू। पिता के जागते ही घर में शान्ति सी छा गई। बच्चे बेआवाज मशीन की तरह बिना खटपट किये निपटने लगे।
बाहर ओटो रूकने का स्वर उभरा। ‘‘बबलू तुम्हारा ओटो आ गया है।’’
दरवाजा खुलने की आवाज से रजाई छोड़ बेसीला उठ खड़ी हुई। स्कूल जाते बच्चों से बाय कर लूं। बाहर अभी पूरा उजाला नहीं हुआ था। बरसात की नमी ने मौसम को और सर्द बना दिया था। बादल अभी भी छाये हुए थे।
-बबलू कचरे की थैली लेते जाना।
-नहीं मैं नहीं ले जाउंगा। बैग पीठ पर लटकाए बबलू बाहर रपट लिया।
-प्लीज बेटा ......
-नहीं, मेरे दोस्त हंसते हैं। लगभग दौड़ते हुए उसने जवाब दिया।
-अरे इसमें हंसने की क्या बात हुई। बाहर सड़क पर ही तो फैंकनी है। रात भर कचरा पड़ा रहने से देखो कितनी गंदगी हो गई है। मां कहती ही रह गई। बबलू ऑटो में बैठ चुका था।
-अच्छा छोटू तुम लेते जाओ।
-नहीं मां मुझे शर्म लगती है।
-इसमें शर्म कैसी घर का काम है। मेरा राजा बेटा। मां ने उसे पुचकारा किंतु दादा की तरह वह भी बैग, बोतल व टिफिन उठाये टैम्पो में लद चुका था।
अस्त व्यस्त मौन घर तूफान गुजर जाने जैसा लग रहा था। अतुल भी निवृत हो अखबार लिये आ बैठा।
‘‘कैसी हो? घर ढ़ूंढ़ने में कोई परेशानी तो नहीं हुई। फोन कर देती, मैं लेने आ जाता........ वृन्दा चाय में कितनी देर है?’’
‘‘लाती ही होगी। बच्चे अभी ही स्कूल गये है। क्या तुम्हारे यहां हर रोज ‘सुबह’ ऐसी ही तूफानी होती है।’’ बेसीला ने मुस्कुराते हुए पूछा।
‘‘हां, ऐसी ही तीन सुबह और तुम्हें यहां गुजारनी है।’’ जवाब देते हुए अतुल भी मुस्कुरा उठा।
‘‘किसी को पागल करने के लिये बहुत है।’’ बेसीला ने कहां और खिलखिला पड़ी।
‘‘शाम को तुम मोबाइल कर देना मैं लेने आ जाऊंगा। कब तक फ्री हो जाओगी?’’
वृन्दा चाय ले आयी। वे पीने लगे।
‘‘यह तो वहां जाकर ही पता चलेगा कितना वर्क लोड है।’’
‘‘केवल खानापूर्ति होते है ऐसे प्रोग्राम होना जाना कुछ नहीं। सबकुछ जस का तस रहता है।’’
‘‘ऐसा तो नहीं है.......’’
‘‘नब्बे प्रतिशत ऐसा ही होता है’’ अतुल अपनी बात पर बल देते हुए आगे समीक्षा करने लगा - हां, पर करने पड़ते है ऐसे प्रोग्राम। ऊपर से प्रेशर रहता है। बजट पूरा करो...... काफी फंड रहता होगा.......?’’
‘‘हां, बाल कल्याण के नाम से काफी फंड आता है......विदेशों से भी।’’
‘‘कितने भी प्रोग्राम कर लो कोई फायदा नहीं। पर यहां प्रोग्राम होने से एक फायदा यह हो गया कि तुम्हारा यहां आना हो गया।’’ और वह हंस पड़ा। उसकी इस बात पर बेसीला भी मुस्कुरा उठी थी।
तभी डोर बेल बज उठी। डिंग · डांग · डिंग · डांग ·।
‘‘आ गई......’’ चिहकती हुई वृन्दा ने दरवाजा खोला।
-दीदी कचरा है क्या.....?
-तीन दिन से आई क्यूं नहीं कितना जमा हो गया है........
जमा तो उस पर भी हो गई थी मैल की कई गर्ते। गंदेले कपड़े, मुंह और हाथ पांव पर जमी मैल ने उसकी रंगत ही मटियाली कर दी थी। बिखरे उलझे शुष्क बाल तिस पर पीठ पर लटकता हुआ कचरे का झोला। घिन आने के लिये बहुत था। पर अब तक कुछ खिन्न उदिग्न सी बैठी वृन्दा के चेहरे पर उसे देख खुशी फूट आई।
तीन पोलीथीन बड़ी बड़ी कचरे से ठूंसी थैलिया उठा लाई वह और उसे पकड़ाते हुए अतुल से बोली - जरा दो रूपये देना और अतुल ने जेब से सिक्का निकाल वृन्दा की ओर उछाल दिया।
-कुछ और.....आशा से भरी हुई थी उसकी नजरें।
-हां देती हूं......थोड़ा ठहर अभी लाती हूं। वृन्दा भीतर से जब वापस बाहर आयी तो उसके हाथों में डिब्बा व कटोरा था।
-ले.......थैली निकाल......
उसने झोले में से मुड़ी तुड़ी थैली निकाल खोली व उसमें बासी भात, तरोई परमल और रायता मिली हुई सब्जी साथ में डेढ चपाती भी उसमें उलटती गई। कल बहुत बचा था तो नहीं आई सब कुत्तों को डालना पड़ा।
‘कुत्तों को’ कहते हुए रोष उभर आया था उसके स्वर में। ‘रोज आने की’ अधिकार भरी हिदायत उसे दे, दरवाजा बंद कर वह कुर्सी पर आ बैठी और ठण्डी हुई चाय का लम्बा घूंट भर खत्म कर दी- ठण्डी हो गई।
‘‘चाय तो पी लेती कम से कम। ऐसी भी क्या जल्दी थी। वो कहीं भागी तो नहीं जा रही थी?’’
‘‘तुम क्या जानो आज पूरे तीन दिन से आयी है मरी। पूरा घर सडांध मार रहा था। खाली कप ले वह वह उठ खड़ी हुई। वर्षा की बूंदाबांदी फिर शुरू हो गई। जो दिनभर चलती रही। खाली पड़े प्लोटों में यहां वहां पानी भर गया। खुला इलाका होने से हवा तीर सी सनसनाती लग रही थी। रात भर रिमझिम चलती रही। यह इतवार का दिन था। बच्चे सोये हुए थे। वृन्दा ने राहत की सांस ली। ‘‘अच्छा हुआ आज छुट्टी है वर्ना बच्चे बेचारे ठण्डे मर जाते।’’ बबलू की टांग बाहर निकली हुई थी और छोटू की पीठ। बिट्टू तो पूरी उघड़ी हुई। मां ने तीनों को रजाई से अच्छे से ओढ़ा दिया। ममता उसके चेहरे पर फूट पड़ी।
‘‘आज सर्दी बहुत बढ़ गई है’’ सुबह उठते पहला वाक्य वृन्दा के मुंह से यही निकला था।
तभी डोर बेल बज उठी। ‘वह आ गई दीखती है’ वृन्दा उठ खड़ी हुई और उसने दरवाजा खोला। दरवाजा क्या खुला ठण्डी बयार भीतर घुस आयी।
दीदी कचरा है क्या......? वहीं रोज का रटा रटाया वाक्य।
‘‘हां लाती हूं’’ कहकर वृन्दा पलटी। वापस लौटी तो उसके हाथ में कचरा भरी थैली थी। झटपट थैली और सिक्का दे दरवाजा बंद करने के लिये उसके ठिठुरे कदम पलटने वाले ही थे कि-
-दीदी कुछ पहनने को......
उसके कातर स्वर ने उसे रोक दिया। ‘‘देखती हूं।’’
कुछ देर बाद वह स्वेटर ले आयी थी नीले रंग का।
‘‘मम्मी यह मेरा स्वेटर है इसे नहीं दोगी।’’ रजाई से मुंह बाहर निकाल बबलू चीखकर उठ खड़ा हुआ। और एक ही झटके में मां के हाथ से स्वेटर खींच लिया। फिर कुछ देर बाद -
