Sunhare Pal

Monday, November 30, 2009

स्थगन

लो आज फिर रसोई से सफेद छुरी गुम हो गई, कहां जा सकती है? शक की सुई फिर भुआ की ओर उठ गई। घर में यह पहली बार घटने वाली घटना नहीं है। जबसे भुआ इस घर में काम करने आई है तबसे कई चीजे गुम हो चुकी है। साबुन, टूथपेस्ट, टूथब्रश से लेकर अगरबत्ती, केसर-चंदन डिब्बी के अलावा रसोईघर की कटोरी, चम्मच, गिलास और यहां तक कि दीपावली पर बच्चों के पटाखों का डिब्बा भी गुम हो चुका है। बहुत गुस्सा आया जब पटाखों का डिब्बा गुम हुआ था तब। निश्चय कर लिया था मैंने इस बार जरूर से भुआ की छुट्टी कर दूंगी। बहुत हो चुका, अब बर्दाश्त के बाहर है उसकी छोटी मोटी चीजे चुराने की यह आदत।
भुआ को जब काम पर रखा था तब ही बहुत लोगों ने अगाह कर दिया था - इसे काम पर तो रखा है पर इसकी आदत ठीक नहीं....हाथगली है.....साबुन की तो विशेष चोर है......इसे घर में डाला तो है पर सावचेत रहना......इसके पास और कहीं काम नहीं हैं.....इसे कोई नहीं रखता.....
जब वह नई-नई आयी थी उसे लेकर हमसब बहुत खुश थे। बरसो के संचित पुण्य के समान वह हमें सेवाभाव लिए मिली थी। यह पहली ही कोई काम वाली थी जिसकी हर कोई प्रशंसा कर रहा था। सुबह से लेकर दिन ढ़ले तक लगी रहती भुआ। फिल्मों में रामू नामक नौकर की तरह घर में कामों को इतनी मुस्तैदी से करती मानो घर की सदस्या ही हो। उसके मुंह पर किसी काम के लिए मनाही तो मानो थी ही नहीं। हर काम के लिए हर समय तैयार भुआ शान्तिभाव से निरंतर काम में जुटी रहती। फलस्वरूप वह घर में सम्मान पाने लगी और उसका नामकरण हुआ ‘भुआ’। सम्मान के साथ घर में भोजन-पानी-नाश्ता सबकुछ उसे मिलने लगा। हमारी निर्भरता उस पर इतनी बढ़ गई कि वह एक घंटा भी देरी से आती तो हम सब उसके लिए व्यगz हो उठते। उस दिन जब वह पहली बार देर से आयी थी तो -
- क्या बात है आज भुआ नहीं आई? रोज तो साढ़े नौ-दस बजे तक आ जाती है। आज तो ग्यारह बज रही है।
बाऊजी ने आकर प्राथमिकी दर्ज करायी- ‘‘मेरे बाथरूम से साबुन की बट्टी चली गई। कल ही तो मैंने नई निकाली थी।’’ ताजुब्ब तो जरूर हुआ पहली बार हुए इस खुलासे पर। सबने अंदाजा लगा लिया था कि कहां गई होगी? पर कोई कुछ नहीं बोला। साबुन से अधिक सभी की बैचेनी इस बात से थी कि अगर भुआ नहीं आई तो क्या होगा? किसी को स्कूल तो किसी को मिटिंग में तो किसी को पार्लर जाना था। मोहरी पर झूठे बर्तनों का ढ़ेर, बाथरूम में गंदे कपड़ों का अम्बार लिए पूरा घर सफाई के लिए ताकता मुंह बांये अस्त-व्यस्त पड़ा था।
तभी फाटक की कुंडी बजी। देखा भुआ प्रविष्ट हो रही है। सबकी जान में जान आयी।
- साढ़े ग्यारह बज रही है, भुआ इतनी देर से क्यों आयी?
