Sunhare Pal

Thursday, December 9, 2010

घर, धर्मशाला हो गए

सुबह जब
निन्नी ने आंखें खोली
नौकरी के पाश में बंधी
मां चढ़ चुकी थी किसी द्रुतगामिनी में
पापा की गोद
डस चुकी है उनकी पदौन्नती
अब वह नहीं रहते यहां
शनिवार इतवार के है वे मेहमां
दादी, फूफी सभी
तो मुसाफिर हैं यहां
टेबिल पर सजे
बस्ता, टिफिन और वॉटर बोतल की तरह
रैन बसेरा लेकर
चल पड़ते है सुबह
तभी टेम्पो का भोंपू
चौकस करता है निन्नी को
बॉय-बॉय करती है निन्नी
बेजान दीवारों को
उसके बाद
दिनभर ऊंघता है घर
शाम फिर
मां आती है / रसोई जाग जाती है
निन्नी आती है / आंगन चहक उठता है
भैया आता है / टी.वी. मुस्कुराता है
हर शनिवार इतवार
मुसाफिरखाना बना घर
फिर घर हो जाता है
जो दो दिन बाद
सन्नाटे में खो जाता है
मां चली जाती है
पापा चले जाते है
दादी-फूफी-भैया
सभी चले जाते है
फिर निन्नी को भी
जाना होता है