-तुम भी अजीब हो। देने को मेरा ही स्वेटर मिला। प्योर वूल का है। अन्दर पहन लूंगा।
वह ठिठुरती हुई दरवाजे के सहारे आस लगाये खड़ी थी। हमेशा की तरह झोला उसकी पीठ पर लदा हुआ था और चेहरे पर वही मैल की जाजम बिछी हुई थी। जिस पर आज करूणा नाच रही थी सिड़कती सांस की ताल पर। ठिठुरन और नाक से उठती हुई सड़-सूं की जुगलबंदी सुबह की नीरवता को चीर रहे थे। वृन्दा ने अपना पुराना शॉल देकर दरवाजा बंद कर दिया।
बेसीला को उठता देख वह चाय ले आयी। अतुल भी आ गया। तीनों चाय पीने लगे।
‘‘ये जो तुम दया दिखाती हो न ठीक नहीं। अकेला घर है न अड़ौस न पड़ौस, यही लोग ताक लगाये बैठे रहते हैं। फिर मौका देखकर घर साफ कर जाते हैं। और बातों ही बातों मैं पिछले दिनों में शहर में हुई कई चोरियों के किस्से बयान कर दिये अतुल ने, चाय के साथ। वृन्दा का मुंह कसैला हो चुका था अब तक। हर रोज की तरह वह बिना कुछ बोले कप समेट उठ खड़ी हुई।
‘‘वापस रात को ही आओगी?’’ बेसीला से पूछा था उसने।
‘‘हां’’ बदले में संक्षिप्त सा उत्तर मिला था उसे।
आज बेसीला चली जायेगी......यह आखिरी सुबह थी अतुल के घर की। बेसीला आज जल्दी उठ गई थी। उसे जल्दी जाना था। प्रशिक्षण का आखिरी दिन और समापन सत्र के साथ और भी बहुत से काम निपटाने थे उसे। फिर शाम 8 बजे की गाड़ी थी। निवृत हो उसने अपना सामान बांध लिया और अतुल ने अपनी गाड़ी निकाल ली थी, उसे छोड़ने के लिये।
‘‘वह आज नहीं आयी ?’’ जूड़े पर आखिरी पिन लगाते हुए बेसीला ने वृन्दा से पूछा।
- कौन ?
- वहीं कचरे वाली।
वृन्दा कुछ नहीं बोली, लापरवाही से उसने कंधे उचका दिये। मानो कह रही हो कचरे से भी कम महत्वपूर्ण छोटीमोटी बात का उसे क्या ख्याल? बेसीला चली गई अतुल के साथ और वृन्दा व्यस्त हो गई अपनी गृहस्थी में।
शाम आठ बजे वे लोग प्लेटफार्म पर थे। बेसीला को विदाई देने आये थे। समय अभी शेष था गाड़ी चलने में। बेसीला के बगल में बैठे सात-आठ बच्चों को देख वह चौंक उठे।
-ये लड़कियां और लड़के....... ये तो वही बच्चें है जो कचरा बीनते हैं। बिल्कुल साफ सुथरे और व्यवस्थित और उसकी ओर तो उसकी नजरें टिकी रह गई। वह पहचान गया - तुम.....यहां? वृन्दा ने उस मटमैली लड़की की ओर इंगित किया था परन्तु बदले में जवाब बेसीला ने दिया -
‘‘इन्हें मैं ले जा रही हूं। कुछ देर की दया दिखाने नहीं’’, फिर एक-एक शब्द चबाते हुए बोली बेसीला - ‘‘पूरा जीवन संवारने.......इंसान बनाने’’।
दोनो चौंक पड़े। ‘‘धर्म परिवर्तन कर मिशन का काम कराने......’’तीखेपन से अतुल ने कहा।
‘‘धर्म? धर्म किसे कहते है? ये अबोध जिन्हें दो जून की रोटी नसीब नहीं। जिन्हें कंपकंपाती ठण्ड में कपड़े भी मयस्सर नहीं। जिनके सिर पर है नंगा आकाश और पैरों तले उबड़-खाबड़ जमीन। स्वास्थ्य शिक्षा जैसी बुनयादी जरूरतों से भी वंचित हैं जो। वे क्या जानेगें धर्म को। इनका धर्म पेट की आग से जुड़ा है।
‘‘उसी का फायदा उठाकर तुम लोग इनका धर्म परिवर्तन.....’’
बात बीच में ही लपकते हुए बेसीला ने प्रत्युक्तर दिया। ‘‘इल्जाम लगाने से पूर्व अच्छी तरह सोच लो अतुल। जहां तक धर्म की बात है मेरी दृष्टि में मानव धर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं। आज तुम्हें अपने बच्चों की कितनी फिक्र है परन्तु कभी इन बच्चों के बारे में सोचा कभी?’’
‘‘मैं.......?....... भला क्यों.......? बेसीला के सीधे सवाल से अचकचा उठा अतुल।
‘‘सोचने लगा’’ वाक्य पूरा किया बेसीला ने। कोई भी नहीं सोचता दूसरों के लिये। अपनों के लिये सभी सोचते है पर मुझ जैसे अनाथों, विपत्ती के मारो का क्या होगा? किसी को तो आगे आना ही होगा। जैसे उस समय फादर ने मेरी उचित देखभाल न की होती तो मेरा क्या होता? मैं किसी धर्म को नहीं मानती।
‘‘नहीं मानती तो.......ये क्या?’’
‘‘फादर का प्रेम से दिया नाम मैंने अपनाया जरूर है पर सन्यास मैंने अपनी मर्जी से लिया है।’’ बेहद संयत स्वर में बेसीला बोली।
उस दिन वह अपनी शादी का कार्ड देने गया था तब उसने सहज ही पूछा था -
‘‘तुम कब शादी कर रही हो माचिस?’’
‘‘नहीं मैं सन्यास ले रही हूं.’’
‘‘भला क्यों?.....यह भी कोई उम्र है सन्यास लेने की?’’ वास्तव में कुछ दिनों बाद उसने सन्यास ले लिया था। वह मांझल से सिस्टर बेसीला बन गई थी। एक सच्ची संत, मानवता की महान पुजारी उसके आंखों के सामने थी। गदगद हुए अतुल वृन्दा की आंखे भर आयी।
‘‘मुझे नहीं मालूम था नाम अपना असर छोड़ता है। जो जीवन में कहीं न कहीं अपनी छाप छोड़ता है। प्रत्येक सार्मथ्यवान व्यक्ति अगर एक अबोध बेसहारा का सहारा बन जाय तो इस देश का भविष्य ही कुछ ओर होगा।’’ अतुल बुदबुदा उठा।
‘‘मुझ जैसे बहुत है इस दुनिया में जिनका मैं सहारा बन सकती हूं। जिनके उपयोग में मेरा जीवन आ जाये तो मेरे एकमात्र परिवार में जिन्दा बचे रहने की सार्थकता होगी। मेरे भीतर जब तक अपने साथ गुजरी त्रासदी की आग दफन है मैं दूसरों के जीवनदीप जलाती रहूंगी।’’ इतना कहकर वह हंस दी।
‘‘बिल्कुल माचिस की तरह, खुद जलकर दूसरों को रोशन करती रहोगी।’’ उसकी ये निश्छल हंसी ही तो बहुत अच्छी लगती थी अतुल को।
गाड़ी धीरे धीरे पटरियों पे सिरकने लगी। वृन्दा अतुल ने अपनी नम आंखे पौंछी और कूपे से नीचे उतर आये। बच्चे, वृन्दा व अतुल आगे बढ़ती गाड़ी को हाथ हिलाहिला अलविदा कहते रहे जब तक खिड़की से झांकती उस संत की दिव्यता रफ्तार के साथ बिन्दु में बदल विलीन न हो गई।

