Sunhare Pal

Saturday, July 31, 2010

बेटी की सगाई पर



बेटी की सगाई पर
पगलाया मन
बर्फ की चादर हटा
खिल आये यादों के सुमन
सुधारस पगी
मन की फांकों
से टपकने लगा
शहतूती रस
अमृत घोलती
वाणी का मिठास
बोलने लगा था यूं
कहो-
दोगी जीवनभर साथ
कशोर वय को
कुंआरे मन को
सगाई की रस्म में
अगूंठी की परिधि से टांकना
या था हाईवे से
पगडण्डी का ये इशारा
अठ्ठाईस बरस पीछे
छूटा था जो समंदर
आज फिर
नई गहराई को नाप रहा
‘जीवनसाथी’ शब्दार्थ की
किश्ती को ‘ताप’ रहा
जीवनभर का साथ
संकल्पों से भरा
यह अनूठा विश्वास
कहो- दोगे जीवनभर साथ ?

Monday, July 26, 2010

माटी का रंग 3



कहानी का अंतिम भाग:

दोनो स्त्रियों को इस तरह रोते बिलखते देख हाहाकार मच गया।
कुछ ही देर बाद सिकन्दर और विक्रम कच्छे पहने भीगे हुए नंगे बदन सामने खड़े थे। दोनो ने अपने अपने बच्चों को छाती से चिपटा लिया और बेहताश चूमते हुए दीवानों की तरह रोती जा रही थी।
‘‘मेरे लाल!....’’
‘‘मेरे नूर!....’’ दोनो माताएं डसूके भरने लगी।
‘‘ये दोनो आपके बच्चे है....? बड़े साहसी बच्चे हैं। इतने बच्चों में केवल ये ही तैरना जानते थे। इन्होंने ही अपनी जान पर खेलकर डूबते बच्चों को बचाया है।’’
गुलनारा और शारदा को शिक्षक की बात पर एकाएक विश्वास नहीं हुआ।
‘‘इन्होंने डूबते बच्चों को बचाया है?’’ दोनों के मुंह से एक साथ निकला।
‘‘हां, केवल तैरना ही नहीं बल्कि यूं कहो दोनो सिद्ध गोताखोर हैं। बाहर से मदद मिले जितने तक तो ये अपनी जान पर खेल गये।’’
दोनो एकटक उन्हें निहारने लगी।
‘‘मम्मी, गुलनारा मौसी ने ही तो सांस रोक पानी में डुबकी लगाना सिखाया था हमें।’’
‘‘और मम्मी शारदा खाला ने ही तो डूबने वालों को बचाना सिखाया था हमें। विपरीत धारा में तैरना हम आप दोनों से ही तो बचपन में सीखे थे।’’
‘‘बचपन की सीख तुम्हे याद है?’’ वे आश्चर्य से बोली।
‘‘हां क्यूं नहीं भला। आप दोनों शायद भूल गई है पर हम नहीं भूले।’’ दोनों एक साथ चिहुंक उठे।
अब वे दोनों एक दूसरे से गिले शिकवे शिकायत करने लगी -
‘‘तू क्यों नहीं बोलती थी मुझ से....? तुझे क्या हुआ था?’’
‘‘मैं नहीं बोली तो क्या हुआ? तू भी तो नहीं बोली थी। झगड़ा तो हिन्दू और मुसलमान के बीच हुआ था। हमारे बीच तो नहीं।’’
‘‘तेरे और मेरे बीच एक ही माटी की गंध थी तो ये बैर कहां से आ बसा?’’
‘‘हम दोनों एक ही माटी की है जिसका रंग हमारे बच्चों में भी उतर आया। फिर बता हम क्यों इत्ते साल जुदा जुदा रही? दोनों आंसुओ से तरबतर चेहरा लिए एक दूसरे से प्रश्न करती हुई पूछती रही थी पर दोनों ही निरूत्तर थी। दोनों के पास तो क्या वहां खड़ी भीड़ के इतने लोगो के पास भी क्या, किसी के पास इस यक्ष प्रश्न का उत्तर नहीं था।