Tuesday, October 12, 2010

थोड़ी सी जगह



थोड़ी सी जगह
ठीक पौने बारह बस का समय था और वह बज चुकी थी। बस, बसस्टॉप छोड़ चुकी थी और श्रुति बस अड्डे के बाहर ही बस रूकवा कर अंदर चढ़ गई।
नॉन स्टॉप बस में ठसाठस सवारियां भरी हुई थी। कहीं तिल धरने को जगह नहीं थी। ‘उफ! कपासन तक का लम्बा सफर क्या खड़े खड़े तय करना पड़ेगा ?’ यह ख्याल आते ही श्रुति को झुरझुरी फूट आयी। किसी तरह थोड़ा इधर उधर खिसक कर बस की दोनों सीढ़ी ही चढ़ पायी।
‘‘अरे भैया प्लीज यह सामान ऊपर बर्थ पर रख दो.......आप जरा सा पांव हटाइये ये बैग सीट के नीचे आ जायेगा......हां हां ठीक है.....कोई बात नहीं।’’ अपना सामान व्यवस्थित करवा कर श्रुति ने राहत की सांस ली। ‘समय से पहुंचने की मजबूरी नहीं होती तो क्या मैं इस भीड़ में घुसती?’ मन में उठी कोफ्त पर मजबूरी ने अपनी विवशता जमाई। उसने एक पांव पर वजन डालते हुए दूसरे पांव को थोड़ा रिलेक्स किया। रिलेक्स होने के बाद उसकी निगाहें उस भीड़ भरी बस में बैठने की जगह तलाशने लगी। शायद इस उम्मीद में कि कोई उठकर कहें- ‘आइये आप बैठ जाइये।’ हर चेहरा हर निगाह उसे बेगाना लग रहे था। बैठी सवारियां भीड़ की ओर से बेफिक्र हुई अपने में तल्लीन थी। कोई कागज में लिपटे व्यंजन का आनंद ले रहा था। तो कोई आपस में बतिया रहा था। तो कोई आंखे बंद किये ऊंघने में तल्लीन। काश! वह भी बैठे हुए लोगों की श्रेणी में होती। आंख मूंदती और बेफिक्री का सफर करती।
थककर उसने दूसरे पांव पर वजन डाल पहले को रिलेक्स किया। ‘बड़ी भाग्यशाली हो तुम। चाहे कितनी भी भीड़ हो तुम्हें जगह मिल ही जाती है।’ पति द्वारा की गई उक्त टिप्पणी उसे याद हो आयी। ‘हूं!’ उसने दीर्घ नि:श्वास छोड़ते हुए फिर जगह तलाशनी शुरू कर दी। किन्तु आज पति महोदय की ये टिप्पणी सार्थक होती नजर नहीं आ रही थी। तभी श्रुति की नजर दो की सीट पर बैठे दुर्बल देह वाले वृद्ध स्त्री पुरूष पर गिरी। ‘क्या इनसे जगह मिल सकती है?.....शायद। यदि थोड़ा सा खिसक जाय तो......बस थोड़ासा’ मन में पति की टिप्पणी फिर गूंज उठी। वह उनके चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगी। साफ लग रहा था कि वह श्रुति के किसी अनुनय विनय को नहीं मानने वाले। इनसे जगह मिलनी मुश्किल है। अब...? तभी वृद्धा से श्रुति की निगाहें मिली। मन में एक उपाय कौंधा।
‘‘आप कहां से आ रही है?’’ ऐसे अवसर पर स्वर के मिठास के क्या कहने। निराला ही होता है, सो श्रुति भी सफल हुई। ‘‘चावण्ड से’’ संक्षिप्त ही सही। वृद्धा का प्रत्युत्तर पा श्रुति का मन इस भाव से तरंगति हो उठा कि ये अपने ही गांव की है।
‘‘अच्छा, आप वहां कहां रहती है?’’ श्रुति ने आश्चर्य प्रकट किया। मधुरता बकरार रखते हुए उसने वार्तालाप का सूत्र आगे बढ़ाया- ‘‘क्या, मुझे जानती है आप?’’
