Sunhare Pal

Tuesday, September 22, 2009

आरोह - अवरोह
मेरी आंखों से झर झर आंसू झर रहे थे। मुझसे उनकी ये हालत देखी नहीं जा रही थी। उन्हें सांस लेने में काफी तकलीफ हो रही थी। फिर उपर से ये खांसी का दौरा, खांसते-खांसते तो मानो प्राण ही निकल जायेंगे। वह बेदम सी हुई जा रही थी। ‘हे भगवान! इन्हें जल्दी ठीक कर दे’ मन ही मन मैं बार-बार यही गुहार लगाती हुई उनकी पसलियों पर विक्स की मालिश कर रही थी। मालिश के बाद मैंने उन्हें खांसी की दवा दी। आराम होने में कुछ समय लगा। उन्हें आराम मिला तो नींद भी आ गई।
मैंने झुककर देखा, क्या वह सो चुकी है? ‘हां ’शायद’ मैं उठने के लिए हिली तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया- ‘कहां जा रही हो?’ उनकी आंखों में ये प्रश्न चमक रहा था और साथ ही चेहरे पर खुदा हुआ आदेश भी- ‘यहीं रहो, मुझे छोड़कर मत जाओ’ और मैं उनके पास बैठकर फिर से उनकी छाती को सहलाने लगी।
सोयी हुई भी वह ममता की मूर्ति नजर आ रही थी। खुद तकलीफ देख लेती पर मुझे किसी प्रकार की तकलीफ हो यह उन्हे गंवारा न था। आगे बढ़कर गृहस्थी की चक्की में जुत जाती। भोर सवेरे से ही उठकर वह कई काम सलटा देती। मैं उठती तो सामने उनकी बनाई हुई गरमा-गरम चाय होती। मुझे चाय पिलाते समय एक सन्तुष्टि का भाव उनके चेहरे पर तैरता मिलता। मुझे भूख कब लगती है इसकी घड़ी भी उनके पास ही होती। सुबह नौ बजते ही दूध के लिए उनकी पुकार सुनाई पड़ जाती। एक बार की आवाज पर जब सुनवायी नहीं होती तो वह दूसरी बार बुलाती और तीसरी बार में तो वह खुद देने पहुंच जाती। तब बड़ा दुख होता, ‘‘आप क्यूं आयी, जीना चढ़कर ऊपर ? आपकी तबीयत ज्यादा खराब हो जायेगी तब ?
वह हंसकर कहती, ‘‘अब मर भी जाऊं तो कोई दुख नहीं, तुम आ गई हो न अब घर संभालने। अब मैं चैन से मर सकती हूं।’’
‘‘आप हमेशा मरने की बात क्यूं करती है ?’’ कहते हुए मेरी हथेली उनके मुंह को ढ़क देती। ‘‘कभी सोचा आपने, आपके जाने के बाद मेरा क्या होगा ? मैं तो आपके बिना एक पल जीने की सोच भी नहीं सकती।’’
‘‘पगली हो तुम!’’
‘‘नहीं मैं सच कह रही हूं। आपकी छाया सदैव मुझ पर बनी रहे।’’ मैं उनसे लिपट जाती और वो भावविभोर हो मेरी पीठ सहलाने लगती।
‘‘आप जल्दी अच्छी हो जाओगी।’’ और वाकई में ऐसा हुआ भी। मेरी शादी के बाद वह बहुत खुश रहने लगी थी और स्वस्थ भी। किन्तु जब कभी फिर पुरानी बिमारी उभर आती तो उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ता।
अब तो वह अस्पताल भी मेरे बिना नहीं जाती, कहती थी- ‘‘तुम आओगी मेरे साथ। तुम डॉक्टर को ठीक से बता पाओगी और उसकी कही बात को भी तुम्हें ही समझना है।’’ उनकी बात ठीक भी थी। 24 घंटे उनके साथ रहते हुए उनकी बिमारी को मैं काफी अच्छी तरह समझने लगी थी। उन्हें हर वो हिदायत देती व उस बात से दूर रखने का हर संभव प्रयत्न करती जो उनकी बिमारी का कारक बनता। दवाई के मामले में तो मैं बेहद गंभीर थी। एक खुराक भी भूले से नहीं चूकती ताकि पुरानी बिमारी दबी रहे, उभरने न पाये।
खुशहाल समय पंख लगाकर गुजरता जा रहा था। अब तो उनकी गोद में पोते-पोती खेलने लगे थे। वे बड़ी प्रसन्न थी। उन्हें तो उम्मीद नहीं थी कि वह इतना सबकुछ अपनी आंखों से देखेंगी। ‘ये सुख भी नसीब ने लिखा है’, अपनी आस से भी अधिक पाकर धीरे-धीरे वह अपनी बिमारी को भूलने लगी।
बच्चे उन्हीं के पास सोते उनकी अगल-बगल में लिपटे हुए। उनमें आपस की लड़ाई होती, ‘दादी के पास कौन सोयगा?’ दादी को तंग करते हमारी तरफ मुंह करके सोओ। वह जिधर मुंह करती पीठ की तरफ वाला बच्चा नाराज हो जाता और रोने लगता। मजबूरन उन्हें सीधा लेटना पड़ता। बच्चों का कब्जा ऐसा दादी पर की उन्हें नींद आने पर ही वह करवट ले पाती। कभी-कभी तो वह झिड़कते हुए सबको दूर करते हुए कहती, ‘‘मेरे मुंह के पास न आओ, कहीं मेरी बिमारी तुम्हें ना लग जाये।