Saturday, July 17, 2010

माटी का रंग 2


‘‘लां कहां है इमली?’’ चिहुंक कर बोली थी गुलनारा
साड़ी के पल्ले में बंधी इमली निकाल कर शारदा ने आधी इमली गुलनारा को दी व आधी मुंह में रख ली। ‘‘जब भी ‘जी’ मचले तो मैं यहीं मुंह में रख लेती हूं।’’
उंई मां! कहती हुई गुलनारा ने एक आंख बंद कर ली। ‘‘बहुत खट्टी है।’’
‘‘पगली कहीं की! इमली खट्टी नहीं तो क्या मीठी होगी।’’
‘‘नमक साथ लाती तो अच्छी लगती।’’
‘‘कल ले आऊंगी।’’
‘‘चल वादा कर हम दोनों यहां मां जायी बहनों की तरह रहेंगी।’’
‘‘वादा लेती हूं, अपने सुख दुख साझी होगे।’’
हुआ भी कुछ वैसा ही। मुस्तफा की जीप में दोनो बारी बारी से अस्पताल पहुंची थी। रमेश के स्टाफ मेम्बर होने का लाभ दोनो को मिला। दोनो के बेटे हुए - सिकन्दर और विक्रमादित्य। बच्चे बड़े हुए। स्कूल जाने लगे। इसके साथ ही समय बहुत बदलाव लाया। गांव छोटे कस्बे में तब्दील हो गया। बिजली आ गई। पानी की टंकी बन गई। टंकी बन जाने से घरों में नल आ गये। नल आ गये तो गुसलखाने बन गये। अब कोई नदी पर नहाने व कपड़े धोने क्यों जाता भला? घर में ही बहुत सारा पानी था। अन्य गांवों की भांति इस क्षेत्र में भी संचार क्रांति हुई। देश विदेश से जुड़ी खबरे यहां भी पहुंचने लगी। घटना कहीं भी घटती, दरवाजे के भिन्न नाम समर्थकों पर अपना पूरा असर दिखाती। नफरत की दीवारे ऊंची खिंचने लगी थी। ऐसा लगने लगा था जैसे एक ही गांव के दो विभाजन हो गये हो। इंसान, इंसान को फूटी आंख नहीं सुहा रहा था। ऐसे में 6 दिसंबर को भारत में एक घटना घटी। जिसने पूरे देश को हिला दिया था और उसके बाद -
एक दिन कस्बे में दंगा हो गया। हिन्दू और मुस्लमान के बीच फैले जहर ने इस कस्बे को भी अपनी चपेट में ले लिया। कुछ दुकाने जला दी गई। सामान लूट लिया गया। कई घायल हुए। किसी का सिर फूटा, किसी का हाथ टूटा तो किसी का पांव। छुरेबाजी व लाठीभाटा जंग दोनो ओर से हुई। बन्दूकों की नाल ने छर्रे भी उगले। एक छर्रा एक जने के सिर पर लगा और उसकी घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई। सरकारी फाइलों में इस गांव को संवेदनशील क्षेत्र आंका गया। गांव में पहली बार कफ्र्यू लगा। सांय सांय करते गांव में पुलिस बल बढ़ा दिया गया। पुलिस गश्त के जूते अंधकार को चीरने लगे।
इतना ही नहीं हुआ बल्कि गुलनारा और शारदा की दोस्ती को भी गzहण लग गया। क्योंकि मुस्तफा की रोजी रोटी का एकमात्र जरिया उसकी जीप दंगों की भेंट चढ़ गई थी। दंगाइयों ने उस पर पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दी थी। अब वो बेरोजगार घूम रहा था। शारदा का पति रमेश हमेशा के लिए लंगड़ा हो गया था। उसकी टांग में छर्रा लगा था। छर्रा सीधा टांग की हड्डी में जा घुसा था। हजारों रूपये इलाज में फूंकने के बाद भी वो लंगड़ा कर चलता था। शारदा और गुलनारा के बीच अबोला हो गया था। इस अबोले का कारण यहीं दंगा था। गुलनारा तमाम हिन्दुओं को दोषी मानती थी और शारदा तमाम मुस्लिम सम्प्रदाय को। बरस गुजर गये पर उनके मनों में पैदा हुआ ये मैल कम नहीं हुआ।
