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Friday, January 22, 2010

‘तुम चुप रहो!’


यदि महिला आरक्षण की बात नहीं होती तो उसका नाम कौन लेता?
‘‘जठे परधान वणवां वास्ते होड़-होड़ी में आदमियां’रा माथा फूटी जावता, वठे अणी पद ने आरक्षित करी’न सरकार बब्बूड़ी’री तकदीर खोल दीदी’’।
झण्डा पार्टी की ओर से बब्बूड़ी को चुनाव टिकट मिला था। वैसे तो बब्बूड़ी अर्थात चन्द्रकला में कई योग्यताएं होते हुए भी ऐसी कोई योग्यता नहीं थी कि उसको चुनावी टिकट मिलता। न तो उसका कोई राजनैतिक कद था और न ही पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता। उसने कभी पार्टी के लिए कोई काम नहीं किया था। करती भी कैसे? उसे पार्टी, राजनिति से क्या लेना देना? सुबह से लेकर शाम तक चौप्पों’चौपायों’, खेत खलिहानों और रसोड़े से जो थोड़ी बहुत फुर्सत मिलती वो उसके छोरों के हक की थी। राजनिति क्या होती है वो तो क ख ग भी नहीं जानती थी। निपट ढ़ोर, अनाड़ी बब्बूड़ी। फिर बब्बूड़ी में ऐसी क्या योग्यता थी कि किसी ओर को न मिलकर सत्तारूढ़ पार्टी ने अपना टिकट देकर उसे चुनावी दंगल में उतारने का फैसला लिया?
सीधीसी बात है बब्बूड़ी के पिता इस टिकट के असली हकदार थे। अब जब प्रधान की कुर्सी महिला के लिए आरक्षित थी तो पिता टिकट लेकर क्या करते? पुत्री का नाम दे दिया। देने को तो वो बहूओं का नाम भी दे सकते थे पर एक तो बहुएं उनसे पर्दा करती थी। फिर बहुओं का मर्दो के सामने आना, बतियाना उन्हें पसन्द नहीं था। बेटो की भी यहीं राय थी। दूसरा बब्बूड़ी का उसके पति से झगड़ा चल रहा था। कोई पांचेक बरस से उसका डेरा मैके में डला हुआ था।
कल बब्बूड़ी फार्म भरने जायेगी।
‘‘इधर आ बब्बूड़ी’’
‘‘भिंया दुई’न आऊं दाता होकम’’ वह भैंस को बांटा रख दुहने की तैयारी कर रही थी।
अरे! पैली अठी आ। भौजाई ने कैव जो भिंया दुई लेगा। थूं अठीं आ।’’
बब्बूड़ी घाघरे से गीले हाथ पौंछती दरीखाने पहुंची। देखा वहां पिता के साथ पार्टी के और भी कार्यकर्ता मौजूद है। उसे देख कई हाथ ‘नमस्कार’ कर उठे। उसको ‘अचरज’ हुआ। अपने ही गांव के आदमी जिन्हें वह काकोसा, दादासा, भाईसा कहती रही, जिनकी गोद में वह खेली, अंगुली पकड़कर चली और बड़ी हुई वे उसे नमस्कार करें? उसने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि शर्मा गयी।
‘‘चन्द्रकला देवी अब आप हमारी नेता है....चन्द्रकला देवी जिन्दाबाद’’ रामबोला दर्जी ने उत्साह में भर नारा लगाया।