बच्चे छोटे थे तो वह गोदी में उठाये उन्हें अपने साथ मंदिर ले जाती। घर से निकले बच्चे और उधमी हो जाते। इधर उधर दौड़ा-दाड़ी करते। कुछ नहीं तो शू-शू ही कर देते। ऐसे में बेचारी की बन आती और दूसरों को उन्हें नसीहत देने का अवसर मिल जाता। इस सबसे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। उनका वात्सल्य तो मानो गहरा समुद्र वह बच्चों को खुद से ऐसे चिपका लेती जैसे कोई उनसे उनके बच्चे पृथक कर रहा हो। बच्चे बड़े हुए तो उनके प्रेम का स्वरूप बदल गया। उनकी पसंद से टिफन बनाना, स्कूल तक टिफन पहुंचाना, उनके टीचर से निजी तौर पर मिलना, अनेक हिदायतो का देना इन सबके बीच नई पौध यौवन की दहलीज के पार पहुंच गयी।
वह समय भी आया जब उनकी पोती की सगाई हुई। पोती के दामाद को देखकर वह निहाल हो गई। नसीब में इतना सुख भी छिपा है अपनी दुर्दांत बिमारी के चलते ऐसा उन्होंने सोचा भी न था। खुश हुई वह अपने नये दामाद के आगे पीछे डोलने लगी। उनके पांवों में यौवन सी शक्ति आ गई। स्फूर्त हुई वह पेट के रास्ते दामाद पर अपना नेह लुटाने लगी। उनकी पाककला अपने चरम पर पहुंच गई।
पोती की शादी में मन का सारा उल्लास फूट पड़ा। सामथ्र्य से अधिक श्रम करके उन्होंने हर अवसर को संवारा। उनके पारंगत तरीके और अनुभव चरम पर जा पहुंचे। नतीजन जर्जर देह पर पुरानी बिमारी भारी पड़ने लगी। वह फिर बिस्तर के अधीन होकर रह गई।
उनकी तामीरदारी करने वालों की संख्या अब बढ़ गई थी। अच्छे से अच्छे डॉक्टर, अच्छी से अच्छी दवाई और भरपूर इलाज से कुछ दिन का सुधार तो हुआ पर अब उनका काम करना मुश्किल हो गया। शरीर की शक्ति चुक गई। बैठे रहना उन्हे रास नहीं आता। यह स्थिति उन्हें खिजाने लगी। ऊपर से रोटी के कौर उनके गले में फंसने लगे।
दिनों दिन हालत बदतर होती जा रही थी। एक रोटी खा पाना भी मुश्किल होता जा रहा था उनके लिए। रोटी सब्जी में चूरकर खाना, दलिया-खिचड़ी खाना उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं रहा। पेट की श्रुधा का हल रोटी ही था जिसे वह खा नही पा रही थी। वह रोटी से नाराज होने लगी, क्रोधित होने लगी। कभी थाली को तो कभी रोटी को पटकने लगी- ‘‘यह रोटी मुझे दुश्मन की तरह लग रही है। ले जाओ इसे सामने से। ये सामने आती है तो मुझे चिढ़ आती है।’’ मन दुखी होता, हम सब बेबस और लाचार से उन्हें समझाने का प्रयास करते तो वह फूट-फूटकर रो पड़ती।
‘‘तुम क्या सोचते हो? मुझे खाने की इच्छा नहीं होती? पर मेरा कंठ देखो, सिकुड़ गया लगता है। पानी के साथ जबरन उतारते हुए बहुत तकलीफ होती है।’’
‘‘आप कुछ दलिया या....’’ बात अधूरी ही रह जाती। उस बूढ़े और बिमारी जिस्म में न जाने कहां से इतना तैश समा जाता कि वह इन सबका नाम लेने ही नहीं देती। फिर खुद ही फूट पड़ती- ‘‘मैं कहती हूं कि जिसकी रोटी छूटी उसका घर छूटा।’’
‘‘आप बेकार की बात न करा करें।’’ मेरी आंखे भीग उठती। अभी पिछली दफा ही डॉक्टर ने कहा था- ‘‘यह कुछ दिनों की मेहमान है। दोनों फैफड़े खत्म हो चुके है। लीवर और ह्रदय संक्रमित हो चुका है। आंतो में सूजन है अब इलाज लगना मुश्किल है। इनकी सेवा करो।’’
डॉक्टर की बात सुनकर मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ। ऐसा कैसे हो सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। बरसो से इन्हें बिमार देख रही हूं। कुछ दिन बाद यह फिर ठीक हो जायेंगी। अभी इनको और जीना है हम सबके लिए। इनके बिना जीने की बात मेरी बर्दाश्त के बाहर थी। उनका इलाज चालू रहा। डॉक्टर बदल गये। दवाईयां बदल गई तो परिणाम भी सुखद निकला। एक बार फिर उनकी जीवन गाड़ी ढ़र्रे पर आ गई।
कुछ समय तो ठीक से गुजरा किन्तु थोड़े समय बाद वह फिर बिस्तर की होकर रह गई। फिर से उनका खाना-पीना मुहाल हो गया। एक एक अंग उनका साथ छोड़ने लगा था। वह धीरे-धीरे मौत की ओर बढ़ रही थी। मैंने अपने आपको इतना असहाय कभी नहीं पाया। उन्हें एक पल भी छोड़ना और उनके लिये मौत की बात भी सोचना मेरे लिए असá था।किन्तु वह थी कि हिदायते देने लगी। मुझे समझाने लगी- ‘‘देखो, तुम गंगाजल व तुलसी मेरे मुंह में रखना, साथ में गंगामाटी भी। मुझे मोक्ष मिले। मेरी काया को गति मिले। मेरे मरने के बाद तुम्हें क्या-क्या करना होगा, तुम ध्यान से सुन लो। फिर तुम्हें कौन बतायेगा?’’