- आज मेरे अग्यारस है। मंदिर में भजन हो रहे थे जरा बैठ गई।
सचमुच श्वेत वस्त्रों में लिपटी उस अधेड़ काया के माथे पर चंदन का टीका सुशोभित होता हुआ सौम्यता के साथ उसके साध्वीभाव की गवाही दे रहा था। आकर उसने बड़ी तन्मयता से काम संभाल लिया। किसी ने उसे कुछ नहीं पूछा।
अब सभी उसकी इस बात से परिचित हो गये थे कि हर महीने की अमावस्या, पूर्णिमा और ग्यारस जैसे विशेष दिनों पर वह मंदिर में भजन करने बैठ जाती है तो आने में देर तो हो ही जायेगी। वैसे भी उसकी दौड़ कभी घड़ी से रही ही नहीं। बस आहिस्ता आहिस्ता काम को अंजाम देने में जुटी रहती। कभी कहते भुआ यह काम पहले कर लो वो बाद में करना वह तुरंत आदेश की पालना करने लग जाती।
उफ! इससे पहले जितनी भी काम वाली आयी थी कैसी जुबान दराज और तूफान मेल थी। काम किया या नहीं वो जा, वो जा और जब तक काम पर नजर पड़ती वह रफूचक्कर। महीने में चार-पांच लांघा। जब समय मिले मुंह उठाकर चले आना। बिना कहे छुट्टी मार जाना। एक से बढ़कर एक मुसीबत थी। भुआ जैसी तो कोई आयी ही नहीं। मंदिर में जरा भजन में बैठ गई तो ठीक ही है। उपवास है उसके। एक तो बिचारी विधवा और ऊपर से जवान बेटे की मौत। इस दुख से तो उसे हरि स्मरण ही पार लगायेगा।
जब मन में ऐसे शुभ विचार चलते तो बाऊजी ने भी कहना छोड़ दिया कि भुआ कब उनके पूजाघर से अगरबत्ती, माचिस या केसर डिब्बी ले गई। भुआ को किसी ने कुछ नहीं कहा। चोरी और वह भी साबुन, अगरबत्ती जैसी छोटी-मोटी चीजों की। इतने बड़े घर के जखीरे में इन छोटी-मोटी चीजों की क्या बिसात? सब्र की जा सकती है। अगर भुआ काम छोड़ देगी तो घर में मुसीबत हो जायेगी। इतने बड़े घर का काम कौन करेगा? सभी ने सचेत व सर्तक रहने की एक दूसरे को हिदायत दी और अपने अपने काम पर लग गये।
इस बीच घर के लोगों ने उसे चीजे चुरा कर खाते पकड़ा था। कभी लड्डू तो कभी पापड़ी मौका मिलते ही भुआ बिना पूछे लेकर खाने लगी। एक दिन तो भुआ पकड़ी गई। एक पोलिथीन की थैली में विम पाऊडर भरते हुए मैंने खुद पकड़ लिया-
‘‘यह क्या भुआ?’’
‘‘कुछ नहीं भाभीसा.......एक क्षण के लिए वह अचकचा गई पर दूसरे ही क्षण उसे बहाना सूझ गया ‘‘बेसिन साफ कर रही हूं’’ और वह फटाफट साफ बेसिन की ओर बढ़ गई। उसके इस तरह बेवकूफ बनाने के नाटक रचने पर मन तो ऐसा उफना कि इसे अभी हाथ पकड़ कर बाहर करे।
उसकी चोरी पकड़ी जाने पर हिदायत भरे स्वर घर में फिर उभरे।
- ध्यान रखा करो।
- कहां-कहां ध्यान रखे इतने बड़े घर में?
- ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। ये चोर है तो कोई दूसरी देखो।
- तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे काम वाली सड़क पर पड़ी हो। ढ़ूंढ़ने निकले और मिल गई।
- क्या, सब घरों में काम करने नहीं आती क्या कोई?
- इतने बड़े घर में कोई काम करने को राजी हो तब ना.....