चुनाव पूर्व सरगर्मी वहां देखी जा सकती थी। दो, चार, तीन के समूह में खुसर-पुसर, कईं मुंह कान पर लगे थे। मतदाता सूची सामने फैली पड़ी थी। मर्मज्ञ राजनीतिज्ञों ने मिल बैठकर तमाम सूची को जातिगत आधार पर कई खण्डों में विभक्त कर दिया था। मसलन 15 घर सुनारों के जिनमें 34 मतदाता थे। महाजनों के कुल 20 वोट ही थे। ‘चतुरानन्द की महाजनों के वोट पर अच्छी पकड़ है’ दीनू फुसफुसाया। गूजरा, भोईयों, मालियों और पटेलों के 60 और 80 के आसपास वोट थे। बलाई, खटीकों और मुसलमानों, सिंधियों के भी काफी वोट है। दर्जी धोबी, रेगर, भिस्ती....कई जातिगत बंटाव, मतदाता बैंक की गणित चल रही थी। किसके कितने वोट है? कितने वोट पार्टी पक्ष में है और कितने विपक्ष के और कितने तटस्थ। पक्ष वाले तो झोली में थे ही। देखना यह था कि विपक्ष की जाजम में कितने छेद किये जा सकते है? कितनी सेंध, कहां-कहां मारी जा सकती है और सर्वाधिक ताकत तो तटस्थ वोटों पर लगानी थी। कितने जुटाये या तोड़े जा सकते है? हार जीत का फैसला तो यहीं मतदाता करते है।
‘‘काले ही फार्म भरनों है। साढ़े दस बजा रो मौ’रत आयो है’’
‘‘काले थ्हारी घरवाली ने भी बब्बूड़ी रे ल्हारे तै’सील में जाणों है।’’ शाम के सात बजने वाले थे। बब्बूड़ी ने जम्हाई ली, यह सब देख सुन उकताहट होने लगी। ‘‘दाता, होकम...’’
‘‘तू चुप रह...! हां, यो ठीक रैगा। आठ-दस लुंगायां रो जत्थो साथ वैणो चावै।’’
‘‘हां बाऊजी, चन्द्रकला देवी के साथ आठ दस नहीं कम से कम पचास औरते होनी चाहिए। हरेक जाति में से पांच-पांच औरते होनी चाहिए। ये हमारी ताकत का प्रदर्शन होगा। आधी गुवाड़ी मैं नूता भिजवा दों। पहले फार्म भरना फिर जीमण’’
‘चुनाव के लिए कल फार्म भरेगी बब्बूड़ी’ पूरे गांव में, बस्ती में लोगो को खबर लग गई थी। नूते लग गये थे।
‘‘चन्द्रकला देवी के पक्ष में अच्छा वातावरण है’’
‘‘हमारी जीत निश्चित है’’
‘‘परधान हमारा होगा’’ कार्यकर्ताओं में पूरा उत्साह था।
भोर का सूरज सूर्यप्रतापसिंह के आंगन में पसरा पड़ा था। अन्दर की डयोढ़ी में आज बब्बूड़ी हमेशा की भांति पौट्टे ’गोबर की थेपड़ी’ नहीं थाप रही थी। उसका सात वर्षीय बेटा भारतेन्दु उसे हस्ताक्षर करवाने की अन्तिम ‘प्रेक्टिस’ करवा रहा था। पास में ही बैठा उसका छोटा बेटा अमलेन्दु मां के हाथ से पैन खींचने की कोशिश में लगा था। मानो कह रहा हो ‘पेन पर मेरा अधिकार है।’
‘‘हां! यों·· यों··· ले बैठ’’ बब्बूड़ी उसे उठाकर जरा दूर बैठा आयी। वह पहुंचती इससे पूर्व ही वह पहुंचकर पेन उठा चुका था।
‘‘बाईसा पेन तो मर्दा रे हाथ में’ईज सौवे’’ भाभी के कहने पर बब्बूड़ी ‘फिस्स’ से हंस पड़ी।
झमरू मासी, पार्वती भुआ, गोदावरी तैलण, मंगनी जाटनी, नाथूड़ी रंगरेजण, बसन्ती मालण, गोवनी मीणी और न जाने कितनी जानी अनजानी औरतों का हजूम तहसील की ओर जा रहा था। रंगबिरंगे घाघरा-लूगड़ी में सजी हुई औरते, घूंघटा निकाले औरते, जिनके सबके हाथ में पार्टी के छोटे-छोटे झण्डे थे। औरतों के पीछे मर्दो का टोला था। यह भीड़ तहसील की मुख्य सड़क पर पहुंच चुकी थी। उत्साही कार्यकर्ता नारे लगाने लगे।
‘‘चन्द्रकला देवी....जिन्दाबाद·’’
‘‘झण्डा पार्टी...जिन्दाबाद··’’
एक उत्साही कार्यकर्ता जोर से चिल्लाया- ‘‘जब तक सूरज चांद रहेगा...’’