और मैं?..... हंसकर टाल जाती उनकी इन बातों को। ‘‘आप अच्छा-अच्छा सोचो। आप नहीं मरेंगी। आपको जीना होगा हमारे लिए। आप जल्दी ठीक होने की सोचो।’’ मैं उनका विश्वास बढ़ाने की सोचती और खुद भी विश्वस्त होने की कोशिश करती।
तीन दिन हो गये, अन्न का एक दाना भी उनके मुंह में नहीं गया। किसी तरह का जूस देकर उनकी खांसी को बढ़ाना था। सूप या मूंग की दाल का पानी उन्हें पसन्द नही। उनका पसंदीदा पेय चाय के बस घूंट दो घूंट, यहीं उनके हलक से उतर रहे थे।
आज गणगौर का त्यौहार था। उन्होंने हमें पूजा करने जाने का आंखों से ही आदेश दिया। वो अब इतनी नि:शक्त हो चुकी थी कि शब्दों को मुंह से ठेल भी नहीं पा रही थी। कुछ अस्फुट स्वर ही उनके मुंह से निकल रहे थे।
मैंने पूजा के लिए विशेषतौर से गोटा लगी चुनर पहनी। ‘मुझे इसमें सजी देखकर वह बहुत खुश होगी।’ ऐसा मेरा अनुभवभरा जीवन रहा है। पूजा करने जाने से पहले मैं उन्हें दिखाने गई, ‘‘देखो मां! तुम्हारी बहू कैसी लग रही है?’’ उनकी आंखे भावना शून्य थी। प्रेम रस से सरोबर आंखे आज सूनी सूनी थी। मुझे आश्चर्य हुआ मोह का सेतु कैसे टूट सकता है? ‘मोह रखने वाली ये आंखे आज इतनी निर्मोही कैसे हो गई?’
बाहर सड़क पर बहुत शोरगुल था। ढ़ोल नगारे बज रहे थे। गणगौर की सवारी अपने पूरे यौवन पर थी। इधर वह बेदम हुई जा रही थी। पास बैठी हुई मैं मन ही मन कामना कर रही थी कि ये एक बार, बस एक बार ठीक हो जाये। तभी उन्होंने इशारा किया। हाथ से गोलाई खींचते हुए हाथ मुंह की ओर ले गई। मैं तत्काल समझ गई। वह रोटी मांग रही है। मैं उठी और एक गरम, घी से चुपड़ी नरम रोटी ले आयी। ताकि वे खा सके। मैंने कौर तोड़कर उनके मुंह में डाला। उन्होंने कौर को मुंह में घुमाया, चबाया पर वो निगल नहीं सकी। कौर गले में ही अटक गया। वो उलझ गई। खांसी का दौर उठा तो रोटी का कौर बाहर था। वह खांसते-खांसते बेदम होकर लुढ़क गई।
अनायास ही मेरे हाथ उपर की ओर उठ गये, ‘‘ हे भगवान! अब इन्हें मुक्ति दे। इनकी ये हालत मुझसे नहीं देखी जा रही।’’ उसी क्षण कहीं भीतर कुछ चटका। मेरी अरदास थी या मोह के सेतु का टूटना। पंछी पिंजरा छोड़कर उड़ गया। मेरे हाथों से उनकी नब्ज खिसकती चली गई और आंखें फटी की फटी रह गई। जिन्हें बंद करते हुए मैं अपराधबोध से बोझिल हुई जा रही थी-
‘ये मुझे क्या हो गया था? मैं क्यों बदल गई? हमेशा ईश्वर से मैंने इनके लिए जीवन मांगा आज मौत कैसे मांग ली। ये क्या हो गया था मुझे? मैं ऐसे कैसे बदल गई? क्या मैं बड़ी हो गई?