उसने इन्कार में गर्दन हिलाते हुए कहा- ‘‘नहीं, मेरा वहां पीहर है और बारह बरस की थी जब ही मेरा ब्याह हो गया था।’’ ओह! निराशा से फिर श्रुति का मन बुझ गया। वृद्ध की खीज भरी कसमसाहट से प्रकट हो रहा था कि वृद्धा के साथ हुई वार्तालाप को वह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। श्रुति के मन ने तेवर बदला। ‘मुझे वृद्ध से बात करनी चाहिये।’
‘‘आप कहां जा रहे हैं?’’
‘‘कपासन’’ उसने लापरवाही भरी घोर उपेक्षा से कहा। इसके बाद संवाद क्रम टूट गया। थोड़ी चुप्पी के बाद श्रुति ने दूसरे पांव को विश्राम देते हुए पहले पर फिर शरीर का वजन लाद दिया।
हिम्मत बटोर श्रुति ने वृद्ध से थोड़ा खिसकने का अनुरोध -‘‘अगर आपको तकलीफ न हो तो जरासा खिसक जाय। थोड़ी सी मेरे लिये भी जगह निकल आयेगी।’’ उसकी आवाज बड़ी मुलायम थी। उसका असर भी हुआ। वृद्ध थोड़ा आगे पीछे हुआ। पर जगह बहुत ही कम निकाली। हार कर श्रुति ने भी वहीं बैठने का फैसला कर लिया। बहुत मुश्किल से अपना आधा वजन मुड़े घुटनों व एड़ी पर डाल वह आड़ी बैठ पायी।
‘‘क्या आप चावण्ड से आ रहे हैं?’’
वृद्ध निरंतर उसकी उपेक्षा बरते हुए था। शायद उसे, उसके इसी आगzह का डर था। उसके प्रश्न पर प्रश्न पूछने पर वह शुष्कता से बोला- ‘‘हां, वहां मेरी ससुराल है।’’
‘‘अच्छा तो आप हमारे गांव के दामाद है।’’ ढ़िठाई से श्रुति ने कुछ अदा से मुस्कुरा कर मस्का मारा- ‘‘किनके यहां है आपकी ससुराल?’’
‘‘अनवर खां के यहां।’’
‘‘अच्छा-अच्छा वहीं न जो मिस्त्री हैं......जिसका एक लड़का दुर्घटना में....उसने यूं ही अंधेरे में तीर फेंका। परन्तु निशाना सही लगा।
‘‘हां वहीं बदनसीब अनवर खां।’’ बूढ़े की आंखें नम हो आई। इधर वृद्धा भी कुछ हिली।
‘‘अच्छा तो आप ये बताये आप करते क्या हैं?’’ उसने बातचीत का रूख पलटा।
‘‘मैं रोडवेज में ड्राईवर रहा बेटी.....ये देखो मेरा पास।’’ उसने स्नेहयुक्त स्वर में कहा और अपना पास निकाल कर श्रुति को बताया। ‘‘इस नौकरी से पहले मैं दरबार के यहां ड्राईवर रहा।’’ और वृद्धा ने वृद्ध को इशारा किया। दोनों कसमसाए तो श्रुति के लिये ठीक जगह निकल आयी। वह थोड़ा ठीक होते बोली- ‘‘ओह! खूब।’’
उसकी सराहना पाकर वृद्ध का व्यवहार शिष्ट व स्नेहिल हो आया- ‘‘आराम से बैठो बेटी।’’
‘‘पूरी उम्र ड्राईवर की सीट पर मजे से बैठने के बाद अब इस तरह भीड़ में धक्के खाते हुए आपको कैसा लगता है? अपने कुछ संस्मरण सुनाइये न!’’ वाणी में मनुहार भरकर बड़ी अदब से उसने आ़ग्रह किया। तो वृद्ध के झुरियों भरे चेहरे पर पूनम की लुनाई फूट आयी। एकाएक वह महत्वपूर्ण हो उठा था, खुद अपनी ही नजरों में। वह इतिहास के पृष्ठों को पलटते हुए पढ़ने लगा। वृद्ध की और श्रुति की बातों से लोगों में भी दिलचस्पी जाग उठी थी। सहयात्री भी जिज्ञासा से सुनने में तल्लीन हो गये। श्रुति अपने मकसद में सफल हो चुकी थी। बूढ़ा चांद खां अर्थात~ वृद्ध अब तक काफी सिमट चुका था और वृद्धा भी सिकुड़ गई थी। श्रुति बेहतर बैठी हुई थी।