चन्दाबाई, चन्दू बाईसा, चन्द्रकला देवी, बब्बूड़ी...कई नामों की आवाजे आपस में गडमड हो गई तो नारों का स्वर धीमे से धीमा होता गया। युवा कार्यकर्ता खिलखिला उठे फिर हंसी का फव्वारा छूट गया।
‘‘चोप्प·’’ बुजुर्ग ने उन्हें दपटा...‘ढ़ग से नारे लगाओ’
युवको में खुसर पुसर हुई फिर नारे लगने लगे, एक स्वर में एक लय में।
हरे गोटे वाली मलमल की साड़ी और लाल बूंटेदार रेशमी लहंगा पहने, मुंह पर आधा घूंघट डाले, कई फूलमाला गले में पहने बब्बूड़ी अर्थात चन्द्रकला देवी बड़ी ‘ठहमराई’ ’गम्भीरता’ के साथ चल रही थी। उसकी जिन्दगी में यह पहला अवसर था। मन ही मन घर के सगला देवी देवता, डयाढ़ी माता, कुलदेवी बाणमाता और भैरूजी को बारम्बार यह कहते हुए धोग लगा रही थी कि ‘हे बावजी! म्हारो सत राखजै। म्हूं सत्राणी री फतै करजै।’
जय जयकार के साथ उसने फार्म पर अपने हस्ताक्षर किये। जैसे ही वह तहसील भवन के बाहर निकली सामने उसका पति भूपेन्द्रसिंह एक जीप के पास खड़ा था। आठ-दस लोग हाथ में लठ्ठ सम्भाले उसके साथ तने हुए थे। भूपेन्द्रसिंह आगे बढ़ा और उसका रास्ता रोकते हुए बोला-
‘‘तू चुनाव नहीं लड़ेगी। रजपूत की लुगाई है अपनी मरजादा में रह। बेसरम अब तू वोट मांगने घर-घर जायेगी? येई’ज काम पांती आया है तेरे...करमखोड़ली पूर्वजांे का नाम डूबायेगी...?...’’
वह चुप्प धणी को यहां इस तरह देख भौंचकी रह गई। वह कुछ कहती इससे पूर्व उसे धकियाते उसके पिता सूर्यप्रतापसिंह सामने आ गये। ‘‘घरै पधारो कंवरसा। पामणा भाई ने तै’सील में हील हुज्जत सोभा नीं देवे। आप घरै पधारो। पामणा री सोभा हवेली रे दरीखाने वैं है।’’
श्वसुर को समने पा भूपेन्द्रसिंह ठिठका। कड़ाई से कहे गये शब्द सम्मानजनक होते हुए भी उसे विष के घूंट की तरह लगे। उसने वहीं जमीन पर थूंक दिया। बुजुर्ग कार्यकर्ताओं ने समय की नजाकत को समझा। कहीं विपक्ष वाले इसका राजनैतिक लाभ न ले ले। इससे पूर्व ही वे यहां से खिसक लें। उन्होंने नारा लगाया- ‘‘चन्द्रा देवी...जिन्दाबाद’’
जिन्दाबाद के नारों के बीच से गुजरती हुई बब्बूड़ी एक मुकाम पार कर मैदान में उतर चुकी थी। इस दौड़ की पहली बाधा उसका पति अपने आदमियों के साथ दरीखाने पहुंच चुका था।