Friday, October 9, 2009

रिंगटोन



बेटी का फोन था
‘मुझे बचा लो मां’ का रिंगटोन था
कल फिर उन्होंने
मुझे मारा और दुत्कारा
तुम औरत हो
तुम्हारी औकात है -
पैर की जूती
जूती ही बनी रहो
खबरदार!
जो सिर उठाने की कोशिश की
तो कुचल दूंगा
देखा नहीं क्या
तुमने कल का अखबार
कल का नहीं तो
परसों का ही देख लो
रोज छपती है
तुम जैसी कितनी ही
बेमौत मरती है
मेरा क्या कर लोगी?
यहां तो पुलिस भी बिकती है
जिसकी लाठी
भैंस उसी की ही होती है
जिसे समझती हो तुम
अपना खूबसूरत चेहरा
उसी को वो तेजाबी जलन दूंगा
कि फिर तुम ना कहने से पहले
सोचोगी दस बार,
सैकड़ों बार, हजारों बार
बेटी का फोन था
मुझे बचा लो मां का रिंगटोन था

Friday, October 2, 2009

बूढ़ा जाते है मां बाप


टूटता है जब मनोबल

तो घर देता है सम्बल
घर में -

मां है , बाबूजी है
जिनकी छाह तले
और भी किले है ।

नेह के धागों में
मन के मनके पिरोकर
छककर करता है अमृतपान
फिर बढ़ता है -दरखत मनोबल का
धीरे-धीरे
उन पर चढ़ने लगती है
स्वार्थों की फंफूद
बरगदसी बाहें फैलाये
आकाशीय जड़े महत्वकांक्षाओं की
तोड़ लेती है
सारे सरोकार, और
क्षणांश में
बूढ़ा जाते है मां बाप