एक दिन स्कूल में खेल प्रतियोगिता हुई। जीते हुए छात्रों को आगे जिला स्तर पर खेलने के लिए स्कूल मिनीबस का इंतजाम हुआ। उस दिन सिकन्दर और विक्रम को भी जाना था। बस बच्चों के इंतजार में खड़ी थी। गुलनारा अपने सिकंदर को और शारदा अपने विक्रम को छोड़ने आयी। दोनों की नजरे चार हुई पर वे मुस्कुरायी भी नहीं। अनजान बनी एक दूसरे को देखा और बात खत्म। जैसे जानती ही नहीं हो। बच्चों से भरी बस रवाना हुई। दोनो ने हाथ हिला हिलाकर बच्चो को अलविदा किया और दोनो ने अपनी अपनी राह पकड़ ली। दोनो की राह जुदा जुदा थी। एक पूरब की ओर तो दूसरी की पश्चिम की ओर।
अभी बस को निकले आधा घंटा भी नहीं गुजरा था कि बदहवास गुलनारा ने अपनी छत से खड़े होकर जोर जोर से शारदा को पुकारना शुरू किया।
‘‘शारदा कहां है तू.....या अल्लाह हम लुट गई.....’’
शारदा दौड़ी दौड़ी छत पर पहुंची। देखा तो गुलनारा अपने होशो हवास में नहीं थी। उसने नजरों ही नजरों में पूछा ‘क्या हुआ?’
दोनो हाथ से छाती पीटती हुई वह फिर बिलख उठी और बड़े ही कातर स्वर में उसका रूदन जारी था - ‘‘ओ मेरे लाल......हमारी गोद उजड़ गई शारदा......हाय! सिकन्दर....’’
‘‘क्या बक रही है तू कुछ होश में है?’’शारदा ने गुलनारा को लताड़ा।
‘‘कुछ सुना तूने....’’ और वो फिर बुक्का फाड़ कर रोने लगी।
‘‘बता भी क्या हुआ है?’’
तब उसने एक ही सांस में पूरा हादसा बयान कर दिया। उनके बच्चों से भरी बस पलटी खा गई और सड़क के किनारे की झील में गिर गई। बच्चे पानी में डूब गये। इतना सुनना था कि शारदा भी जल बिन मीन की भांति तड़प उठी।
‘‘हाय राम! क्या कह रही है तू.......’’और वो भी वहीं जमीन पर बैठ गई और जोर-जोर से हाथ पांव पटक-पटककर रोने लगी। दोनो तरफ भीड़ जमा होने लगी थी। रमेश भी घर पर नहीं था और मुस्तफा भी कहीं बाहर गया हुआ था।
‘‘चल दोनो चलते है।’’ दोनो एक दूसरे को पुकारा और नंगे पैर दौड़ी। रिक्शे में बैठ कर वे एक साथ घटना स्थल पर पहुंची।
वहां लोगों की भीड़ जमा थी। चारों तरफ आफरा-ताफरी मची हुई थी। दोनो हाथ पकड़े हुए भीड़ को चीरती हुई आगे बढ़ी। वहां बच्चों का सामान पड़ा हुआ था।
‘‘ये मेरे सिकंदर के जूते हैं।’’ जूतों को सीने से चिपटाये गुलनारा फूट पड़ी।
‘‘ये कपड़े मेरे विक्रम के है.....’’शारदा कपड़ों को वक्ष से चिपकाये पछाड़ खाने लगी।


