Sunhare Pal

Thursday, December 9, 2010

घर, धर्मशाला हो गए

सुबह जब
निन्नी ने आंखें खोली
नौकरी के पाश में बंधी
मां चढ़ चुकी थी किसी द्रुतगामिनी में
पापा की गोद
डस चुकी है उनकी पदौन्नती
अब वह नहीं रहते यहां
शनिवार इतवार के है वे मेहमां
दादी, फूफी सभी
तो मुसाफिर हैं यहां
टेबिल पर सजे
बस्ता, टिफिन और वॉटर बोतल की तरह
रैन बसेरा लेकर
चल पड़ते है सुबह
तभी टेम्पो का भोंपू
चौकस करता है निन्नी को
बॉय-बॉय करती है निन्नी
बेजान दीवारों को
उसके बाद
दिनभर ऊंघता है घर
शाम फिर
मां आती है / रसोई जाग जाती है
निन्नी आती है / आंगन चहक उठता है
भैया आता है / टी.वी. मुस्कुराता है
हर शनिवार इतवार
मुसाफिरखाना बना घर
फिर घर हो जाता है
जो दो दिन बाद
सन्नाटे में खो जाता है
मां चली जाती है
पापा चले जाते है
दादी-फूफी-भैया
सभी चले जाते है
फिर निन्नी को भी
जाना होता है

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