वृद्ध उसके शिष्ट अंदाज और सम्मान से सम्मोहित हो चुका था। वृद्ध कह रहा था- ‘‘बेटी, मैंने दोनों जमाने देखें है। ये भी और वो भी। दोनों का नमक खाया है, गलत नहीं कहूंगा......’’ उसके पोपले मुंह से निरंतर उफनता थूंक......टच्च!....सीं.....’’उसके छींटे लगातार श्रुति तक पहुंच रहे थे और वह लगातार थूक के सूक्ष्म कणों को रूमाल से पौंछ रही थी।
इस स्थिति में श्रुति के मन के एक कोने ने उसे धिक्कारा पर उसने सुनी की अनसुनी कर दी। इधर वृद्ध संस्मरण सुना रहा था - और उधर मन अपनी ही उधेड़बुन में लगा था। सुख भोगने का आदी शरीर जब तकलीफ में होता है तो ऐसे में मन की कौन सुनता है। पर मन तो मन है। मन के कोनों में तीखी चोंचे उभर आयी और चंहु ओर से वे तन पर गिद्ध प्रहार करने लगी।
इधर श्रुति के मन में अन्तद्र्वंद मचा हुआ था और उधर वृद्ध अपनी दरबारी नौकरी के संस्मरण सुनाने में तल्लीन था। मानो उसे मन चाही मुराद मिल गई हो। तभी मन ने कुतर्क किया, ‘अरे, बूढ़े से बतियाता ही कौन है? और फिर तुम जैसी पढ़ीलिखी, मॉडर्न.....इसका इतना मान दे रही हो। वह इसकी इज्जत अफजाई नहीं तो और क्या है? फिर आज के युग में तसल्ली से सुनने वाला श्रोता इसे मिलेगा ही कहां?’ मन ने व्यंग्य का तीर खींचा। बूढ़ांे से बात करना, उनका अतीत सुनना अब इतना धैर्य व दिलचस्पी किसे है? कई नये आकर्षणों से जमाना भरा पड़ा है। आजादी की सुकून भरी स्वतंत्रता युक्त सांस लेते कौन भला इस पुराने गुलामी के इतिहास को सुनना पसंद करेगा?’
मन ने फिर कचौटा, ‘अगर बैठने की विवशता नहीं होती तो क्या तुम इस तरह यह सब सहन करती?’ मन के इस प्रश्न के आगे वह निरूत्तर हो उठी। उसने पहलू बदला और अपना मुंह दूसरी ओर घुमा लिया। चूंकि उसके लिये बैठना महत्वपूर्ण था और इसके लिये वृद्ध का लगातार बातों में उलझे रहना नितांत आवश्यक। एक पल वह रूका नहीं कि फिर पीछे खिसक आयेगा और वह मुश्किल में..........
उधर मुंह किये ही उसने उसे फिर कुरेदा, ‘‘अच्छा! ये बताये आपने ड्राइवरी सीखी कहां से?’’ लोग कौतूहल से अब श्रुति को देख रहे थे। वे अपने मन में अब तक यह भ्रम पाल चुके थे कि वह किसी अखबार से रिश्ता रखती हैं। उसका वृद्ध से साक्षात्कार लेने का ढ़ंग दूसरों की नजरों में उसे महत्वपूर्ण बना रहा था। तभी भावुक हुआ एक युवा लड़का उठ खड़ा हुआ, श्रुति के लिये-
