Sunhare Pal

Saturday, July 17, 2010

माटी का रंग 2


‘‘लां कहां है इमली?’’ चिहुंक कर बोली थी गुलनारा
साड़ी के पल्ले में बंधी इमली निकाल कर शारदा ने आधी इमली गुलनारा को दी व आधी मुंह में रख ली। ‘‘जब भी ‘जी’ मचले तो मैं यहीं मुंह में रख लेती हूं।’’
उंई मां! कहती हुई गुलनारा ने एक आंख बंद कर ली। ‘‘बहुत खट्टी है।’’
‘‘पगली कहीं की! इमली खट्टी नहीं तो क्या मीठी होगी।’’
‘‘नमक साथ लाती तो अच्छी लगती।’’
‘‘कल ले आऊंगी।’’
‘‘चल वादा कर हम दोनों यहां मां जायी बहनों की तरह रहेंगी।’’
‘‘वादा लेती हूं, अपने सुख दुख साझी होगे।’’
हुआ भी कुछ वैसा ही। मुस्तफा की जीप में दोनो बारी बारी से अस्पताल पहुंची थी। रमेश के स्टाफ मेम्बर होने का लाभ दोनो को मिला। दोनो के बेटे हुए - सिकन्दर और विक्रमादित्य। बच्चे बड़े हुए। स्कूल जाने लगे। इसके साथ ही समय बहुत बदलाव लाया। गांव छोटे कस्बे में तब्दील हो गया। बिजली आ गई। पानी की टंकी बन गई। टंकी बन जाने से घरों में नल आ गये। नल आ गये तो गुसलखाने बन गये। अब कोई नदी पर नहाने व कपड़े धोने क्यों जाता भला? घर में ही बहुत सारा पानी था। अन्य गांवों की भांति इस क्षेत्र में भी संचार क्रांति हुई। देश विदेश से जुड़ी खबरे यहां भी पहुंचने लगी। घटना कहीं भी घटती, दरवाजे के भिन्न नाम समर्थकों पर अपना पूरा असर दिखाती। नफरत की दीवारे ऊंची खिंचने लगी थी। ऐसा लगने लगा था जैसे एक ही गांव के दो विभाजन हो गये हो। इंसान, इंसान को फूटी आंख नहीं सुहा रहा था। ऐसे में 6 दिसंबर को भारत में एक घटना घटी। जिसने पूरे देश को हिला दिया था और उसके बाद -
एक दिन कस्बे में दंगा हो गया। हिन्दू और मुस्लमान के बीच फैले जहर ने इस कस्बे को भी अपनी चपेट में ले लिया। कुछ दुकाने जला दी गई। सामान लूट लिया गया। कई घायल हुए। किसी का सिर फूटा, किसी का हाथ टूटा तो किसी का पांव। छुरेबाजी व लाठीभाटा जंग दोनो ओर से हुई। बन्दूकों की नाल ने छर्रे भी उगले। एक छर्रा एक जने के सिर पर लगा और उसकी घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई। सरकारी फाइलों में इस गांव को संवेदनशील क्षेत्र आंका गया। गांव में पहली बार कफ्र्यू लगा। सांय सांय करते गांव में पुलिस बल बढ़ा दिया गया। पुलिस गश्त के जूते अंधकार को चीरने लगे।
इतना ही नहीं हुआ बल्कि गुलनारा और शारदा की दोस्ती को भी गzहण लग गया। क्योंकि मुस्तफा की रोजी रोटी का एकमात्र जरिया उसकी जीप दंगों की भेंट चढ़ गई थी। दंगाइयों ने उस पर पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दी थी। अब वो बेरोजगार घूम रहा था। शारदा का पति रमेश हमेशा के लिए लंगड़ा हो गया था। उसकी टांग में छर्रा लगा था। छर्रा सीधा टांग की हड्डी में जा घुसा था। हजारों रूपये इलाज में फूंकने के बाद भी वो लंगड़ा कर चलता था। शारदा और गुलनारा के बीच अबोला हो गया था। इस अबोले का कारण यहीं दंगा था। गुलनारा तमाम हिन्दुओं को दोषी मानती थी और शारदा तमाम मुस्लिम सम्प्रदाय को। बरस गुजर गये पर उनके मनों में पैदा हुआ ये मैल कम नहीं हुआ।