क्रमश : अगली पोस्ट में

Wednesday, July 14, 2010

माटी का रंग

‘छपाक!’ की आवाज हुई और कई पानी की बूंदे इधर-उधर, चारों ओर उछल गई। इसके साथ ही वह घूमी और गुस्से से दांत पीसती हुए चीखी - ‘‘कौन है ये बेशरम......?’’
दूसरे ही पल उसकी नजरे पानी के छींटे उड़ाने वाली से मिली और वो स्तब्ध रह गई। उसका मुंह खुला का खुला रह गया। फिर उसके मुंह से फूटा - ‘‘अरी शारदा तू........यहां............?’’
‘‘म्हें भी यही पूछूं हूं, तू यहां कैसे?.........गुलनारा ही नाम है न तेरा।’’ वह इत्मीनान करती हुई पूछने लगी। उसने ‘हां’ में गर्दन हिलायी। दोनों मुस्कुरा उठी।
पहचान में भी एक अपनापन होता है और ये अपनापन उस समय और भी बढ़ जाता है जब एक ही शहर के दो व्यक्ति कहीं अन्यत्र मिलते हैं आने शहर में रहते हुए चाहे वे आपस में कभी न बोले हो पर अन्य जगह की बात ही कुछ ओर है। वहां अपने ही शहर के व्यक्ति को देख कर विश्वास से भरा जो अपनेपन का भाव पैदा होता है उसकी आत्मीयता निराली होती है। जाति, वर्ण, वर्ग, रंग सब भेदभाव भूलकर वे अपने बन जाते हैं। यहां भी यही दृष्टिगोचर हो रहा था। गुलनारा और शारदा एक दूसरे का हाथ पकड़कर वहीं नदी किनारे बने कच्चे घाट पर बैठ गई जैसे कभी गहरी मित्रता रही हो।
बरसात के दिन थे और सरणी नदी पूरे उफान पर थी। चारों तरफ फैली हरीतिमा ने वातावरण को खुशगवार बना दिया था। वहीं घाट के पत्थर पे कपड़े धोती हुई आपस में बतियाने लगी -
‘‘तेरी शादी कब हुई?’’ शारदा ने पूछा।
‘‘पिछले बरस ही और तेरी.....?’’
‘‘पूरे आठ महीने और दस दिन हुए है। तेरा वो क्या करै रे?’’
‘‘ड्राईवर है, जीप चलावै है और तेरा वो....?’’
‘‘अभी कम्पाऊंडरी में पढ़े है.......ऐं गुलनारा, तुझे बच्चा हुआ?’’
नहीं कहकर गुलनारा हंस पड़ी। ‘‘तेरे कुछ है...?’’
उसने ‘ना’ में गर्दन हिलाई और दोनो हंस पड़ी।
‘‘तू भी नीली बट्टी से कपड़े धोवै है?’’
‘‘हां, मेरे उसको यहीं पसंद है।’’ कहते हुए उसने पेंट को पछाड़ना शुरू किया। फलस्वरूप साबुन के झाग मिले पानी के छींटे उड़ने लगे।
‘‘ऐं.......ऐं.....देख छींटे मत उड़ा। ठीक से कपड़े धो। कहीं छींटा लगे, यह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। ये तो तू मेरे शहर की है जो तुझे कुछ नहीं कह रही हूं। अगर तेरी जगह कोई ओर होती तो निगोड़ी की चुटिया पकड़ यहीं पछाड़ देती....।’’
‘‘ऐं.....ऐं.....किसे धमकावै है तू। मुझे कोई ऐसी वैसी डरपोक, कच्ची खिलाड़ी मत समझना। धोबी की बेटी हूं। बरसों से पुरखो ने नैं-नैं घाट पे कपड़े धोये, पछाड़े और निचोड़े हैं। ये तो तू है मेरे पीहर से जो लिहाज कर रही हूं। वरना ससुरी की एक टांग पकड़कर ऐसा घुमाती कि चक्करघिन्नी बनी नजर आती.....’’और हीं-हीं कर हंसने लगी।