‘‘आप यहां बैठिये मेडम।’’ वह बिना अचकचाए, सहजता से उसकी खाली हुई सीट पर काबिज हो गई।
इधर वृद्ध अपना साक्षात्कार बड़ी संजीदगी से दिये जा रहा था जिसे बीच में ही अद्र्धविराम देते हुए उक्त युवक ने श्रुति से प्रश्न किया- ‘‘मेम आप किस अखबार या प्रेस से.....?’’ श्रुति मुस्कुरा दी. क्या बोले? पर चुप भी तो नहीं रहा जा सकता था। ऐसे में एक उपाय उसके जेहन में कौंधा - उसे भी प्रश्न में उलझाने का।
‘‘हां, एक कार्यक्रम की कवरेज करने.......’’आधा सच और आधा झूठ बोलते हुए श्रुति ने उससे भी प्रश्नांे की शुरूआत कर डाली।
‘‘अच्छा इन्टरव्यू लेती हूं मैं?’’ बदले में वह युवक मुस्कुरा दिया। ‘‘क्या करते हो तुम?’’ युवक उसे संजीदगी से बताने लगा- अभी उसने एम.ए. किया है इतिहास में। जॉब ढूंढ़ रहा है। थोड़ा बहुत कम्प्यूटर भी जानता है। छ: माह का डिप्लोमा कर रखा है उसने। घर में अब उसका कमाना बहुत जरूरी हो गया है। अगर श्रुति कोई मदद कर सके तो वह कुछ भी काम कर सकता है।
‘‘अब कपासन कितना दूर है?’’ बात गम्भीर मोड़ लेने लगी थी। अब श्रुति ने बात का रूख बदला।
‘‘बस अब आने ही वाला है बेटी। कुछ देर का और सफर है।’’ जवाब चांद खां ने दिया। श्रुति ने अपना मुख उधर घुमा लिया। इस पर अपनी जिन्दगी का सफरनामा फिर जारी कर दिया-
‘‘एक बार की बात है बेटी जब एक अंग्रेज अफसर दरबार के यहां मेहमान बनकर आया था और मैं गाड़ी चला रहा था। तब हम मुंह
अंधेरे ही शिकार के लिये निकल पडे़ थे। ये अंग्रेज भी....हुआ क्या? कहते हुए उसके बूढ़े मुंह से हंसी गुदगुदा उठी। साथ ही थूक के कई बड़े बगुले हवा में उछल पड़े।
छि: ! श्रुति घिन से खिड़की से बाहर देखने लगी। अब वह आराम से बैठी हुई थी। पूरी जगह में पसर कर। इस आराम के मिलने के बाद बेख्याली जो हावी हुई तो बाहर के भागते प्रक्रति के नजारे उसे मोहक दिखने लगे।
उसकी दृष्टि सूर्य पर केन्द्रित हो गई। वह अस्ताचल की ओर जा रहा था। निरंतर एकटक देखते रहने से वह हरा नजर आने लगा था। बस आसमां में थोड़ी सी जगह के लिये निरंतर घूर्णन करता हुआ।
इधर चांद खा अपने में तल्लीन अब भी अपनी बात जारी रखे हुआ था। उसे लग रहा था जैसे श्रुति अब भी उसकी बात सुन रही हैं।
श्रुति का मुकाम करीब आने लगा था। उधर वह युवा लड़का उसका कोई सम्पर्क सूत्र पाने के लिये अधीर हुआ बोला-
‘‘मेम आपका फोन नंबर....पता....वगैरह...’’और वह जेब में पेन खोजने लगा। तभी एक झटका सा लगा। बस मोड़ घूम रही थी। खड़ी सवारिया संभलने की कवायद करने लगी। अंत में एक धक्का और पीछे देती हुई बस अपने गतंव्य पर जाकर रूक गई। युवक संभलते ही शीघ्रता से बोला- ‘‘शायद पेन कहीं गिर गया है।’’
श्रुति ने उतरते हुए कहा- ‘‘हां.... हां ..... मैं तुम्हें अपना कार्ड भेज दूंगी।’’