सूर्यप्रतापसिंह ने राजनीति में पूरी उमर खपा दी थी। वह समय की नजाकत को समझ रहा था। चन्द्रकला फार्म भर चुकी थी। चुनाव में केवल दस दिन बाकी थे। उसे अपनी पूरी ताकत से इस चुनाव को लड़ना ही नहीं, जीतना भी था। विपक्ष का जोर भी कुछ कम नहीं था। वैसे भी आजकल चुनाव लड़ना आसान चीज नहीं रहा। पैसा पानी की तरह बहता है। मोटी रकम का हिस्सा अगर दामाद को राजी रखने में चुक गया तो क्या हुआ। वैसे तो उसे टेढ़ी अंगुली से घी निकालना भी आता था, पर वह भलीभांति जानता था कि यह अवसर दामाद को नाराज करने और उत्तेजित होने का नहीं है। वह मौका देखकर तिलक निकालना खूब जानता था। सो जंवाई के साथ पधारे हुए अतिथिगणों का खूब आदर सत्कार हुआ। मीठे शर्बत और मीठे फलों से उन्हें तृप्त किया गया। अब दामाद की बारी थी। ‘एक बार बब्बूड़ी परधान बन जाय। ऐसे कई वारे न्यारे तो वो आगामी पांच सालो में कर लेगा’ उसने दांव लगा ही दिया। अखबार में लिपटा नोटो का बण्डल उसने दामाद के सामने करते हुए अत्यन्त मधुरता से कहां, ‘‘यो आपरी सीख रो बीड़ों, हाजर..और कई ताबेदारी वे तो कौं’’ । भूपेन्द्रसिंह एक नम्बर का पियक्कड़। इतने रूपये देखते ही उसकी बांछे खिल गई।
सामने आयी बला सूर्यप्रताप की कुशलता से टल चुकी थी। अब बब्बूड़ी को ले वह निर्विघ्न चुनावी मैदान में उतर गये। यह बब्बूड़ी के जीवन में पहला मौका था जब वह ‘जीपड़े’ में बैठ चुनाव प्रचार पर निकली थी। गवाड़ी गवाड़ी जाकर ‘वोट किन्ने देणो है?’ समझाती। किसी कटाक्ष के प्रत्युत्तर भी वह अपने तरीके से दे आती थी। रोज की घर गृहस्थी, खेतीबाड़ी की जिन्दगी से यह अनुभव अलग था। घर आकर अपने अनुभव भाभीयों को सुनाती- ‘पाणी कठारो तो रोटियां कठै, लुगाई जात वास्ते घणों करड़ों काम है।
‘‘बाईसा आप राज कींकर समभालोगी?’’
‘‘ऐ यालो! कींकर कई, रोज ढ़ोर चौप्पा नीं समभालै कई..विस्तर ही तो सम्भालनो पड़तो वैई।’’ साड़ी मुंह में दबाकर दानी बुर्जग महिलाएं सभी हंस पड़ी।
विपक्ष भी पूरी कमर कस कर मैदान में उतरा था। बब्बूड़ी के सामने प्रत्याशी थी गमेरी कलाल। दोनों बचपन की साथिन चुनावी दंगल में आमने-सामने। पहले पहल आमना सामना हुओ तो खुश खुश मिली। धीरे धीरे माहौल गर्माने लगा। सवर्ण और पिछड़ी जातियों के अलग-अलग खेमे बन गये। दो धड़े हो गये। लोग खुलकर सामने आने लगे। इसका असर प्रत्याशियों पर भी पड़ा। गमेरी और बब्बूड़ी आमने सामने हो जाते तो ‘जिन्दाबाद’ के नारे लगने लग जाते। चुनाव प्रचार में व्यक्तिगत आक्षेप होने लगा। राजनीति के रंग से अब तक अछूती महिलाओं में चैतन्य आ गया था। किसी के सिर पर घास का ‘भारा’ लदा हुआ है तो किसी के सिर पर पानी से भरा ‘बेवड़ा’। यूं तो वह बोझे मर रही होती है पर चुनाव की चर्चा छिड़ते ही वह खड़ी रह जाती, सिर का बोझ भूल जाती। गोबर के हाथ सने हो या राख से बर्तन रगड़नें वाले, हार जीत की अटकले लगने लगती।