Tuesday, September 22, 2009

आरोह - अवरोह
मेरी आंखों से झर झर आंसू झर रहे थे। मुझसे उनकी ये हालत देखी नहीं जा रही थी। उन्हें सांस लेने में काफी तकलीफ हो रही थी। फिर उपर से ये खांसी का दौरा, खांसते-खांसते तो मानो प्राण ही निकल जायेंगे। वह बेदम सी हुई जा रही थी। ‘हे भगवान! इन्हें जल्दी ठीक कर दे’ मन ही मन मैं बार-बार यही गुहार लगाती हुई उनकी पसलियों पर विक्स की मालिश कर रही थी। मालिश के बाद मैंने उन्हें खांसी की दवा दी। आराम होने में कुछ समय लगा। उन्हें आराम मिला तो नींद भी आ गई।
मैंने झुककर देखा, क्या वह सो चुकी है? ‘हां ’शायद’ मैं उठने के लिए हिली तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया- ‘कहां जा रही हो?’ उनकी आंखों में ये प्रश्न चमक रहा था और साथ ही चेहरे पर खुदा हुआ आदेश भी- ‘यहीं रहो, मुझे छोड़कर मत जाओ’ और मैं उनके पास बैठकर फिर से उनकी छाती को सहलाने लगी।
सोयी हुई भी वह ममता की मूर्ति नजर आ रही थी। खुद तकलीफ देख लेती पर मुझे किसी प्रकार की तकलीफ हो यह उन्हे गंवारा न था। आगे बढ़कर गृहस्थी की चक्की में जुत जाती। भोर सवेरे से ही उठकर वह कई काम सलटा देती। मैं उठती तो सामने उनकी बनाई हुई गरमा-गरम चाय होती। मुझे चाय पिलाते समय एक सन्तुष्टि का भाव उनके चेहरे पर तैरता मिलता। मुझे भूख कब लगती है इसकी घड़ी भी उनके पास ही होती। सुबह नौ बजते ही दूध के लिए उनकी पुकार सुनाई पड़ जाती। एक बार की आवाज पर जब सुनवायी नहीं होती तो वह दूसरी बार बुलाती और तीसरी बार में तो वह खुद देने पहुंच जाती। तब बड़ा दुख होता, ‘‘आप क्यूं आयी, जीना चढ़कर ऊपर ? आपकी तबीयत ज्यादा खराब हो जायेगी तब ?
वह हंसकर कहती, ‘‘अब मर भी जाऊं तो कोई दुख नहीं, तुम आ गई हो न अब घर संभालने। अब मैं चैन से मर सकती हूं।’’
‘‘आप हमेशा मरने की बात क्यूं करती है ?’’ कहते हुए मेरी हथेली उनके मुंह को ढ़क देती। ‘‘कभी सोचा आपने, आपके जाने के बाद मेरा क्या होगा ? मैं तो आपके बिना एक पल जीने की सोच भी नहीं सकती।’’
‘‘पगली हो तुम!’’
‘‘नहीं मैं सच कह रही हूं। आपकी छाया सदैव मुझ पर बनी रहे।’’ मैं उनसे लिपट जाती और वो भावविभोर हो मेरी पीठ सहलाने लगती।
‘‘आप जल्दी अच्छी हो जाओगी।’’ और वाकई में ऐसा हुआ भी। मेरी शादी के बाद वह बहुत खुश रहने लगी थी और स्वस्थ भी। किन्तु जब कभी फिर पुरानी बिमारी उभर आती तो उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ता।
अब तो वह अस्पताल भी मेरे बिना नहीं जाती, कहती थी- ‘‘तुम आओगी मेरे साथ। तुम डॉक्टर को ठीक से बता पाओगी और उसकी कही बात को भी तुम्हें ही समझना है।’’ उनकी बात ठीक भी थी। 24 घंटे उनके साथ रहते हुए उनकी बिमारी को मैं काफी अच्छी तरह समझने लगी थी। उन्हें हर वो हिदायत देती व उस बात से दूर रखने का हर संभव प्रयत्न करती जो उनकी बिमारी का कारक बनता। दवाई के मामले में तो मैं बेहद गंभीर थी। एक खुराक भी भूले से नहीं चूकती ताकि पुरानी बिमारी दबी रहे, उभरने न पाये।
खुशहाल समय पंख लगाकर गुजरता जा रहा था। अब तो उनकी गोद में पोते-पोती खेलने लगे थे। वे बड़ी प्रसन्न थी। उन्हें तो उम्मीद नहीं थी कि वह इतना सबकुछ अपनी आंखों से देखेंगी। ‘ये सुख भी नसीब ने लिखा है’, अपनी आस से भी अधिक पाकर धीरे-धीरे वह अपनी बिमारी को भूलने लगी।
बच्चे उन्हीं के पास सोते उनकी अगल-बगल में लिपटे हुए। उनमें आपस की लड़ाई होती, ‘दादी के पास कौन सोयगा?’ दादी को तंग करते हमारी तरफ मुंह करके सोओ। वह जिधर मुंह करती पीठ की तरफ वाला बच्चा नाराज हो जाता और रोने लगता। मजबूरन उन्हें सीधा लेटना पड़ता। बच्चों का कब्जा ऐसा दादी पर की उन्हें नींद आने पर ही वह करवट ले पाती। कभी-कभी तो वह झिड़कते हुए सबको दूर करते हुए कहती, ‘‘मेरे मुंह के पास न आओ, कहीं मेरी बिमारी तुम्हें ना लग जाये।
बच्चे छोटे थे तो वह गोदी में उठाये उन्हें अपने साथ मंदिर ले जाती। घर से निकले बच्चे और उधमी हो जाते। इधर उधर दौड़ा-दाड़ी करते। कुछ नहीं तो शू-शू ही कर देते। ऐसे में बेचारी की बन आती और दूसरों को उन्हें नसीहत देने का अवसर मिल जाता। इस सबसे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। उनका वात्सल्य तो मानो गहरा समुद्र वह बच्चों को खुद से ऐसे चिपका लेती जैसे कोई उनसे उनके बच्चे पृथक कर रहा हो। बच्चे बड़े हुए तो उनके प्रेम का स्वरूप बदल गया। उनकी पसंद से टिफन बनाना, स्कूल तक टिफन पहुंचाना, उनके टीचर से निजी तौर पर मिलना, अनेक हिदायतो का देना इन सबके बीच नई पौध यौवन की दहलीज के पार पहुंच गयी।
वह समय भी आया जब उनकी पोती की सगाई हुई। पोती के दामाद को देखकर वह निहाल हो गई। नसीब में इतना सुख भी छिपा है अपनी दुर्दांत बिमारी के चलते ऐसा उन्होंने सोचा भी न था। खुश हुई वह अपने नये दामाद के आगे पीछे डोलने लगी। उनके पांवों में यौवन सी शक्ति आ गई। स्फूर्त हुई वह पेट के रास्ते दामाद पर अपना नेह लुटाने लगी। उनकी पाककला अपने चरम पर पहुंच गई।
पोती की शादी में मन का सारा उल्लास फूट पड़ा। सामथ्र्य से अधिक श्रम करके उन्होंने हर अवसर को संवारा। उनके पारंगत तरीके और अनुभव चरम पर जा पहुंचे। नतीजन जर्जर देह पर पुरानी बिमारी भारी पड़ने लगी। वह फिर बिस्तर के अधीन होकर रह गई।