Saturday, September 19, 2009

दिव्यलोक


दिव्यलोक
मेरे पति को ब्रेन ट्यूमर हो गया था। खबर सुन मैं सकते में आ गई। मेरा तो रो रोकर बुरा हाल हो गया। खाना पीना छूटने के साथ हर वक्त की दुश्चिंताओं ने मुझे चिड़चिड़ा बना दिया। ब्रेन ट्यूमर अर्थात सिर के भीतर गांठ। रिपोर्ट देख डॉक्टर बोले- ‘‘इसका तुरंत इलाज कराना होगा। वर्ना यह जानलेवा हो सकता है।’’ गांठ की भी जांच होगी और यदि गांठ कैंसर की हुई तो.....सोचकर ही मेरा रोंया-रोंया कांप उठा।
अभी समय ही कितना हुआ है हमारे विवाह को - मात्र तीन साल। सोनल, एक साल की बेटी है हमारी। आलोक का था अपना स्टूडियो। खूब मेहनत करते, दिन-रात काम में जुटे रहते। शादी के सीजन में तो फोटोग्राफी के लिये रात-रात जागकर काम करते। दूर दराज के इलाकों में भी जाते। उत्सवों में तो उन्हें भोजन के लिये भी वक्त नहीं मिलता। हर महत्वपूर्ण क्षण को फोटो में कैद करने से नहीं चूकते। तस्वीरे भी इतनी शानदार और जानदार बनती कि लोग इनके खींचे फोटुओं की प्रशंसा करते नहीं अघाते। एडवांस बुकिंग कराते। कुल मिलाकर आलोक का बहुत अच्छा काम और नाम था। लिहाजा आमदनी भी अच्छी होती थी। हम बहुत खुश थे। जीवन अच्छा बीत रहा था पर अचानक यह बीमारी हम पर बिजली बनकर गिरी।
हमारी सुखी जिन्दगी क्या सबकुछ तो बिखर गया। बीमारी बढ़ जाने की हालत यह हुई कि एक दिन स्टूडियो पर ताला लग गया। रोज-रोज अस्पतालों के चक्कर, मंहगी जांच-दवाइयां। इलाज पर पैसा पानी की तरह खर्च होने लगा और पैसे की आवक खत्म हो जाने से हमारा हाथ तंग होने लगा। ऐसे में कौन मदद करता? किससे कहूं? कैसे कहूं ? कोई आय नहीं। फलस्वरूप मेरे गहने एक-एक कर बिकने लगे। हालत की गम्भीरता को देखते हुए ऑपरेशन तो कराना ही था।
बम्बई के बड़े अस्पताल में आलोक का ऑपरेशन हुआ और गांठ निकाली गई। खर्चा तो बहुत हुआ पर इलाज सफल हुआ और यह ठीक होकर घर आ गये। परीक्षा की घड़ी गुजर चुकी है यह सोच मैंने राहत की सांस ली। परन्तु राहत कहां? मेरे जीवन की मुख्य परीक्षा तो अब थी- इनकी देखरेख के साथ मंहगी दवाओं का खर्च सामने था। फिर हर थोड़े समय बाद डॉक्टरी चैकअप जांच इन सबके लिये भी तो पैसा चाहिये। इतने पैसे कहां से लाऊं? हर समय यहीं उधेड़बुन मुझे खाये जाती। वह उठने बैठने जरूर लगे थे पर काम तो नहीं कर सकते थे। जिससे दो पैसे की आय होती। सिगरेट पीने की लत तो उन्हें शुरू से थी ही। अब फालतू समय गुजारने के लिये वह फिर हावी हो गई। अब तो बैठे ठाले गुटखे की जुगाली करने लगे जो और नुकसानदेह थी। कुछ भी हो पर मुझे उनकी सेहत का ध्यान रखना जरूरी था। मैं गुटखे के पाऊच छिपा देती या फेंक देती। सोचती यह जल्दी स्वस्थ हो जाय तो काम करना शुरू करें और घर आर्थिक तंगी से उबर पाये। परन्तु कहां, इनकी तबीयत तो दिनपर दिन गिरती जा रही थी। अब तो मेरा धैर्य भी चुकने लगा। मेरी भी हिम्मत जवाब दे रही थी। इनके न सिर्फ हाथ पैर कमजोर हो गये थे बल्कि अब तो दिखाई भी कम देने लगा था। लोग दबे छिपे स्वर में कहने लगे थे अब तो यह नहीं बचेगा। यह सुन मैं तो बिल्कुल पस्त, निढ़ाल हो जाती। मुझे अपनी और नन्ही बेटी सुरभि की चिंता सताने लगती- मेरा क्या होगा? मेरी बेटी का क्या होगा? अब तो मैं सारे वक्त यहीं सोचने लगी थी।
मैंने बहुत सोचने के बाद निर्णय लिया कि अब कमाई के लिये मुझे ही कुछ करना होगा। कहीं न कहीं कोई नौकरी ही मिल जाय। पर कोई सम्मानजनक नौकरी भी तो पूरी पढ़ाई के बाद मिलती है। मेरी पढ़ाई पूरी कहां से होती? उन्नीस वर्ष की आयु में ही विवाह हो गया था। पिता का घर छूटा तो पढ़ाई भी छूट गई। नये जीवन में प्रवेश के बाद न इन्होंने और न मैंने कभी अधूरी छूटी पढ़ाई पूरी करने की सोची। जीवन में पूरी खुशहाली थी। कभी बुरे दिन भी आयेंगे और आड़े वक्त पढ़ाई ही स्वावलम्बन में हमारा सहारा बनेगी तब ऐसा कहां सोचा। आज आधी अधूरी पढ़ाई के दम पर कोई काम मिलेगा? बहुत कम आशा थी। मैंने फैसला लिया- मैं अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करूंगी। पढ़लिख जाने से ही कोई नौकरी मिल पायेगी। इस बारे में मैंने अपने श्वसुर जी से बात की। बाबूजी तो कुछ न बोले पर आलोक ने प्रश्न किया-
‘‘पढ़ाई का खर्चा कहां से आयेगा?’’