फिर चुप्पी लग गई। दीपावली की सफाई सिर पर थी। यह चली जायेगी तो कहां से ढूंढ़ेगे नई? यह तो कम से कम जमी जमायी है। कोई बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसका सबकुछ देखाभाला हैं। दीपावली निकलने दो फिर सोचा जायेगा। पर अब तो हद हो गई पटाखों की चोरी....आने दो उसको।
वह सप्ताहभर से विशेष अवकाश पर है। ग्यारस का उद्यापन दे रही है। ‘क्या फायदा ऐसी भक्तिभाव का? चोर कहीं की।’ भुआ को लांछना देते हुए सबने लताड़ा। इस बार तो उसका हिसाब चुक्ता कर ही देंगे। दो साल हो गये उसे काम करते-करते। पता नहीं कितनी चीजों को चुरा चुकी है अब तक, जो अभी तक हमारी निगाह में नहीं आयी है। घर के सभी सदस्य एक जुट हो गये थे कि वह आये उससे पहले सभी कामों को निपटा लिया गया। बबलू, चिंकी, सोनू से लेकर सभी बड़ों ने अपने-अपने कपड़े धोकर सुखा चुके थे। झूठी प्लेटे भी साफ हो चुकी थी। पूरा घर दुzत गति से साफ हो रहा था।
दमकते घर में फोन की घंटी बजी।
- छोटे की शादी की तारीख पक्की करने की बात कह रहे थे समधीजी। एक महीने बाद ही शुभ लग्न आ रहे है।
भुआ को निकालने का विचार फिर निरस्त हो गया। छोटे की शादी में भुआ ने दत्त-चित्त होकर काम किया। खूब खाया और खुले मन से दिये गये उपहार बटोरे। कुछ छोटी-बड़ी चीजे चुरायी होंगी तब भी किसी ने ख्याल नहीं किया।
पर एक दिन तो हद हो गई। नई दुल्हन का पर्स खोल लिया और पकड़ी गई। उसे खूब लताड़ा गया। पक्की उम्र का हवाला दिया गया। उसे सख्त हिदायत थी कि वह जाये तब बताकर जाया करे। जब तक दूसरी का बन्दोवस्त न हो जाय उसे रखने की विवशता अब भी घेरे हुई थी फलस्वरूप भुआ पर पूरी सर्तकता से ख्याल रखा जाने लगा।
नई की तलाश जारी थी। कई जगह इस बारे में बात चलाई गई। अभी तक कहीं से पलटकर संतोषजनक जवाब नहीं आया। उस दिन आजाद मोहल्ले से गुजर रही थी। तभी एक परिचित आवाज कानो से टकराई। मुड़कर देखा भुआ खड़ी थी।
- पधारो भाभीसा.
- तुम यहां रहती हो भुआ?
तभी ही मन में विचार कौंधा भुआ के घर के अंदर जाया जाय। मैं उसके घर के अंदर प्रविष्ट हो गई। साफ सुथरा पक्का दो मंजिला मकान। छोटे पुत्र की विडियो शूटिंग की दुकान, दो-तीन किरायेदार, उसकी समृद्ध स्थिति पर ताजुब्ब हुआ। दालान और बरामदे से गुजरती हुई मैनें उसकी रसोई में झांका। एक परिचित चीज से नजर टकरायी- ‘संडासी’ यह तो हमारे घर की है। गुमी हुई संडासी की याद हो आयी। आगे बढ़कर मैंने उसे उठा ली और उलटने पलटने लगी।
- यह तो बिल्कुल हमारे घर जैसी है।
- छोटा बेटा अहमदाबाद से लाया था।
‘झूठी और चोर’ बुदबुदाते हुए मैंने संडासी रख दी और तेजी से बाहर चल दी।
मैं बहुत श्रुब्ध थी - ‘क्यों सह रहे है हम भुआ को? ऐसी क्या विवशता है? क्या यह हमारी परवशता नहीं?