उनकी तामीरदारी करने वालों की संख्या अब बढ़ गई थी। अच्छे से अच्छे डॉक्टर, अच्छी से अच्छी दवाई और भरपूर इलाज से कुछ दिन का सुधार तो हुआ पर अब उनका काम करना मुश्किल हो गया। शरीर की शक्ति चुक गई। बैठे रहना उन्हे रास नहीं आता। यह स्थिति उन्हें खिजाने लगी। ऊपर से रोटी के कौर उनके गले में फंसने लगे।
दिनों दिन हालत बदतर होती जा रही थी। एक रोटी खा पाना भी मुश्किल होता जा रहा था उनके लिए। रोटी सब्जी में चूरकर खाना, दलिया-खिचड़ी खाना उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं रहा। पेट की श्रुधा का हल रोटी ही था जिसे वह खा नही पा रही थी। वह रोटी से नाराज होने लगी, क्रोधित होने लगी। कभी थाली को तो कभी रोटी को पटकने लगी- ‘‘यह रोटी मुझे दुश्मन की तरह लग रही है। ले जाओ इसे सामने से। ये सामने आती है तो मुझे चिढ़ आती है।’’ मन दुखी होता, हम सब बेबस और लाचार से उन्हें समझाने का प्रयास करते तो वह फूट-फूटकर रो पड़ती।
‘‘तुम क्या सोचते हो? मुझे खाने की इच्छा नहीं होती? पर मेरा कंठ देखो, सिकुड़ गया लगता है। पानी के साथ जबरन उतारते हुए बहुत तकलीफ होती है।’’
‘‘आप कुछ दलिया या....’’ बात अधूरी ही रह जाती। उस बूढ़े और बिमारी जिस्म में न जाने कहां से इतना तैश समा जाता कि वह इन सबका नाम लेने ही नहीं देती। फिर खुद ही फूट पड़ती- ‘‘मैं कहती हूं कि जिसकी रोटी छूटी उसका घर छूटा।’’
‘‘आप बेकार की बात न करा करें।’’ मेरी आंखे भीग उठती। अभी पिछली दफा ही डॉक्टर ने कहा था- ‘‘यह कुछ दिनों की मेहमान है। दोनों फैफड़े खत्म हो चुके है। लीवर और ह्रदय संक्रमित हो चुका है। आंतो में सूजन है अब इलाज लगना मुश्किल है। इनकी सेवा करो।’’
डॉक्टर की बात सुनकर मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ। ऐसा कैसे हो सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। बरसो से इन्हें बिमार देख रही हूं। कुछ दिन बाद यह फिर ठीक हो जायेंगी। अभी इनको और जीना है हम सबके लिए। इनके बिना जीने की बात मेरी बर्दाश्त के बाहर थी। उनका इलाज चालू रहा। डॉक्टर बदल गये। दवाईयां बदल गई तो परिणाम भी सुखद निकला। एक बार फिर उनकी जीवन गाड़ी ढ़र्रे पर आ गई।
कुछ समय तो ठीक से गुजरा किन्तु थोड़े समय बाद वह फिर बिस्तर की होकर रह गई। फिर से उनका खाना-पीना मुहाल हो गया। एक एक अंग उनका साथ छोड़ने लगा था। वह धीरे-धीरे मौत की ओर बढ़ रही थी। मैंने अपने आपको इतना असहाय कभी नहीं पाया। उन्हें एक पल भी छोड़ना और उनके लिये मौत की बात भी सोचना मेरे लिए असá था।किन्तु वह थी कि हिदायते देने लगी। मुझे समझाने लगी- ‘‘देखो, तुम गंगाजल व तुलसी मेरे मुंह में रखना, साथ में गंगामाटी भी। मुझे मोक्ष मिले। मेरी काया को गति मिले। मेरे मरने के बाद तुम्हें क्या-क्या करना होगा, तुम ध्यान से सुन लो। फिर तुम्हें कौन बतायेगा?’’
और मैं?..... हंसकर टाल जाती उनकी इन बातों को। ‘‘आप अच्छा-अच्छा सोचो। आप नहीं मरेंगी। आपको जीना होगा हमारे लिए। आप जल्दी ठीक होने की सोचो।’’ मैं उनका विश्वास बढ़ाने की सोचती और खुद भी विश्वस्त होने की कोशिश करती।
तीन दिन हो गये, अन्न का एक दाना भी उनके मुंह में नहीं गया। किसी तरह का जूस देकर उनकी खांसी को बढ़ाना था। सूप या मूंग की दाल का पानी उन्हें पसन्द नही। उनका पसंदीदा पेय चाय के बस घूंट दो घूंट, यहीं उनके हलक से उतर रहे थे।
आज गणगौर का त्यौहार था। उन्होंने हमें पूजा करने जाने का आंखों से ही आदेश दिया। वो अब इतनी नि:शक्त हो चुकी थी कि शब्दों को मुंह से ठेल भी नहीं पा रही थी। कुछ अस्फुट स्वर ही उनके मुंह से निकल रहे थे।
मैंने पूजा के लिए विशेषतौर से गोटा लगी चुनर पहनी। ‘मुझे इसमें सजी देखकर वह बहुत खुश होगी।’ ऐसा मेरा अनुभवभरा जीवन रहा है। पूजा करने जाने से पहले मैं उन्हें दिखाने गई, ‘‘देखो मां! तुम्हारी बहू कैसी लग रही है?’’ उनकी आंखे भावना शून्य थी। प्रेम रस से सरोबर आंखे आज सूनी सूनी थी। मुझे आश्चर्य हुआ मोह का सेतु कैसे टूट सकता है? ‘मोह रखने वाली ये आंखे आज इतनी निर्मोही कैसे हो गई?’
बाहर सड़क पर बहुत शोरगुल था। ढ़ोल नगारे बज रहे थे। गणगौर की सवारी अपने पूरे यौवन पर थी। इधर वह बेदम हुई जा रही थी। पास बैठी हुई मैं मन ही मन कामना कर रही थी कि ये एक बार, बस एक बार ठीक हो जाये। तभी उन्होंने इशारा किया। हाथ से गोलाई खींचते हुए हाथ मुंह की ओर ले गई। मैं तत्काल समझ गई। वह रोटी मांग रही है। मैं उठी और एक गरम, घी से चुपड़ी नरम रोटी ले आयी। ताकि वे खा सके। मैंने कौर तोड़कर उनके मुंह में डाला। उन्होंने कौर को मुंह में घुमाया, चबाया पर वो निगल नहीं सकी। कौर गले में ही अटक गया। वो उलझ गई। खांसी का दौर उठा तो रोटी का कौर बाहर था। वह खांसते-खांसते बेदम होकर लुढ़क गई।
अनायास ही मेरे हाथ उपर की ओर उठ गये, ‘‘ हे भगवान! अब इन्हें मुक्ति दे। इनकी ये हालत मुझसे नहीं देखी जा रही।’’ उसी क्षण कहीं भीतर कुछ चटका। मेरी अरदास थी या मोह के सेतु का टूटना। पंछी पिंजरा छोड़कर उड़ गया। मेरे हाथों से उनकी नब्ज खिसकती चली गई और आंखें फटी की फटी रह गई। जिन्हें बंद करते हुए मैं अपराधबोध से बोझिल हुई जा रही थी-
‘ये मुझे क्या हो गया था? मैं क्यों बदल गई? हमेशा ईश्वर से मैंने इनके लिए जीवन मांगा आज मौत कैसे मांग ली। ये क्या हो गया था मुझे? मैं ऐसे कैसे बदल गई? क्या मैं बड़ी हो गई?