पर बाबूजी ने कहा- ‘‘बहू पढ़ना चाहती है तो पढ़े। मुझे कोई आपत्ति नहीं किंतु आजकल पढ़ लिख कर भी नौकरी नहीं मिलती। कहीं छोटी मोटी प्राईवेट नौकरी तो अभी भी की जा सकती है। मैं किसी विद्यालय या संस्था में बात कर सकता हूं। काम करते हुए भी यह अपनी पढ़ाई पूरी कर सकती है।
‘‘पर बाबूजी एक बार तो पैसे चाहिये। फीस, फार्म, किताबों के पैसे कहां से जुटाएंगे। एक धेला तो हैं नहीं हाथ में। वो तो आपकी पेंशन न आती हो तो खाने के लाले पड़ जाये। मेरा कमाया हुआ तो सारा फुंक चुका है इलाज में।’’
‘‘तुम चिंता मत करो। मैं खर्च करूंगा।’’ बाबूजी ने हिम्मत बढ़ाई तो मैं पढ़ने लगी। कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना भी शुरू किया। घर बाहर का काम, छोटी बच्ची, और फिर ट्यूशन पढ़ाना। इन सब में मैं इतनी खप जाती थी कि पढ़ती थी तो कुछ याद ही नहीं होता। समझ में नहीं आता था। दिन भर के परिश्रम के बाद रात को किताब सामने आते ही नींद के झोंके आने लगते। आलोक को भी अब पहले जितना समय नहीं दे पाती। कभी दवा लाना भूल जाती तो कभी उधड़े कपड़े सीना। उन्हें लगता कि अब मैं उनकी जानबूझ कर उपेक्षा कर रही हूं। समय न दे पाने के कारण मैं भी हर समय अपराधबोध से घिरी रहती। वे मुझ पर गुस्सा करने लगते। मैं भी दबी-दबी सहने लगी। कभी किसी बात में कोई कसर रह जाती तो वह गाली देने लगते और हाथ उठा देते। चिल्लाते कहते कि अब वह कमाऊ नहीं रहे, उसे बोझ लगने लगे हैं। मैं वाक्य तीरों से घायल हुई अपना पढ़ा हुआ सब भूल जाती और सुबकने लगती। अपनी स्थिति किससे कहूं? क्या कहूं।
एक दिन उषाजी हमारे यहां आयी। उषाजी हमारे पास सामने वाली लाइन में ही रहती है। बहुत अच्छी महिला है। उस दिन इनके थप्पड़ से मन बहुत क्षुब्ध था। उन्होंने दो शब्द सांत्वना के बोले तो मैं रो पड़ी। आंखों में तो मानो सैलाब ही फूट आया था अपनी बेचारगी का। मुझे मां की तरह वह पुचकारने लगी- ‘‘रोती क्यों है? रोने से क्या होगा? सब समय एकसा नहीं होता। बुरा वक्त भी गुजर जायेगा। तुम्हारे अच्छे दिन भी लौटेंगे।’’
‘‘पर कब और कैसे?’’ मैं फिर सुबक उठी।
‘‘अरे पगली! चुप हो। औरत के अंदर बहुत ताकत होती है। वह चाहे तो सबकुछ बदल सकती हैं। सबकुछ संभाल सकती हैं। तुम अपनी ताकत को पहचानो। बहुत कुछ कर सकती हो।’’ मुझे लगा जैसे मेरी दिवंगत मां बोल रही हो। उनके दुलार की उष्णता से मैं पिघली जा रही थी। फिर सिसकते हुए पूछने लगी-
‘‘पर कैसे? क्या मैं कुछ काम नहीं कर रही हूं? क्या कमी रखी है मैंने? अब और कितना कर सकती हूं भला। रोज तिल तिल कर जी नहीं बल्कि मर रही हूं।’’
वे काफी देर तक मुझे समझाती रही। दिलासा देती रही। बहते आंसू पौंछती रही। उनके जाने के बाद मैंने अपने आपको बहुत हल्का महसूस किया। लम्बे समय बाद मैं बहुत हल्का महसूस कर रही थी। मां जैसा ममत्व पाकर मैंने मन ही मन प्रण किया अब मैं कभी नहीं रोऊंगी। अपनी, बेटी की और पति की ताकत बनूंगी।