- छोड़ो सुधी, जाने दो। क्यों परेशान हो? कई लोग आदत से मजबूर होते है।
- आदत?
सभी गुस्से में थे। एक बार फिर भुआ का निकाला जाना तय हुआ। सब एकमत होकर कमर कस चुके थे- बस! किसी तरह यह महीना पूरा हो जाय। अभी 31 तारीख आने में 4 दिन शेष थे। परन्तु छोटी नन्द के परिवार सहित छुट्टियों में आने की सूचना ने भुआ के जाने पर फिर स्थगन आदेश जड़ दिया।

Friday, November 20, 2009

मैं और तुम


उसका और मेरा संघर्ष कब शुरू हुआ ये तो मुझे ठीक से मालूम नहीं, हां इतना मालूम है कि जब मेरे हाथ पैर और आंख नाक बन रहे थे और मुझमें थोड़ी- थोड़ी हरकत शुरू हुई थी तभी मैंने अपने पड़ौस मैं अपनी ही जैसी हल्की सी सरसराहट महसूस की थी। यद्यपि वो ओर मैं अपनी अलग-अलग थैलियों में थे, सिर्फ अहसास मात्र से ही एक दूसरे की उपस्थिति का हमे आभास मिल रहा था।
उसे ज्यादा जगह और ज्यादा आराम चाहिये था, उसने मुझे धकियाना शुरू कर दिया। वो ताकतवर था और मैं दुर्बल, फलस्वरूप मैं सिमटती गई और वो मेरी जगह पर भी अपना एकाधिकार करता चला गया।
मैं गहन अंधकार और पीड़ा से मुक्त होने के लिए छटपटाने लगी। पहले बाहर आने के लिए उसके और मेरे बीच संघर्ष होने लगा। पहले आगे सरककर उसने मेरा मार्ग अवरूद्ध कर दिया, मेरा दम घुटने लगा।
जब दो दस्ताना पहने हाथों ने मुझे खींचकर बाहर निकाल, उल्टा लटका दिया तब मैं बेहद घबराई हुई थी। इसलिए रोना भी भूल गई। मेरी पीठ पर थपकियां पड़ने लगी क्योंकि मैं रूक-रूककर सांस ले रही थी। चोट के दर्द से मैं बिलबिला उठी और डॉक्टर ने मुझे सीधा कर दिया। सीधा होते ही मैंने अचकचाकर पहली बार आंखें खोली।
उसके व मेरे बाहर आने का अन्तराल केवल दस मिनिट का रहा होगा किन्तु यहां भी वहीं बाजी मार ले गया। डॉक्टर द्वारा वो बड़ा और मैं छोटी घोषित हुई।
‘‘बहुत कमजोर बेबी है, उसे इन्टेसीव में रखना होगा’’ कहते हुए डॉक्टर ने मुझे पास खड़ी सफेद स्कार्फ बांधे हुई नर्स को थमा दिया। फिर मुझे कुछ होश नहीं रहा।
जब मैंने दुबारा आंखे खोली तो एक बड़े बल्ब की तेज रोशनी से मेरा परिचय हुआ। शायद वो मुझे गर्मी देना चाहते थे। सच! पीड़ा और ठण्ड के मारे मेरा बदन अकड़ा गया था। गर्मी पाकर थोड़ी राहत मिली और मैं हाथ पांव चलाने लगी। मुझे जगता देख फिर वहां से उठा लिया गया। लम्बी कारी डोर को पार करते हुये मैं नर्स की गोदी से वार्ड तक पहुंची। मुझे मेरी मां के बगल में लिटाते हुए नर्स बोली, ‘‘टेक केयर बहुत कमजोर बेबी है।‘‘