चुनाव में आयी इस चेतना से वोटों की गणित गड़बड़ाने लगी। बुजुर्गो के आदेश मानने वाले युवा बागी नजर आते थे। महिलाओं को भी समझाना मुश्किल पड़ रहा था।
इस चुनाव में गांवों के विकास या सिद्धान्तों की बाते तो नगण्य प्राय: थी। प्रतिष्ठा के प्रश्न अड़े हुए थे। टक्कर कांटे की थी। सूर्यप्रतापसिंह कोई ‘रिस्क’ नहीं लेना चाहते थे। रातों रात कारगर उपाय कर डाले। कुछ जातियों से मुफ्त में यात्रा का वायदा हुआ तो कुछ मांस मदिरा से माने।
मतदान की तारीख आ पहुंची। कड़े बंदोवस्तों के बीच मतदान सम्पन्न हुआ। प्रधान की कुर्सी जीतकर बब्बूड़ी ने विजयमाला पहनी। जगह-जगह स्वागत समारोह हुए। वह भीड़ को संबोधित करने लगी-
‘‘सरकार लुगायां ने कुर्सी दीदी। लुगायां घर सम्भालै, छोरा छौरी सम्भालै अबै राज सम्भाली’ई ...गाय बकरिया री गुवार वे के पामण पीर री खातरी, माथे आई पड़िया सगलो करै। अबै आप री सैवा रो मौको मल्यो है तो आपरी परख मांय खरी उतरू’’ कहते हुए वह उसने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए। भीड़ ने ताली बजाई। कभी विद्यालय का मुंह न देखने वाली बब्बूड़ी आज प्रधान बन चुकी थी।
हस्ताक्षर करने वाली इस जनप्रतिनिधी के पंचायत के काम तो उसके पिता की निगरानी में ही पूरे होते थे। उसे कोड आदेश थे कि फंला चपरासी के हाथों भेजे गये कागजों, फाईलों पर ही मंजूरी के हस्ताक्षर करने है। सब कुछ पहले से ही तय, समझाया हुआ चलता। वह तो केवल चिन्हित स्थानों पर हस्ताक्षर करती थी। बाकि मामलों मे वह चुप्पी साध लेती। पिता के ऐसे ही आदेश थे। छ: माह तो सब निर्बाध गति से चलता रहा। विपक्ष अपना पैंतरा चलता तो सूर्यप्रताप उसे ध्वस्त कर देता। उसने अपना खेमा मजबूती से बांध रखा था।
विपक्ष ने अपनी नई चाल चली। उन्होंने भूपेन्द्रसिंह अर्थात चन्द्रकला देवी के पति को अपना मोहरा बनाया। उसे उकसाया और भड़काया कि वह अपनी रूठी पत्नी को मैके से ले आये। उसकी पत्नी प्रधान है। पत्नी के प्रधान होने से जो इज्जत और धन उसे मिलना चाहिये, वह सब उसका ससुर ऐंठ रहा है। फलस्वरूप वह अपनी पत्नी ‘प्रधान’ को मना घर ले आया। अब जो सरकारी मजमा सुसर के यहां लगा रहता था वह उसके द्वार पर रहने लगा। उसकी छाती फूलकर चौड़ी हो गई। उसकी दखल बढ़ने लगी। एक सुबह की बात है-
‘‘दो-तीन कप ‘चा’ बना ला’री’’
बब्बूड़ी चाय लेकर आयी। भूपेन्द्रसिंह ऑफीस के चपरासी के साथ बैठे एक आदमी से बतिया रहा था। यह चाय उसने उन्हीं के लिए बनवायी थी। ‘‘सबको पानी भी पिला और मेरे बूट के पालिस कर दे।’’
‘‘वो जो आज टेण्डर खुलने वाले है उसमें बखतावर का काम हो जाना चाहिये।’’
‘‘पर वो तो एक नम्बर वाले का...’’