वह दिन बहुत अच्छा सुहावना था। रिमझिम बारिश हो रही थी। ट्यूशन के लिये बच्चे नहीं आ पायेंगे। सोचा आलोक के कपड़ों की अलमारी ही जमा दूं। काफी समय से संभाल नहीं पा रही थी। मैंने आलोक के कपड़े निकालने के लिये अलमारी खोली। कपड़े निकालने लगी। देखा, एक कोने में उनका कैमरा पड़ा है। मैंने उसे छुआ ‘मेरे पति का अनमोल साथी’ फिर उठाकर बाहर निकाल चूम लिया। देखा उस पर धूल जमी हुई है। यह देख मेरा मन भर आया। मैं आंचल से उसे पौंछने लगी। मेरी अंगुलिया कैमरे को सहला रही थी। बहुत साथ दिया इसने आलोक का। इसके साथ से हमारा जीवन कितना सुखमय था पर अब यह निकम्मा हो गया है। पर इसे निकम्मा क्यों कह रही हूं तत्क्षण ही विपरीत ख्याल आया। बेकार तो इसका मालिक हुआ है यह तो अभी भी पूरी मुस्तैदी से अपना कमाल दिखा सकता हैं। चाहो तो अभी आजमा लो। चमकता हुआ कैमरा मुस्करा पड़ा- क्या सोच रही हो दिव्या ? मैं सच कह रहा हूं। तुम चाहो तो मैं आज भी तुम्हारा साथ निभा सकता हूं।’ दमकते कैमरे की इस अपील से एकाएक मेरे हाथों में स्पन्दन सा महसूस हुआ। एक नवीन विचार मेरे मन में कौंधा। तत्काल ही मैं कैमरा लेकर आलोक के पास पहुंची। हुलसती हुई बोली- ‘‘इससे कैसे तस्वीर खींचते है, मुझे बताओ।’’
लम्बे समय बाद अपना कैमरा देख आलोक भी बिस्तर पर उठ बैठे। उन्होंने कैमरे को पकड़ा। आंख के पास ले जाते हुए उनके उठे हाथ धूजने लगे। मैंने आलोक को संभाला। ‘‘मुझे बताओ क्या करना है?’’ पर वह चुप पड़े रहे और उन्होंने अपनी आंखे मूंद ली। बंद आंखों की कोर से दो मोती ढुलक पड़े जिसे मैंने नीचे नहीं गिरने दिया और बीच में ही उन्हें अपने आंचल में झेल लिया। उस दिन मैंने तय कर लिया पढ़ाई के साथ फोटो खींचना भी सीखूंगी।
ट्यूशन के पहले रूपये मिले- एक सौ पचास रूपये। मेरी पहली कमाई। गाढ़ी कमाई। मेरी नजरों में अनमोल राशि। मन में खुशी के कई कुसुम खिल पड़े। मैंने आंखे मूंद ली। मन सुरभित हो उठा। पांवों में अनोखी दृढ़ता का संचार होने लगा। मन का विश्वास कुलांचे भरने लगा। कई इन्द्रधनुषी सपने आंखों में लहराने लगे-
‘बहुत कुछ किया जा सकता है। सिर्फ थोड़ासा हौंसला चाहिये।’ ताकत बटोर मैंने आंखे खोली। हथेली में पड़ा सौ और पचास का नोट गडिडयों का आकार लेने लगा। मैंने कसकर नोट मुट्ठी में बंद कर लिये। लगभग पांच मिनिट बाद मुझे ध्यान आया कि ये पुकार रहे है। जाकर देखा ये बाथरूम में भीगे खड़े तौलिये के लिये पुकार रहे है। सिर के बालों से पानी की बूंदे टपटप चूं रही थी। किसी बालक की तरह वे आंखे झपझपा रहे थे। उनकी दुर्बल देह सिकुड़ी हुई ठिठुर रही थी। आलोक का ये हाल देख मुझे जाने क्या हुआ कि मैं जाकर तरू लता सी उनके वक्ष से लिपट गई और किसी पुष्पित बेलसी उनसे लिपटी हुई उनके हाथों में अपनी पहली कमाई धर दी।
‘‘यह क्या देवू?’’ वह चौंके।
‘‘ट्यूशन वाला बच्चा दे गया।’’ उनके वक्ष पर अपना सिर टिकाकर मैंने कहां।
‘‘अच्छा तो तुम्हारी पहली कमाई है।’’ कहकर इन्होंने मेरे गालों को थपथपा दिया। ‘‘इसके लिये बहुत मेहनत की है तुमने। लो संभालों इन्हें, रूपये भीग जायेंगे।’’ इनकी सराहना, आदर, प्रेम क्या कुछ नहीं था उनके शब्दों और हावभाव में। मैं तो खिल उठी अपनी इस जीत पर। दृढ़ हो शाम को उषाजी से मिली, ‘‘मैं फोटो खींचना सीखना चाहती हूं।’’
‘‘ये तो तुम्हें आलोक से भला अच्छी तरह और कौन सिखा सकता है।’’ उन्होंने सहजता से कहा। ‘‘आलोक का तो बड़ा नाम रहा है इस क्षेत्र में।’’