मुझे अपने सिर पर कोमल हाथों की छुअन महसूस हुई। दूसरे ही क्षण उनकी कोमल अंगुलियां मेरे काले, घने घुंघराले बालों से अठखेलियां करने लगी मैंने स्पर्श पहचान लिया, ‘‘ये तो मेरी मां है’’ खुश हो मैं मां से सटने के लिए हाथ पांव चलाने लगी। तब तक मुझे पता नहीं था कि बाहर आकर भी तुमने सर्वत्र अपना एकाधिकार जमा लिया है। मैंने देखा एक बूढ़ी औरत जो कि आंखों पर सुनहरी फ्रेम का चश्मा चढ़ाए हुये थी एक पोटली मां की ओर बढ़ाते हुए कहने लगी इसे दूध पिलाओ बहू ...... ओह! तो ये तुम हो।
जिसे मैं पोटली समझी थी दरअसल इसमे तुम थे और ये बूढ़ी औरत तुम्हारी व मेरी दादी मां ...... दादी मां तो मां का भी विस्तार होती है ऐसा कुछ-कुछ मुझे याद आ रहा था।
कड़क कलफदार साड़ी, ऊंचा, जूड़ा बांधे, नीचे झुकी हुई दादी के गले में मुझे लटकती हुई चमकती चीज ने आकर्षित किया और मैंने मुट्ठी में भीचं लिया।
‘‘हाय, देखो तो सही, अभी से मेरी चेन उतरवाने लगी है’’। कहती हुई वह मेरी बन्द मुट्ठी खोलने का प्रयास करने लगी। मैंने भी कसकर पूरी ताकत लगा रखी थी इसके बावजूद उन्होंने मेरी मुट्ठी खुलवा ली।
मैंने तुम्हारी और देखा, तुम मां की गोदी में गर्व से मुस्करा रहे थे। ‘मुझे भी गोदी में उठाओ’ मैं अपने हाथ पांव फैंकने लगी। मैंने बहुत हाथ-पैर चलाए पर मुझे किसी ने नहीं उठाया। अपनी इस हार से क्षुब्ध होकर मैं रोने लगी तभी दादी ने फटकारा,‘‘लड़की होकर गला फाड़ रही है।’’
भूख के मारे मेरी आँतड़ियां कुलबुला रही थी। तुम्हें मां का दूध पीते देख मेरी भूख और तेज हो उठी। मैं और तेजी से चिल्लाने लगी।
तुम इस सबसे बेफिक्र हो चपर-चपर दूध पीने में व्यस्त थे। तभी मुझे अहसास हुआ कि मैं दो सशक्त बाहों में हूँ। मैं कुछ देख पाती इससे पूर्व ही वह चेहरा नीचे मेरे मुँह पर झुक आया। अपने मुलायम गालों पर मुझे चुम्बन के साथ एक तीखी चुभन भी महसूस हुई और मैं ऊं..ऊं.. कर उठी। मुझे चूमकर चेहरा ऊपर उठा, ‘ये तो मेरे पिता है’ मैंने झट पहचान लिया। मेरे ऊं...ऊं... करने पर उन्होंने पानी की बोतल मेरे मुंह से लगा दी।
चुप हो गटगट पानी पीने लगी। मुझे पानी बेस्वाद लगा और मैं उसे मुंह से बाहर ठेलने लगी। मेरी नजरे पिता की नजरों से टकराई।
‘उसके लिए तो मां का दूध और मेरे लिए ये उबला बेस्वाद पानी’। पिता के कठोर चेहरे की नरम नरम पनीली आंखें मे जाने क्या मुझे लहराता नजर आया मानो वे कह रही हो, ’मैं इसके सिवा तुम्हें दे ही क्या सकता हूं, मेरी बच्ची।’ उन आंखों के सम्मोहन मे बंधी मैं चुपचाप पानी पीने लगी। अपनों के इस पक्षपात पूर्ण रवैये से बेखबर नींद मुझे घेरने लगी और मैं सो गई।