‘‘तू धोबी की बेटी है तो मेरी रगों में भी खालिस पठान का खून बहता है। मेरा कब्बड्डी खेलना याद है कि नहीं तुझे? था कोई मेरा जोड़? हमेश कक्षा को जिताया था मैंनें........।’’
‘‘चुप कर। हम ‘अ’ अन्दर और तू ‘ब’ बन्दर थी।’’ कहकर शारदा फिर हंसने लगी। शारदा को हंसता देख गुलनारा को भी हंसी आ गई। ‘‘आगे-आगे बन्दर पीछे-पीछे रामचन्दर’’ दोनों एक साथ बोली। शारदा ने गुलनारा की ओर पानी उछाला तो गुलनारा कहां पीछे रहने वाली थी। उसने भी पानी में जमकर हाथ चलाये और बौछारे शुरू कर दी। फिर तो मानो वे उन्हीं स्कूली दिनों में लौट आयी थी। दोनों एक दूसरे पर पानी उछालती हुई वर्तमान को पीछे धकेल बचपन में लौट आयी। हाथ पकड़कर पानी में ‘डुबकी’ खाने लगी। तैरने लगी कभी सीधी तो कभी उल्टी होकर, पानी में किलौलें करने लगी।
जब वे पानी से बाहर निकली तो एक दूसरे के सिरों पे गीले कपड़ों से भरे तगारे रखने में मदद करने लगी और फिर साथ-साथ चल पड़ी। शारदा का मकान पहले आ गया। गुलनारा ने भी उसकी घर के बाहर बनी चबूतरी पर अपना सिर का बोझ उतार विश्राम लिया।
‘‘आ अंदर आ।’’ शारदा मनुहार करती हुई कहने लगी।
‘‘उं हूं! आज नहीं। तू इतनी कड़वी जुबान की क्यों हैं?’’
‘‘तेरी जुबान में कौन सी गुड़ की डली है?’’
फिर दोनो एक साथ खिलखिला कर हंस पड़ी।
यह सही था कि शारदा और गुलनारा दोनो ही सरकारी स्कूल में, एक ही कक्षा में पढ़ती थी। पर दोनो के ‘सेक्शन’ हमेशा अलग रहे थे। एक अ में थी तो दूसरी ब में। आठवीं तक दोनो साथ-साथ पढ़ी पर शायद ही उनमें कभी बातचीत हुई हो किन्तु यहां आकर उनमें एक अलग सा ही अपनापन पैदा हो गया। जिसका कारण था दोनो का एक ही शहर का होना। ससुराल का गांव चाहे छोटा था किन्तु यहां वो अपनापन किसी के साथ नहीं जुड़ पाया था जो शारदा को गुलनारा में और गुलनारा को शारदा में मिला था। उनकी प्रगाढ़ता समय के साथ बढ़ने लगी।
यह भी संयोग की बात थी कि दोनो के मकान के पिछवाड़े की छत मिलती थी। जब वे काम निपट जाती तो एक दूसरे को छत पर ककंरी डाल चलने का इशारा कर देती थी। वे साथ-साथ कपड़े धोने व नहाने आती। यहां नदी किनारे जो स्वतंत्रता उन्हें मिलती थी वह पिछवाड़े के पड़ौसी होने के बावजूद भी नहीं थी। पहले जी भर के वे चंगा-बित्तू खेलती फिर कपड़े धोती और नहाती थी।