‘हां, वो तो है।’ मैंने मन ही मन कहा और गर्दन झुका ली। मैं उठने को हुई तो उषाजी ने अपनी बेटी को पुकारा- ‘‘कुसुम जरा आना तो बेटी। भाभी को जरा कैमरे और तस्वीर के बारे में बता दे।’’उषाजी की बीस वर्षीय मेरी हम उम्र बेटी कुसुम आ खड़ी हुई। उसका परिचय कराते हुये उषाजी बोली- ‘‘ अभी यह जर्नलिज्म की पढ़ाई कर रही है। थोड़ी बहुत फोटोग्राफी के बारे में जानती हैं।’’ फिर कुसुम की ओर मुखातिब हो आदेश दिया- ‘‘जा, भाभी को छत पर ले जा और वहीं उन्हें फोटोग्राफी सिखाना।’’
उनकी बेटी कुसुम ने मुझे कैमरे की प्राथमिक जानकारी देते हुए इस कला की कई बारीक बाते भी समझायी। मैंने उसके कहे अनुसार इधर उधर के फोटो खींचे। पहली रील धुली। परिणाम सामने था। कुछ आधे अधूरे तो कुछ हल्की, धुंधली या फिर गहरी तस्वीरें आयी। उनसे सबक ले मैं आगे का सबक सीखने में जुट गई। काम सीखने की ललक रंग लायी। मैंने आलोक को इस बारे में अभी तक कुछ नहीं बताया था। मैं आलोक का स्टूडियो दुबारा खोलना चाहती थी और इसके लिये पहली स्वीकृति मुझे बाबूजी की चाहिये थी। मैंने बाबूजी से बात की- ‘‘मैं आलोक के स्टूडियो को खोलना चाहती हूं। उनका काम फिर से शुरू करना चाहती हूं। घर की हालत तो आप जानते ही हैं। स्टूडियो का फिर से खुलना बहुत जरूरी है।’’ मैंने जोर देकर अपनी बात कही।
‘‘पर बेटी आलोक तो अब कुछ कर नहीं सकता। स्टूडियो पर काम कौन करेगा?’’
‘‘मैं करूंगी।’’
‘‘तुम?’’
‘‘हां मैंने कुछ-कुछ फोटोग्राफी सीख ली है और कुछ काम करते करते सीख जाऊंगी।’’ क्षणभर तक वह मेरे आत्मविश्वास को तोलते रहे। फिर बोले - बहू यह छोटी जगह है। तुम काम करोगी तो लोग क्या कहेंगे?’’
मैंने उन्हें विश्वास दिलाया- ‘‘बाबूजी आप मुझे एक बार मौका दें। मैं शिकायत का कोई मौका नहीं दूंगी।’’
बाबूजी से इजाजत लेकर मैंने पति का स्टूडियो खोल तो लिया पर दिनभर फालतू बैठी रहती। एक भी ग्राहक नहीं आता। लोगों को मुझपर विश्वास जो नहीं था। मेरा विश्वास डगमगाने लगा लेकिन मैं हारना नहीं चाहती थी। मुझे विश्वास था एक दिन जरूर स्थिति में परिवर्तन होगा। महिला होने के नाते लोग मुझे इस पेशे में स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। पर मुझे दिखाना है कि मैं भी अच्छे फोटो खींच सकती हूं। आखिर एक दिन एक दसवीं का छात्र मेरे स्टूडियो में आया। उसे परीक्षा फार्म में फोटो लगाना था। दूसरी जगह भीड़ लगी हुई थी। उसे काम जल्दी चाहिये था। मेरा पहला ग्राहक था अत: मैंने उसकी एक नहीं दो तस्वीरे खींचकर दे दी। वह खुश हो गया। प्रफ्फुलित हुआ वह अपने अन्य साथियों को भी ले आया। मैंने सबको दो दो फोटो खींचकर दे दी। इस तरह मैंने बिना कमाये पहली बार अपने पैसे लगाकर काम शुरू किया।