शोरगुल सुन मेरी नींद टूटी। देखा बहुत से मिलने वाले लोग आये हुए थे। हर आने वाला बधाई कह रहा और तुम एक गोदी से दूसरी गोदी में घूम रहे थे। मुझे समझ नही आ रहा था कि आखिर तुममे ऐसी क्या खासियत है। सिस्टर नर्स तो कह रही थी कि मैं बहुत सुन्दर हूँ ... गोरी चिट्ठी, बड़ी बड़ी आंखों वाली हूँ, बिल्कुल अपनी मां पर गई हूँ और तुम .... मुझसे बिल्कुल विपरित काले कलूटे, तभी तुमने किसी को गोदी को शू-शू कर गीला कर दिया। पर ये क्या...। फिर भी तुम्हें सब चिपकाए है।
तुम्हारी मुट्ठी में बहुत से नोट बन्द थे। ये सब तुम्हें मिलने वालो ने उपहार स्वरूप दिये थे, जिन्हें मुट्ठी में दबाये तुम मुस्करा रहे थे। मुझे लगा जैसे तुम मुझे चिढ़ा रहे हो। यह सब मैं चुपचाप पलंग के पायताने लगे झूले में से देख रही थी। जब मुझसे अपनी और उपेक्षा सहन नही हुई तो मैं सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए जोर-जोर से हाथ-पांव चूसने लगी। जब किसी ने ध्यान नही दिया तो मुझे फिर रोना आ गया।
तभी दो नन्हीं बाहें मेरी ओर बढ़ आयी मुझे पुचकारती हुई उठाने का असफल प्रयास करने लगी, ‘‘अरे-अरे उसे मत उठाओ, अभी तुम छोटी हो’’ मां ने उसे टोका।
‘‘छोटी टहा अबटो मैं दीदी बन गई हूँ।
‘‘हां तुम दीदी बन गई हो ......’’
तू अकेली ही क्या कम थी जो बहन को और ले आयी। दादी से दीदी को मिला ये उलहाना सुन मेरी मुट्ठियां भींच गई जिनकी गिरफ्त में मेरे कुछ केश आ गये और वे खींचने लगे, मैं दर्द से बिलबिला उठी।
बहुत रोने के कारण नामकरण हुआ रोनी लड़की और तुम्हारा राजा बेटा, अक्सर मैं गीले में सोयी रहती जबकि तुम्हारी लंगोट दादी आधी-आधी रात तक जागकर बदलती रहती। मां भी पहले तुम्हें दूध पिलाती, तुम्हारा पेट भरने के बाद बचा दूध मुझे मिलता। तुम्हें गोदी से उठाए दादी कहती कितना दुबला पतला है मेरा लाल जबकि भरपूर दूध पीकर तुम गोल मटोल लगने लगे थे,‘दादी झूठ भी बोलती है।’
दादी हर रोज मेरे लिए पिता से कहती, ‘‘अरे! इसके लिए अभी से धन जमा करना शुरू कर दो, बेटी है बढ़ते हुए देर नहीं लगेगी। कुछ नहीं तो बैंक में एफ. डी. ही करवा दो बेटा, आखिर शादी का दहेज जुटाना कोई मामूली बात नहीं है।’’
‘मेरे प्रति सबके मन में यह चिन्ता का कैसा बोझ’। मैं सहमकर सिसकियां भरने लगी। मां ने मुझे उठा लिया तभी गले से स्टेथोस्कोप लटकाए डॉक्टर आ पहुंची जिनसे मैं खूब परिचित थी। हर माह गर्भ में यहीं तो हमारा परीक्षण करती थी। मैंने तुम्हारी ओर नजर उठाकर कहा तुम इससे बेखबर छत ताक रहे थे।
‘‘बहुत रोती है यह’’ मां मेरी शिकायत डॉक्टर से करने लगी।
‘‘बच्ची कमजोर है, उसे तुम्हारा दूध अधिक पिलाया करो’’ और वो मुआयना करने में जुट गई।
‘‘सुन लिया माँ मैं यूं ही नही रोती’’