Saturday, September 19, 2009

दिव्यलोक


दिव्यलोक
मेरे पति को ब्रेन ट्यूमर हो गया था। खबर सुन मैं सकते में आ गई। मेरा तो रो रोकर बुरा हाल हो गया। खाना पीना छूटने के साथ हर वक्त की दुश्चिंताओं ने मुझे चिड़चिड़ा बना दिया। ब्रेन ट्यूमर अर्थात सिर के भीतर गांठ। रिपोर्ट देख डॉक्टर बोले- ‘‘इसका तुरंत इलाज कराना होगा। वर्ना यह जानलेवा हो सकता है।’’ गांठ की भी जांच होगी और यदि गांठ कैंसर की हुई तो.....सोचकर ही मेरा रोंया-रोंया कांप उठा।
अभी समय ही कितना हुआ है हमारे विवाह को - मात्र तीन साल। सोनल, एक साल की बेटी है हमारी। आलोक का था अपना स्टूडियो। खूब मेहनत करते, दिन-रात काम में जुटे रहते। शादी के सीजन में तो फोटोग्राफी के लिये रात-रात जागकर काम करते। दूर दराज के इलाकों में भी जाते। उत्सवों में तो उन्हें भोजन के लिये भी वक्त नहीं मिलता। हर महत्वपूर्ण क्षण को फोटो में कैद करने से नहीं चूकते। तस्वीरे भी इतनी शानदार और जानदार बनती कि लोग इनके खींचे फोटुओं की प्रशंसा करते नहीं अघाते। एडवांस बुकिंग कराते। कुल मिलाकर आलोक का बहुत अच्छा काम और नाम था। लिहाजा आमदनी भी अच्छी होती थी। हम बहुत खुश थे। जीवन अच्छा बीत रहा था पर अचानक यह बीमारी हम पर बिजली बनकर गिरी।
हमारी सुखी जिन्दगी क्या सबकुछ तो बिखर गया। बीमारी बढ़ जाने की हालत यह हुई कि एक दिन स्टूडियो पर ताला लग गया। रोज-रोज अस्पतालों के चक्कर, मंहगी जांच-दवाइयां। इलाज पर पैसा पानी की तरह खर्च होने लगा और पैसे की आवक खत्म हो जाने से हमारा हाथ तंग होने लगा। ऐसे में कौन मदद करता? किससे कहूं? कैसे कहूं ? कोई आय नहीं। फलस्वरूप मेरे गहने एक-एक कर बिकने लगे। हालत की गम्भीरता को देखते हुए ऑपरेशन तो कराना ही था।
बम्बई के बड़े अस्पताल में आलोक का ऑपरेशन हुआ और गांठ निकाली गई। खर्चा तो बहुत हुआ पर इलाज सफल हुआ और यह ठीक होकर घर आ गये। परीक्षा की घड़ी गुजर चुकी है यह सोच मैंने राहत की सांस ली। परन्तु राहत कहां? मेरे जीवन की मुख्य परीक्षा तो अब थी- इनकी देखरेख के साथ मंहगी दवाओं का खर्च सामने था। फिर हर थोड़े समय बाद डॉक्टरी चैकअप जांच इन सबके लिये भी तो पैसा चाहिये। इतने पैसे कहां से लाऊं? हर समय यहीं उधेड़बुन मुझे खाये जाती। वह उठने बैठने जरूर लगे थे पर काम तो नहीं कर सकते थे। जिससे दो पैसे की आय होती। सिगरेट पीने की लत तो उन्हें शुरू से थी ही। अब फालतू समय गुजारने के लिये वह फिर हावी हो गई। अब तो बैठे ठाले गुटखे की जुगाली करने लगे जो और नुकसानदेह थी। कुछ भी हो पर मुझे उनकी सेहत का ध्यान रखना जरूरी था। मैं गुटखे के पाऊच छिपा देती या फेंक देती। सोचती यह जल्दी स्वस्थ हो जाय तो काम करना शुरू करें और घर आर्थिक तंगी से उबर पाये। परन्तु कहां, इनकी तबीयत तो दिनपर दिन गिरती जा रही थी। अब तो मेरा धैर्य भी चुकने लगा। मेरी भी हिम्मत जवाब दे रही थी। इनके न सिर्फ हाथ पैर कमजोर हो गये थे बल्कि अब तो दिखाई भी कम देने लगा था। लोग दबे छिपे स्वर में कहने लगे थे अब तो यह नहीं बचेगा। यह सुन मैं तो बिल्कुल पस्त, निढ़ाल हो जाती। मुझे अपनी और नन्ही बेटी सुरभि की चिंता सताने लगती- मेरा क्या होगा? मेरी बेटी का क्या होगा? अब तो मैं सारे वक्त यहीं सोचने लगी थी।
मैंने बहुत सोचने के बाद निर्णय लिया कि अब कमाई के लिये मुझे ही कुछ करना होगा। कहीं न कहीं कोई नौकरी ही मिल जाय। पर कोई सम्मानजनक नौकरी भी तो पूरी पढ़ाई के बाद मिलती है। मेरी पढ़ाई पूरी कहां से होती? उन्नीस वर्ष की आयु में ही विवाह हो गया था। पिता का घर छूटा तो पढ़ाई भी छूट गई। नये जीवन में प्रवेश के बाद न इन्होंने और न मैंने कभी अधूरी छूटी पढ़ाई पूरी करने की सोची। जीवन में पूरी खुशहाली थी। कभी बुरे दिन भी आयेंगे और आड़े वक्त पढ़ाई ही स्वावलम्बन में हमारा सहारा बनेगी तब ऐसा कहां सोचा। आज आधी अधूरी पढ़ाई के दम पर कोई काम मिलेगा? बहुत कम आशा थी। मैंने फैसला लिया- मैं अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करूंगी। पढ़लिख जाने से ही कोई नौकरी मिल पायेगी। इस बारे में मैंने अपने श्वसुर जी से बात की। बाबूजी तो कुछ न बोले पर आलोक ने प्रश्न किया-
‘‘पढ़ाई का खर्चा कहां से आयेगा?’’
पर बाबूजी ने कहा- ‘‘बहू पढ़ना चाहती है तो पढ़े। मुझे कोई आपत्ति नहीं किंतु आजकल पढ़ लिख कर भी नौकरी नहीं मिलती। कहीं छोटी मोटी प्राईवेट नौकरी तो अभी भी की जा सकती है। मैं किसी विद्यालय या संस्था में बात कर सकता हूं। काम करते हुए भी यह अपनी पढ़ाई पूरी कर सकती है।
‘‘पर बाबूजी एक बार तो पैसे चाहिये। फीस, फार्म, किताबों के पैसे कहां से जुटाएंगे। एक धेला तो हैं नहीं हाथ में। वो तो आपकी पेंशन न आती हो तो खाने के लाले पड़ जाये। मेरा कमाया हुआ तो सारा फुंक चुका है इलाज में।’’
‘‘तुम चिंता मत करो। मैं खर्च करूंगा।’’ बाबूजी ने हिम्मत बढ़ाई तो मैं पढ़ने लगी। कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना भी शुरू किया। घर बाहर का काम, छोटी बच्ची, और फिर ट्यूशन पढ़ाना। इन सब में मैं इतनी खप जाती थी कि पढ़ती थी तो कुछ याद ही नहीं होता। समझ में नहीं आता था। दिन भर के परिश्रम के बाद रात को किताब सामने आते ही नींद के झोंके आने लगते। आलोक को भी अब पहले जितना समय नहीं दे पाती। कभी दवा लाना भूल जाती तो कभी उधड़े कपड़े सीना। उन्हें लगता कि अब मैं उनकी जानबूझ कर उपेक्षा कर रही हूं। समय न दे पाने के कारण मैं भी हर समय अपराधबोध से घिरी रहती। वे मुझ पर गुस्सा करने लगते। मैं भी दबी-दबी सहने लगी। कभी किसी बात में कोई कसर रह जाती तो वह गाली देने लगते और हाथ उठा देते। चिल्लाते कहते कि अब वह कमाऊ नहीं रहे, उसे बोझ लगने लगे हैं। मैं वाक्य तीरों से घायल हुई अपना पढ़ा हुआ सब भूल जाती और सुबकने लगती। अपनी स्थिति किससे कहूं? क्या कहूं।