एक दिन स्कूल में खेल प्रतियोगिता हुई। जीते हुए छात्रों को आगे जिला स्तर पर खेलने के लिए स्कूल मिनीबस का इंतजाम हुआ। उस दिन सिकन्दर और विक्रम को भी जाना था। बस बच्चों के इंतजार में खड़ी थी। गुलनारा अपने सिकंदर को और शारदा अपने विक्रम को छोड़ने आयी। दोनों की नजरे चार हुई पर वे मुस्कुरायी भी नहीं। अनजान बनी एक दूसरे को देखा और बात खत्म। जैसे जानती ही नहीं हो। बच्चों से भरी बस रवाना हुई। दोनो ने हाथ हिला हिलाकर बच्चो को अलविदा किया और दोनो ने अपनी अपनी राह पकड़ ली। दोनो की राह जुदा जुदा थी। एक पूरब की ओर तो दूसरी की पश्चिम की ओर।
अभी बस को निकले आधा घंटा भी नहीं गुजरा था कि बदहवास गुलनारा ने अपनी छत से खड़े होकर जोर जोर से शारदा को पुकारना शुरू किया।
‘‘शारदा कहां है तू.....या अल्लाह हम लुट गई.....’’
शारदा दौड़ी दौड़ी छत पर पहुंची। देखा तो गुलनारा अपने होशो हवास में नहीं थी। उसने नजरों ही नजरों में पूछा ‘क्या हुआ?’
दोनो हाथ से छाती पीटती हुई वह फिर बिलख उठी और बड़े ही कातर स्वर में उसका रूदन जारी था - ‘‘ओ मेरे लाल......हमारी गोद उजड़ गई शारदा......हाय! सिकन्दर....’’
‘‘क्या बक रही है तू कुछ होश में है?’’शारदा ने गुलनारा को लताड़ा।
‘‘कुछ सुना तूने....’’ और वो फिर बुक्का फाड़ कर रोने लगी।
‘‘बता भी क्या हुआ है?’’
तब उसने एक ही सांस में पूरा हादसा बयान कर दिया। उनके बच्चों से भरी बस पलटी खा गई और सड़क के किनारे की झील में गिर गई। बच्चे पानी में डूब गये। इतना सुनना था कि शारदा भी जल बिन मीन की भांति तड़प उठी।
‘‘हाय राम! क्या कह रही है तू.......’’और वो भी वहीं जमीन पर बैठ गई और जोर-जोर से हाथ पांव पटक-पटककर रोने लगी। दोनो तरफ भीड़ जमा होने लगी थी। रमेश भी घर पर नहीं था और मुस्तफा भी कहीं बाहर गया हुआ था।
‘‘चल दोनो चलते है।’’ दोनो एक दूसरे को पुकारा और नंगे पैर दौड़ी। रिक्शे में बैठ कर वे एक साथ घटना स्थल पर पहुंची।
वहां लोगों की भीड़ जमा थी। चारों तरफ आफरा-ताफरी मची हुई थी। दोनो हाथ पकड़े हुए भीड़ को चीरती हुई आगे बढ़ी। वहां बच्चों का सामान पड़ा हुआ था।
‘‘ये मेरे सिकंदर के जूते हैं।’’ जूतों को सीने से चिपटाये गुलनारा फूट पड़ी।
‘‘ये कपड़े मेरे विक्रम के है.....’’शारदा कपड़ों को वक्ष से चिपकाये पछाड़ खाने लगी।


क्रमश : अगली पोस्ट में

1 comment:

Ramesh said...

I read your all stories.I am wondering how you perform this work.What a nice work You did in literature world.We have proud on you.