एक मीठी आवाज सुन मैं चौंकी। आप चाहे तो इसे मैं ले जाऊं, मैं झट पहचान गई ये तो मेरी नानी है’ जो मुझे गोदी में लेने के लिए नीचे झुकी हुई थी। बिल्कुल दादी की तरह बूढ़ी, जिस तरह दादी तुम्हें सीने से सटाती थी ठीक उसी तरह नानी ने मुझे अपने वक्ष से चिपका लिया। गर्व से में पुलकित हो उठी। मैंने तुम्हारी ओर देखा, तुम बेफिक्र हो अंगूठा चूसने में मगन थे ‘‘बुद्धू कहीं के’’, नानी आयी है और तुम पहचान भी नहीं पाये।
नानी मुझे साथ ले जाना चाहती थी इस बात पर मेरे पिता मौन थे। मैंने मां की ओर देखा उनकी आँखों मे हल्की सी चिन्ता की लकीरे उभरी हुई थी।
माँ तुम कैसे रखोगी इसे ये बहुत रोती है।’’
नानी के सामने मां का यह आरोप सुन मुझे बहुत दुख हुआ क्या मैं ऐसे ही रोती हूँ। गीले में पड़ी रही तब भी नहीं रोऊं ? क्या भूखी होऊं तब भी नहीं। यहां तक कि दादी उल्टी सीधी कहे तब भी नहीं।
नानी कह रही थी इसके लिए बकरी पाल लूंगी। उह! मुझे नहीं पीना बकरी का दूध। तुम्हारे लिए मां का दूध और मेरे लिए बकरी का दूध! पहली बार घृणा का भाव मेरे मन मैं जागृत हुआ।
आखिर यही तय हुआ कि कुछ दिनों के लिए नानी मुझे ले जायेगी ताकि मां तुम्हारी अच्छी तरह देखभाल कर सके। जाते समय पिता ने मुझे चिपका लिया। इतना कसकर की मेरा दम घुटने लगा और मैं रो पड़ी, वो मुझे पुचकारने लगे उनके कई चुम्बन मेरे मेरे गालों पर पड़ने लगे। मैंने भी कसकर उनकी कमीज पकड़ ली।
‘‘बेटी है बेटा इससे इतना स्नेह मत बढ़ाओ, कितना भी प्यार करोगे तो भी एक दिन छोड़कर चली जायेगी’’।
दादी की बात चुभ गई और मेरी मुट्ठी की बन्द कमीज छूट गई।
कुछ दिन बाद मां तुम्हें लेकर मुझे देखने के लिए नानी के यहां आयी। तुम आते ही मेरे बिस्तर पर लेट गये उस समय मैं सोई हुई थी। तुमने शू-शू करके मुझे भी गीला कर दिया। ‘तुम यहां भी आ धमके अपना एकाधिकार जमाने, आखिर क्यों?’
मुझे नींद से जगती देख मां ने मुझे उठाकर सीने से ले लगा लिया। मैं विद्रोह कर चिल्ला उठी, ‘मुझे नही आना तुम्हारी गोदी में। मैं तुम्हारा स्पर्श भूल चुकी हूं, इसमे मेरी कोई गलती नहीं, तुमने क्यों अपने से जुदा किया मां? क्या जिस जगह भैया पला-बढ़ा उस जगह मैं न पली थी? तुम्हारे ही खून से मेरा निर्माण हुआ था तो क्यों तुमने मेरे और भाई के बीच ये पक्षपात किया?’
मैंने आंखे उठा कर देखा-मां की आंखों में बन्द मोती लुढ़कने को बैचेन थे। जिन्हें उन्होंनें कठीनता से भींचे रखा था। ‘ये तुम्हारे चेहरे पर कैसी पीड़ा है मां? ये तुम्हारे आगोश में कैसी नर्म गर्मी है जिसकी आंच में मैं पिघलती जा रही हूँ ..... पिघलती जा रही हूँ। सारे शिकवे शिकायत भूलकर जमती जा रही हूँ ..... स्पंदनहीन हुई समाती जा रही हूँ मीठी नींद के आगोश में ........’