एक दिन उषाजी हमारे यहां आयी। उषाजी हमारे पास सामने वाली लाइन में ही रहती है। बहुत अच्छी महिला है। उस दिन इनके थप्पड़ से मन बहुत क्षुब्ध था। उन्होंने दो शब्द सांत्वना के बोले तो मैं रो पड़ी। आंखों में तो मानो सैलाब ही फूट आया था अपनी बेचारगी का। मुझे मां की तरह वह पुचकारने लगी- ‘‘रोती क्यों है? रोने से क्या होगा? सब समय एकसा नहीं होता। बुरा वक्त भी गुजर जायेगा। तुम्हारे अच्छे दिन भी लौटेंगे।’’
‘‘पर कब और कैसे?’’ मैं फिर सुबक उठी।
‘‘अरे पगली! चुप हो। औरत के अंदर बहुत ताकत होती है। वह चाहे तो सबकुछ बदल सकती हैं। सबकुछ संभाल सकती हैं। तुम अपनी ताकत को पहचानो। बहुत कुछ कर सकती हो।’’ मुझे लगा जैसे मेरी दिवंगत मां बोल रही हो। उनके दुलार की उष्णता से मैं पिघली जा रही थी। फिर सिसकते हुए पूछने लगी-
‘‘पर कैसे? क्या मैं कुछ काम नहीं कर रही हूं? क्या कमी रखी है मैंने? अब और कितना कर सकती हूं भला। रोज तिल तिल कर जी नहीं बल्कि मर रही हूं।’’
वे काफी देर तक मुझे समझाती रही। दिलासा देती रही। बहते आंसू पौंछती रही। उनके जाने के बाद मैंने अपने आपको बहुत हल्का महसूस किया। लम्बे समय बाद मैं बहुत हल्का महसूस कर रही थी। मां जैसा ममत्व पाकर मैंने मन ही मन प्रण किया अब मैं कभी नहीं रोऊंगी। अपनी, बेटी की और पति की ताकत बनूंगी।
वह दिन बहुत अच्छा सुहावना था। रिमझिम बारिश हो रही थी। ट्यूशन के लिये बच्चे नहीं आ पायेंगे। सोचा आलोक के कपड़ों की अलमारी ही जमा दूं। काफी समय से संभाल नहीं पा रही थी। मैंने आलोक के कपड़े निकालने के लिये अलमारी खोली। कपड़े निकालने लगी। देखा, एक कोने में उनका कैमरा पड़ा है। मैंने उसे छुआ ‘मेरे पति का अनमोल साथी’ फिर उठाकर बाहर निकाल चूम लिया। देखा उस पर धूल जमी हुई है। यह देख मेरा मन भर आया। मैं आंचल से उसे पौंछने लगी। मेरी अंगुलिया कैमरे को सहला रही थी। बहुत साथ दिया इसने आलोक का। इसके साथ से हमारा जीवन कितना सुखमय था पर अब यह निकम्मा हो गया है। पर इसे निकम्मा क्यों कह रही हूं तत्क्षण ही विपरीत ख्याल आया। बेकार तो इसका मालिक हुआ है यह तो अभी भी पूरी मुस्तैदी से अपना कमाल दिखा सकता हैं। चाहो तो अभी आजमा लो। चमकता हुआ कैमरा मुस्करा पड़ा- क्या सोच रही हो दिव्या ? मैं सच कह रहा हूं। तुम चाहो तो मैं आज भी तुम्हारा साथ निभा सकता हूं।’ दमकते कैमरे की इस अपील से एकाएक मेरे हाथों में स्पन्दन सा महसूस हुआ। एक नवीन विचार मेरे मन में कौंधा। तत्काल ही मैं कैमरा लेकर आलोक के पास पहुंची। हुलसती हुई बोली- ‘‘इससे कैसे तस्वीर खींचते है, मुझे बताओ।’’
लम्बे समय बाद अपना कैमरा देख आलोक भी बिस्तर पर उठ बैठे। उन्होंने कैमरे को पकड़ा। आंख के पास ले जाते हुए उनके उठे हाथ धूजने लगे। मैंने आलोक को संभाला। ‘‘मुझे बताओ क्या करना है?’’ पर वह चुप पड़े रहे और उन्होंने अपनी आंखे मूंद ली। बंद आंखों की कोर से दो मोती ढुलक पड़े जिसे मैंने नीचे नहीं गिरने दिया और बीच में ही उन्हें अपने आंचल में झेल लिया। उस दिन मैंने तय कर लिया पढ़ाई के साथ फोटो खींचना भी सीखूंगी।
ट्यूशन के पहले रूपये मिले- एक सौ पचास रूपये। मेरी पहली कमाई। गाढ़ी कमाई। मेरी नजरों में अनमोल राशि। मन में खुशी के कई कुसुम खिल पड़े। मैंने आंखे मूंद ली। मन सुरभित हो उठा। पांवों में अनोखी दृढ़ता का संचार होने लगा। मन का विश्वास कुलांचे भरने लगा। कई इन्द्रधनुषी सपने आंखों में लहराने लगे-
‘बहुत कुछ किया जा सकता है। सिर्फ थोड़ासा हौंसला चाहिये।’ ताकत बटोर मैंने आंखे खोली। हथेली में पड़ा सौ और पचास का नोट गडिडयों का आकार लेने लगा। मैंने कसकर नोट मुट्ठी में बंद कर लिये। लगभग पांच मिनिट बाद मुझे ध्यान आया कि ये पुकार रहे है। जाकर देखा ये बाथरूम में भीगे खड़े तौलिये के लिये पुकार रहे है। सिर के बालों से पानी की बूंदे टपटप चूं रही थी। किसी बालक की तरह वे आंखे झपझपा रहे थे। उनकी दुर्बल देह सिकुड़ी हुई ठिठुर रही थी। आलोक का ये हाल देख मुझे जाने क्या हुआ कि मैं जाकर तरू लता सी उनके वक्ष से लिपट गई और किसी पुष्पित बेलसी उनसे लिपटी हुई उनके हाथों में अपनी पहली कमाई धर दी।
‘‘यह क्या देवू?’’ वह चौंके।
‘‘ट्यूशन वाला बच्चा दे गया।’’ उनके वक्ष पर अपना सिर टिकाकर मैंने कहां।
‘‘अच्छा तो तुम्हारी पहली कमाई है।’’ कहकर इन्होंने मेरे गालों को थपथपा दिया। ‘‘इसके लिये बहुत मेहनत की है तुमने। लो संभालों इन्हें, रूपये भीग जायेंगे।’’ इनकी सराहना, आदर, प्रेम क्या कुछ नहीं था उनके शब्दों और हावभाव में। मैं तो खिल उठी अपनी इस जीत पर। दृढ़ हो शाम को उषाजी से मिली, ‘‘मैं फोटो खींचना सीखना चाहती हूं।’’
‘‘ये तो तुम्हें आलोक से भला अच्छी तरह और कौन सिखा सकता है।’’ उन्होंने सहजता से कहा। ‘‘आलोक का तो बड़ा नाम रहा है इस क्षेत्र में।’’
‘हां, वो तो है।’ मैंने मन ही मन कहा और गर्दन झुका ली। मैं उठने को हुई तो उषाजी ने अपनी बेटी को पुकारा- ‘‘कुसुम जरा आना तो बेटी। भाभी को जरा कैमरे और तस्वीर के बारे में बता दे।’’उषाजी की बीस वर्षीय मेरी हम उम्र बेटी कुसुम आ खड़ी हुई। उसका परिचय कराते हुये उषाजी बोली- ‘‘ अभी यह जर्नलिज्म की पढ़ाई कर रही है। थोड़ी बहुत फोटोग्राफी के बारे में जानती हैं।’’ फिर कुसुम की ओर मुखातिब हो आदेश दिया- ‘‘जा, भाभी को छत पर ले जा और वहीं उन्हें फोटोग्राफी सिखाना।’’