Saturday, July 31, 2010

बेटी की सगाई पर



बेटी की सगाई पर
पगलाया मन
बर्फ की चादर हटा
खिल आये यादों के सुमन
सुधारस पगी
मन की फांकों
से टपकने लगा
शहतूती रस
अमृत घोलती
वाणी का मिठास
बोलने लगा था यूं
कहो-
दोगी जीवनभर साथ
कशोर वय को
कुंआरे मन को
सगाई की रस्म में
अगूंठी की परिधि से टांकना
या था हाईवे से
पगडण्डी का ये इशारा
अठ्ठाईस बरस पीछे
छूटा था जो समंदर
आज फिर
नई गहराई को नाप रहा
‘जीवनसाथी’ शब्दार्थ की
किश्ती को ‘ताप’ रहा
जीवनभर का साथ
संकल्पों से भरा
यह अनूठा विश्वास
कहो- दोगे जीवनभर साथ ?

Monday, July 26, 2010

माटी का रंग 3



कहानी का अंतिम भाग:

दोनो स्त्रियों को इस तरह रोते बिलखते देख हाहाकार मच गया।
कुछ ही देर बाद सिकन्दर और विक्रम कच्छे पहने भीगे हुए नंगे बदन सामने खड़े थे। दोनो ने अपने अपने बच्चों को छाती से चिपटा लिया और बेहताश चूमते हुए दीवानों की तरह रोती जा रही थी।
‘‘मेरे लाल!....’’
‘‘मेरे नूर!....’’ दोनो माताएं डसूके भरने लगी।
‘‘ये दोनो आपके बच्चे है....? बड़े साहसी बच्चे हैं। इतने बच्चों में केवल ये ही तैरना जानते थे। इन्होंने ही अपनी जान पर खेलकर डूबते बच्चों को बचाया है।’’
गुलनारा और शारदा को शिक्षक की बात पर एकाएक विश्वास नहीं हुआ।
‘‘इन्होंने डूबते बच्चों को बचाया है?’’ दोनों के मुंह से एक साथ निकला।
‘‘हां, केवल तैरना ही नहीं बल्कि यूं कहो दोनो सिद्ध गोताखोर हैं। बाहर से मदद मिले जितने तक तो ये अपनी जान पर खेल गये।’’
दोनो एकटक उन्हें निहारने लगी।
‘‘मम्मी, गुलनारा मौसी ने ही तो सांस रोक पानी में डुबकी लगाना सिखाया था हमें।’’
‘‘और मम्मी शारदा खाला ने ही तो डूबने वालों को बचाना सिखाया था हमें। विपरीत धारा में तैरना हम आप दोनों से ही तो बचपन में सीखे थे।’’
‘‘बचपन की सीख तुम्हे याद है?’’ वे आश्चर्य से बोली।
‘‘हां क्यूं नहीं भला। आप दोनों शायद भूल गई है पर हम नहीं भूले।’’ दोनों एक साथ चिहुंक उठे।
अब वे दोनों एक दूसरे से गिले शिकवे शिकायत करने लगी -
‘‘तू क्यों नहीं बोलती थी मुझ से....? तुझे क्या हुआ था?’’
‘‘मैं नहीं बोली तो क्या हुआ? तू भी तो नहीं बोली थी। झगड़ा तो हिन्दू और मुसलमान के बीच हुआ था। हमारे बीच तो नहीं।’’
‘‘तेरे और मेरे बीच एक ही माटी की गंध थी तो ये बैर कहां से आ बसा?’’
‘‘हम दोनों एक ही माटी की है जिसका रंग हमारे बच्चों में भी उतर आया। फिर बता हम क्यों इत्ते साल जुदा जुदा रही? दोनों आंसुओ से तरबतर चेहरा लिए एक दूसरे से प्रश्न करती हुई पूछती रही थी पर दोनों ही निरूत्तर थी। दोनों के पास तो क्या वहां खड़ी भीड़ के इतने लोगो के पास भी क्या, किसी के पास इस यक्ष प्रश्न का उत्तर नहीं था।