‘‘तू चुप रै! समझदार की पूछड़ी। म्हे कैऊं जो कर’’
वह मनमाने तरीके से धन ऐंठने लगा। श्वसुर और उसके बीच टकराहट होने लगी। सूर्यप्रताप ने पैतरा खेला। भूपेन्द्रसिंह इतना दक्ष खिलाड़ी तो था नहीं। कहीं न कहीं मात खानी ही थी। वह उलझन में पड़ गया। घर आकर उसने सारी झल्लाहट अपनी पत्नी पर निकाली -
‘‘थ्हे ट्रांसफर री लिस्टा में धांधली क्यूं कीदी?’’
‘‘म्हने तो दाता होकम कियो। मैं वणाने पूछया बगैर नी करूं।’’
‘‘जूता खाणा वै तो जबान लड़ावजै..’’
‘‘नै करूं...नै करूं...कई कर लेइ..?’’
तभी भूपेन्दzसिंह ने उसकी चोटी खींच एक लात जमा दी।
ड्राईवर हो या बाबू, चपरासी हो या अफसर, उसकी बात न मनाने पर वह सबके सामने ही गाली गलौच करता या झापड़ रसीद कर देता। रोज-रोज की ठुकाई और अपमान से घबराकर वह फिर पिता के पास लौट आयी।
वह अस्वस्थ रहने लगी। उसे अंदेशा होने लगा तो डाक्टरी परीक्षण करवाया। उसका संदेह ठीक निकला। वह गर्भवती है। जब पिता को मालूम चला तो मानो उन पर गाज गिर गई। प्रधान का पद हाथ से जाता दिखा। चुनाव में रूपया पानी की तरह बहा था। अभी तो खेत भी गिरवी पड़े है। बैठे बिठाये ये मुसीबत कहां से आ पड़ी। तीसरी संतान होते ही बब्बूड़ी को इस्तीफा देना पड़ेगा। नया कानून ही ऐसा आया है।
बब्बूड़ी की शहर के प्राईवेट अस्पताल में जांच हुई। बच्चा तो ठीक था पर उसका ब्लड प्रेशर कम था। डाक्टरनी ने गर्भपात नहीं कराने की सलाह दी।
सूर्यप्रतापसिंह माथा पकड़कर बैठ गये। अब क्या हो? उन्होंने बेटी से पूछवाया तो पता चला वह भी गर्भपात के विरोध में थी। उसके दो बेटे थे और अब बेटी की आस उसके मन में पलने लगी थी। सूर्यप्रताप धर्मसंकट में फंस गये। एक तरफ प्रधान की दावेदारी जाती है दूसरी तरफ बेटी की जान। उसकी मर्जी के बिना गर्भपात कराना भी मुश्किल है। ये बाते छुपाये नहीं छुपती, कहीं विपक्ष या इसके पति को पता चल गया तो? समस्या एक नहीं कई खड़ी हो जायेगी। आखिर निर्णय तो लेना ही था। उन्होंने पत्नी की मदद ली और समझाबुझाकर बड़ी गोपनीयता से काम को अंजाम दिया गया। कागजों में पीलिये का केस बताया गया।
अस्पताल में बब्बूड़ी पीली पंजर पड़ी हुई थी। मानो शरीर का सारा रक्त ही निचुड़ गया हो। उसके पिता के पास मिलने वाले कई परिचित आते, हालचाल पूछते। फूलों का गुलदस्ता लिए विधायक महोदय आये -
‘‘अब कैसी है प्रधानजी?’
‘प्रधानजी’ उसे लगा जैसे किसी ने घौंसा मार दिया हो। ‘भाड़ में जाय प्रधान की कुर्सी वह बिलबिला उठी। जैसे ही बब्बूड़ी ने बोलने को मुंह खोला, पिता ने कहा -
‘‘तू चुप रह! आराम कर’’ और उसने अपने होठ मजबूती से ‘सी’ लिए।