धीरे-धीरे आसपास गांव के लोग मेरे स्टूडियो आने लगे। कुछ तो स्टूडियो खुला देख आलोक के पुराने ग्राहक भी चले आते पर स्टूडियो में मुझे बैठा देख सकुचा जाते। ऐसे में मेरा व्यवहार बहुत संतुलित होता। मैं उन्हें एक बार मौका देने का आग्रह कर पैसा देने या बाद में देने की बात कहती। लोग फोटो खिंचवाने लगे। महिलाओं का तो मैं कुछ प्रसाधन भी कर देती। प्रसाधन से निखरे उनके फोटो सुन्दर तो आते ही फिर मेरे से उनकी झिझक भी कम होती। कुल मिलाकर काम ठीक ठाक चलने लगा था। घर की स्थिति में कमाई से सुधार आने लगा और लोग भी पुन: इस स्टूडियो को जानने लगेगें। अपने इस दोहरे लाभ से मेरा विश्वास बढ़ने लगा तो अब काम बढ़ाने की ललक भी मन में जागने लगी। मैं स्टूडियो में नये सेट लगवाना चाहती थी। अच्छी ग्राहकी के लिये आकर्षण के लटके झटके तो चाहिये ही और नवीन सज्जा इस पेशे की मांग भी थी। इस चीज को मैं भलीभांति समझ रही थी। मैंने पहले बाबूजी से बात की तो उन्होंने भी खुशी खुशी अपनी इजाजत देते हुए मुझे कहा- ‘बहू तुम जैसा उचित समझो करो। मैं तो अब बूढ़ा हो चला। मेरा भविष्य भी तुम्हारे ही कंधे पर टिका है। उनका अपने प्रति इस विश्वास और आस्था को देख मैं गदगद हो उठी। अब मैंने आलोक से कहा-
‘‘नये सेट लगवाने में मुझे आपकी मदद चाहिये।’’
‘‘देवू मैं क्या मदद कर सकता हूं। मैं तो एक कमजोर और अपाहिज ठहरा जो खुद तुम्हारे पर आश्रित हूं।’’ कहते कहते उनकी आंखे भर आयी और अपनी कमजोरी छिपाने के लिये एक ओर मुंह फेर लिया। यह देख मैंने उन्हें संभाला-
‘‘ऐसा नहीं है। मैंने आपकी कला देखी है। पुराने ग्राहक आपकी बहुत प्रशंसा करते है। आपके रंगों का संयोजन बहुत मोहक है। आपके सेट जीवंत लगते हैं।’’
‘‘अब मैं ठीक से देख भी नहीं सकता। मेरे हाथ, देखो मेरी टांगे कांपती है......अब मैं कुछ काम का नहीं रहा.......तुम जानती हो फिर भी....?’’ आलोक की आंखे बरबस छलछला उठी।
‘‘ऐसा मत कहो। आप मेरी आंखों से देखेगें। आप केवल बतायेंगे और प्रयोग मैं करूंगी। आपको तो केवल मुझे राह दिखानी है। हम साथ-साथ नये प्रयोग करेंगे।’’ उनके दोनों हाथ थामकर मैंने कहा। ये क्षण बहुत भावुक और मेरी परीक्षा के थे। मैंने उन्हें अपने भविष्य और बेटी का वास्ता दिया। उनका हौंसला वापस लौटे अब तो हर पल मेरी यही कोशिश थी। वे ना नुकुर करते रहे। किंतु मैंने ठान ही लिया और एक दिन उन्हें तैयार कर स्टूडियो ले आयी। लम्बे समय बाद अपनी पेढ़ी पर चढ़ते हुए आलोक भावविभोर हुए जा रहे थे।‘‘ अपनी नम आंखों को झपझपाते हुए कहने लगे-
‘‘देवू मैंने कभी नहीं सोचा था कि दुबारा.....मैं तो इसे बीमारी की दुनिया में भूला ही चुका था।’’ अन्दर आकर लहराते सेट को छूकर आलोक ने गद~गद कंठ से कहा। इसके बाद तो समय के मानो पंख लग गये थे। कैसे वक्त तेजी से गुजर रहा था। दिन महीने में बदलते जा रहे थे। आलोक का दवा नियमित लेना, व्यायाम करना और तम्बाकु सिगरेट का छोड़ना उनकी सेहत में सुधार लाने लगा। आंखों की ज्योति भी बढ़ रही थी। सबकुछ अच्छा होने लगा था अब। उनका हंसना बोलना मेरे जीवन में अमृत के समान था। वे फिर काम करने लगे तो मैं निश्चिंत हुई। उस दिन मैं कुछ देर से ही स्टूडियो पहुंची थी। दीपावली का त्यौहार जो आने वाला था। स्टूडियो पहुंच देखा तो आलोक स्टूडियो के नाम का पुराना बोर्ड हटवा रहे थे और नया बोर्ड लगवा रहे थे।
‘‘यह क्या?’’ मैंने पूछा।
उन्होंने हंस कर कहा- ‘‘अपने स्टूडियो को नया नाम दिया है मैंने - ‘‘दिव्यलोक’’ अपनी दिव्या का नया आलोक।

Monday, September 7, 2009