Saturday, July 17, 2010

माटी का रंग 2


‘‘लां कहां है इमली?’’ चिहुंक कर बोली थी गुलनारा
साड़ी के पल्ले में बंधी इमली निकाल कर शारदा ने आधी इमली गुलनारा को दी व आधी मुंह में रख ली। ‘‘जब भी ‘जी’ मचले तो मैं यहीं मुंह में रख लेती हूं।’’
उंई मां! कहती हुई गुलनारा ने एक आंख बंद कर ली। ‘‘बहुत खट्टी है।’’
‘‘पगली कहीं की! इमली खट्टी नहीं तो क्या मीठी होगी।’’
‘‘नमक साथ लाती तो अच्छी लगती।’’
‘‘कल ले आऊंगी।’’
‘‘चल वादा कर हम दोनों यहां मां जायी बहनों की तरह रहेंगी।’’
‘‘वादा लेती हूं, अपने सुख दुख साझी होगे।’’
हुआ भी कुछ वैसा ही। मुस्तफा की जीप में दोनो बारी बारी से अस्पताल पहुंची थी। रमेश के स्टाफ मेम्बर होने का लाभ दोनो को मिला। दोनो के बेटे हुए - सिकन्दर और विक्रमादित्य। बच्चे बड़े हुए। स्कूल जाने लगे। इसके साथ ही समय बहुत बदलाव लाया। गांव छोटे कस्बे में तब्दील हो गया। बिजली आ गई। पानी की टंकी बन गई। टंकी बन जाने से घरों में नल आ गये। नल आ गये तो गुसलखाने बन गये। अब कोई नदी पर नहाने व कपड़े धोने क्यों जाता भला? घर में ही बहुत सारा पानी था। अन्य गांवों की भांति इस क्षेत्र में भी संचार क्रांति हुई। देश विदेश से जुड़ी खबरे यहां भी पहुंचने लगी। घटना कहीं भी घटती, दरवाजे के भिन्न नाम समर्थकों पर अपना पूरा असर दिखाती। नफरत की दीवारे ऊंची खिंचने लगी थी। ऐसा लगने लगा था जैसे एक ही गांव के दो विभाजन हो गये हो। इंसान, इंसान को फूटी आंख नहीं सुहा रहा था। ऐसे में 6 दिसंबर को भारत में एक घटना घटी। जिसने पूरे देश को हिला दिया था और उसके बाद -
एक दिन कस्बे में दंगा हो गया। हिन्दू और मुस्लमान के बीच फैले जहर ने इस कस्बे को भी अपनी चपेट में ले लिया। कुछ दुकाने जला दी गई। सामान लूट लिया गया। कई घायल हुए। किसी का सिर फूटा, किसी का हाथ टूटा तो किसी का पांव। छुरेबाजी व लाठीभाटा जंग दोनो ओर से हुई। बन्दूकों की नाल ने छर्रे भी उगले। एक छर्रा एक जने के सिर पर लगा और उसकी घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई। सरकारी फाइलों में इस गांव को संवेदनशील क्षेत्र आंका गया। गांव में पहली बार कफ्र्यू लगा। सांय सांय करते गांव में पुलिस बल बढ़ा दिया गया। पुलिस गश्त के जूते अंधकार को चीरने लगे।
इतना ही नहीं हुआ बल्कि गुलनारा और शारदा की दोस्ती को भी गzहण लग गया। क्योंकि मुस्तफा की रोजी रोटी का एकमात्र जरिया उसकी जीप दंगों की भेंट चढ़ गई थी। दंगाइयों ने उस पर पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दी थी। अब वो बेरोजगार घूम रहा था। शारदा का पति रमेश हमेशा के लिए लंगड़ा हो गया था। उसकी टांग में छर्रा लगा था। छर्रा सीधा टांग की हड्डी में जा घुसा था। हजारों रूपये इलाज में फूंकने के बाद भी वो लंगड़ा कर चलता था। शारदा और गुलनारा के बीच अबोला हो गया था। इस अबोले का कारण यहीं दंगा था। गुलनारा तमाम हिन्दुओं को दोषी मानती थी और शारदा तमाम मुस्लिम सम्प्रदाय को। बरस गुजर गये पर उनके मनों में पैदा हुआ ये मैल कम नहीं हुआ।
एक दिन स्कूल में खेल प्रतियोगिता हुई। जीते हुए छात्रों को आगे जिला स्तर पर खेलने के लिए स्कूल मिनीबस का इंतजाम हुआ। उस दिन सिकन्दर और विक्रम को भी जाना था। बस बच्चों के इंतजार में खड़ी थी। गुलनारा अपने सिकंदर को और शारदा अपने विक्रम को छोड़ने आयी। दोनों की नजरे चार हुई पर वे मुस्कुरायी भी नहीं। अनजान बनी एक दूसरे को देखा और बात खत्म। जैसे जानती ही नहीं हो। बच्चों से भरी बस रवाना हुई। दोनो ने हाथ हिला हिलाकर बच्चो को अलविदा किया और दोनो ने अपनी अपनी राह पकड़ ली। दोनो की राह जुदा जुदा थी। एक पूरब की ओर तो दूसरी की पश्चिम की ओर।
अभी बस को निकले आधा घंटा भी नहीं गुजरा था कि बदहवास गुलनारा ने अपनी छत से खड़े होकर जोर जोर से शारदा को पुकारना शुरू किया।
‘‘शारदा कहां है तू.....या अल्लाह हम लुट गई.....’’
शारदा दौड़ी दौड़ी छत पर पहुंची। देखा तो गुलनारा अपने होशो हवास में नहीं थी। उसने नजरों ही नजरों में पूछा ‘क्या हुआ?’
दोनो हाथ से छाती पीटती हुई वह फिर बिलख उठी और बड़े ही कातर स्वर में उसका रूदन जारी था - ‘‘ओ मेरे लाल......हमारी गोद उजड़ गई शारदा......हाय! सिकन्दर....’’
‘‘क्या बक रही है तू कुछ होश में है?’’शारदा ने गुलनारा को लताड़ा।
‘‘कुछ सुना तूने....’’ और वो फिर बुक्का फाड़ कर रोने लगी।
‘‘बता भी क्या हुआ है?’’
तब उसने एक ही सांस में पूरा हादसा बयान कर दिया। उनके बच्चों से भरी बस पलटी खा गई और सड़क के किनारे की झील में गिर गई। बच्चे पानी में डूब गये। इतना सुनना था कि शारदा भी जल बिन मीन की भांति तड़प उठी।
‘‘हाय राम! क्या कह रही है तू.......’’और वो भी वहीं जमीन पर बैठ गई और जोर-जोर से हाथ पांव पटक-पटककर रोने लगी। दोनो तरफ भीड़ जमा होने लगी थी। रमेश भी घर पर नहीं था और मुस्तफा भी कहीं बाहर गया हुआ था।
‘‘चल दोनो चलते है।’’ दोनो एक दूसरे को पुकारा और नंगे पैर दौड़ी। रिक्शे में बैठ कर वे एक साथ घटना स्थल पर पहुंची।
वहां लोगों की भीड़ जमा थी। चारों तरफ आफरा-ताफरी मची हुई थी। दोनो हाथ पकड़े हुए भीड़ को चीरती हुई आगे बढ़ी। वहां बच्चों का सामान पड़ा हुआ था।
‘‘ये मेरे सिकंदर के जूते हैं।’’ जूतों को सीने से चिपटाये गुलनारा फूट पड़ी।
‘‘ये कपड़े मेरे विक्रम के है.....’’शारदा कपड़ों को वक्ष से चिपकाये पछाड़ खाने लगी।