जहां दोनों कपड़े धोती व नहाती थी वो त्रिवेणी संगम का किनारा था। बेड़ावल के जंगलों से जो बूढ़ी नदी बहकर आती थी। यहीं आकर लोड़ी नदी से मिल जाती थी। यहां आकर नदी का पाट कुछ चौड़ा हो जाता था और उसके बहाव की रफ़्तार भी धीमी हो जाती थी। दोनो नदियों का पानी जब मिलकर आगे बढ़ता था तो वे सरणी नदी कहलाती थी। इसी सरणी के किनारे किनारे आबादी बसी हुई थी। एक ओर मुस्लिम बहुल आबादी थी तो दूसरी ओर हिन्दु बहुल। दोनों आबादी को विभाजित करता बीच में सीना ताने खड़ा था - खंडित, जर्जर एक प्राचीन दरवाजा। इस दरवाजे के जर्जर कंगूरे देख सहज ही अनुमान लगया जा सकता था कि ये कभी बेहद सुन्दर रहा होगा। प्राचीन वास्तु शिल्प के साक्षी इस दरवाजे की प्राचीर के एक भाग में मजार थी और दूसरे भाग के छोटे आलिये में हनुमान मूर्ति। उपेक्षित पड़े इस मजार और मूर्ति को कोई नहीं पूछता था।
समय बदला तो बहुत कुछ बदला। ‘इस दरवाजे का जीर्णोद्धार हो’ इस पर पूरा गांव एकमत था। बस उनमें केवल उसके नाम को लेकर मतभेद था। मुसलमान अपनी पसंद का नाम देना चाहते थे जबकि हिन्दू अपनी पसंद का। दोनो समुदाय में इस बात को लेकर जब तब उलझन लगी रहती थी। कुछ समझदार लोग ये भी समझाते थे कि नाम में क्या रखा है, ये तो पुरखों की धरोहर है इस का नाम इस गांव के नाम पर या नदी के नाम पर रख दो। पर कुछ स्वार्थी लोग शान्ति रहे ऐसा कहां चाहते थे। अवसर आने पर भड़काते रहते थे।
इधर हिन्दू सर्मथकों ने दरवाजा पुनर्उद्धार की एक समिति बना ली। रातों रात गांव के उस सिरे पर भी मिटिंग हुई और मुस्लिम समर्थकों की कमेटी गठित हो गई। दोनो पक्ष कार्यवाही करने लगे। सरकार ने मौका मुआयना करने एक दल भेजना तय किया।
इसके बाद रातों रात मजार पर हरी चादर चढ़ गई। लाल गुलाब और मोगरे के फूल सज गये। जलती हुई अगरबत्ती की धूप वातावरण में फैलने लगी। इसके दो रोज बाद ही हनुमान भक्तों को इस टूटे खण्डहर वीरान पड़े उपेक्षित हनुमान लल्ला की याद हो आयी। अब यहां भी पूजा, धूपबत्ती, दीपक, सिन्दूर-मालीपन्ना, फूलमाला चढ़ने लगी। धीरे-धीरे दोनो ओर भक्तों की संख्या बढ़ने लगी। मंगलवार रामबोले हनुमान के यहां भीड़ जुटती थी तो शुक्रवार सुल्तान हाजी पीर की मजार पर। हरी लाल ध्वजाएं हवा में लहराने लगी तो इसके साथ ही भीड़ भी बढ़ने लगी। अब कुछ फूल वाली मालिने भी अपने टोकरे लिए यहां बैठने लगी। कभी कभार मूंगफली वाले, चाट पकौड़ी के थैले वाले थी यहां आने लगे। पान के केबिन का ढ़ांचा भी खड़ा हो गया है और तो और अब तो यहां उर्स भी भरने लगा। हनुमान जयन्ती मनने लगी। अन्नकूट पर भोग भी लगने लगा।
दरवाजे के उस पार और इस पार का तनाव दिनों दिन पैर पसारता जा रहा था। इन सब से बेखबर त्रिवेणी संगम पर गुलनारा और शारदा की दोस्ती परवान चढ़ती जा रही थी। उनके चंगा-बित्तू खेलने के दिन अब लद चुके थे। अब तो उनकी गोद जीते जागते खिलौनो से भरने वाली थी।
‘‘दो दिन से तू आज आयी है?’’
‘‘क्या करूं जी मचलता है। कुछ अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘इमली खायेगी?’’
क्रमश : अगली पोस्ट में