उनकी बेटी कुसुम ने मुझे कैमरे की प्राथमिक जानकारी देते हुए इस कला की कई बारीक बाते भी समझायी। मैंने उसके कहे अनुसार इधर उधर के फोटो खींचे। पहली रील धुली। परिणाम सामने था। कुछ आधे अधूरे तो कुछ हल्की, धुंधली या फिर गहरी तस्वीरें आयी। उनसे सबक ले मैं आगे का सबक सीखने में जुट गई। काम सीखने की ललक रंग लायी। मैंने आलोक को इस बारे में अभी तक कुछ नहीं बताया था। मैं आलोक का स्टूडियो दुबारा खोलना चाहती थी और इसके लिये पहली स्वीकृति मुझे बाबूजी की चाहिये थी। मैंने बाबूजी से बात की- ‘‘मैं आलोक के स्टूडियो को खोलना चाहती हूं। उनका काम फिर से शुरू करना चाहती हूं। घर की हालत तो आप जानते ही हैं। स्टूडियो का फिर से खुलना बहुत जरूरी है।’’ मैंने जोर देकर अपनी बात कही।
‘‘पर बेटी आलोक तो अब कुछ कर नहीं सकता। स्टूडियो पर काम कौन करेगा?’’
‘‘मैं करूंगी।’’
‘‘तुम?’’
‘‘हां मैंने कुछ-कुछ फोटोग्राफी सीख ली है और कुछ काम करते करते सीख जाऊंगी।’’ क्षणभर तक वह मेरे आत्मविश्वास को तोलते रहे। फिर बोले - बहू यह छोटी जगह है। तुम काम करोगी तो लोग क्या कहेंगे?’’
मैंने उन्हें विश्वास दिलाया- ‘‘बाबूजी आप मुझे एक बार मौका दें। मैं शिकायत का कोई मौका नहीं दूंगी।’’
बाबूजी से इजाजत लेकर मैंने पति का स्टूडियो खोल तो लिया पर दिनभर फालतू बैठी रहती। एक भी ग्राहक नहीं आता। लोगों को मुझपर विश्वास जो नहीं था। मेरा विश्वास डगमगाने लगा लेकिन मैं हारना नहीं चाहती थी। मुझे विश्वास था एक दिन जरूर स्थिति में परिवर्तन होगा। महिला होने के नाते लोग मुझे इस पेशे में स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। पर मुझे दिखाना है कि मैं भी अच्छे फोटो खींच सकती हूं। आखिर एक दिन एक दसवीं का छात्र मेरे स्टूडियो में आया। उसे परीक्षा फार्म में फोटो लगाना था। दूसरी जगह भीड़ लगी हुई थी। उसे काम जल्दी चाहिये था। मेरा पहला ग्राहक था अत: मैंने उसकी एक नहीं दो तस्वीरे खींचकर दे दी। वह खुश हो गया। प्रफ्फुलित हुआ वह अपने अन्य साथियों को भी ले आया। मैंने सबको दो दो फोटो खींचकर दे दी। इस तरह मैंने बिना कमाये पहली बार अपने पैसे लगाकर काम शुरू किया।
धीरे-धीरे आसपास गांव के लोग मेरे स्टूडियो आने लगे। कुछ तो स्टूडियो खुला देख आलोक के पुराने ग्राहक भी चले आते पर स्टूडियो में मुझे बैठा देख सकुचा जाते। ऐसे में मेरा व्यवहार बहुत संतुलित होता। मैं उन्हें एक बार मौका देने का आग्रह कर पैसा देने या बाद में देने की बात कहती। लोग फोटो खिंचवाने लगे। महिलाओं का तो मैं कुछ प्रसाधन भी कर देती। प्रसाधन से निखरे उनके फोटो सुन्दर तो आते ही फिर मेरे से उनकी झिझक भी कम होती। कुल मिलाकर काम ठीक ठाक चलने लगा था। घर की स्थिति में कमाई से सुधार आने लगा और लोग भी पुन: इस स्टूडियो को जानने लगेगें। अपने इस दोहरे लाभ से मेरा विश्वास बढ़ने लगा तो अब काम बढ़ाने की ललक भी मन में जागने लगी। मैं स्टूडियो में नये सेट लगवाना चाहती थी। अच्छी ग्राहकी के लिये आकर्षण के लटके झटके तो चाहिये ही और नवीन सज्जा इस पेशे की मांग भी थी। इस चीज को मैं भलीभांति समझ रही थी। मैंने पहले बाबूजी से बात की तो उन्होंने भी खुशी खुशी अपनी इजाजत देते हुए मुझे कहा- ‘बहू तुम जैसा उचित समझो करो। मैं तो अब बूढ़ा हो चला। मेरा भविष्य भी तुम्हारे ही कंधे पर टिका है। उनका अपने प्रति इस विश्वास और आस्था को देख मैं गदगद हो उठी। अब मैंने आलोक से कहा-
‘‘नये सेट लगवाने में मुझे आपकी मदद चाहिये।’’
‘‘देवू मैं क्या मदद कर सकता हूं। मैं तो एक कमजोर और अपाहिज ठहरा जो खुद तुम्हारे पर आश्रित हूं।’’ कहते कहते उनकी आंखे भर आयी और अपनी कमजोरी छिपाने के लिये एक ओर मुंह फेर लिया। यह देख मैंने उन्हें संभाला-
‘‘ऐसा नहीं है। मैंने आपकी कला देखी है। पुराने ग्राहक आपकी बहुत प्रशंसा करते है। आपके रंगों का संयोजन बहुत मोहक है। आपके सेट जीवंत लगते हैं।’’
‘‘अब मैं ठीक से देख भी नहीं सकता। मेरे हाथ, देखो मेरी टांगे कांपती है......अब मैं कुछ काम का नहीं रहा.......तुम जानती हो फिर भी....?’’ आलोक की आंखे बरबस छलछला उठी।
‘‘ऐसा मत कहो। आप मेरी आंखों से देखेगें। आप केवल बतायेंगे और प्रयोग मैं करूंगी। आपको तो केवल मुझे राह दिखानी है। हम साथ-साथ नये प्रयोग करेंगे।’’ उनके दोनों हाथ थामकर मैंने कहा। ये क्षण बहुत भावुक और मेरी परीक्षा के थे। मैंने उन्हें अपने भविष्य और बेटी का वास्ता दिया। उनका हौंसला वापस लौटे अब तो हर पल मेरी यही कोशिश थी। वे ना नुकुर करते रहे। किंतु मैंने ठान ही लिया और एक दिन उन्हें तैयार कर स्टूडियो ले आयी। लम्बे समय बाद अपनी पेढ़ी पर चढ़ते हुए आलोक भावविभोर हुए जा रहे थे।‘‘ अपनी नम आंखों को झपझपाते हुए कहने लगे-
‘‘देवू मैंने कभी नहीं सोचा था कि दुबारा.....मैं तो इसे बीमारी की दुनिया में भूला ही चुका था।’’ अन्दर आकर लहराते सेट को छूकर आलोक ने गद~गद कंठ से कहा। इसके बाद तो समय के मानो पंख लग गये थे। कैसे वक्त तेजी से गुजर रहा था। दिन महीने में बदलते जा रहे थे। आलोक का दवा नियमित लेना, व्यायाम करना और तम्बाकु सिगरेट का छोड़ना उनकी सेहत में सुधार लाने लगा। आंखों की ज्योति भी बढ़ रही थी। सबकुछ अच्छा होने लगा था अब। उनका हंसना बोलना मेरे जीवन में अमृत के समान था। वे फिर काम करने लगे तो मैं निश्चिंत हुई। उस दिन मैं कुछ देर से ही स्टूडियो पहुंची थी। दीपावली का त्यौहार जो आने वाला था। स्टूडियो पहुंच देखा तो आलोक स्टूडियो के नाम का पुराना बोर्ड हटवा रहे थे और नया बोर्ड लगवा रहे थे।
‘‘यह क्या?’’ मैंने पूछा।
उन्होंने हंस कर कहा- ‘‘अपने स्टूडियो को नया नाम दिया है मैंने - ‘‘दिव्यलोक’’ अपनी दिव्या का नया आलोक।

Monday, September 7, 2009