क्रमश : अगली पोस्ट में

Wednesday, July 14, 2010

माटी का रंग

‘छपाक!’ की आवाज हुई और कई पानी की बूंदे इधर-उधर, चारों ओर उछल गई। इसके साथ ही वह घूमी और गुस्से से दांत पीसती हुए चीखी - ‘‘कौन है ये बेशरम......?’’
दूसरे ही पल उसकी नजरे पानी के छींटे उड़ाने वाली से मिली और वो स्तब्ध रह गई। उसका मुंह खुला का खुला रह गया। फिर उसके मुंह से फूटा - ‘‘अरी शारदा तू........यहां............?’’
‘‘म्हें भी यही पूछूं हूं, तू यहां कैसे?.........गुलनारा ही नाम है न तेरा।’’ वह इत्मीनान करती हुई पूछने लगी। उसने ‘हां’ में गर्दन हिलायी। दोनों मुस्कुरा उठी।
पहचान में भी एक अपनापन होता है और ये अपनापन उस समय और भी बढ़ जाता है जब एक ही शहर के दो व्यक्ति कहीं अन्यत्र मिलते हैं आने शहर में रहते हुए चाहे वे आपस में कभी न बोले हो पर अन्य जगह की बात ही कुछ ओर है। वहां अपने ही शहर के व्यक्ति को देख कर विश्वास से भरा जो अपनेपन का भाव पैदा होता है उसकी आत्मीयता निराली होती है। जाति, वर्ण, वर्ग, रंग सब भेदभाव भूलकर वे अपने बन जाते हैं। यहां भी यही दृष्टिगोचर हो रहा था। गुलनारा और शारदा एक दूसरे का हाथ पकड़कर वहीं नदी किनारे बने कच्चे घाट पर बैठ गई जैसे कभी गहरी मित्रता रही हो।
बरसात के दिन थे और सरणी नदी पूरे उफान पर थी। चारों तरफ फैली हरीतिमा ने वातावरण को खुशगवार बना दिया था। वहीं घाट के पत्थर पे कपड़े धोती हुई आपस में बतियाने लगी -
‘‘तेरी शादी कब हुई?’’ शारदा ने पूछा।
‘‘पिछले बरस ही और तेरी.....?’’
‘‘पूरे आठ महीने और दस दिन हुए है। तेरा वो क्या करै रे?’’
‘‘ड्राईवर है, जीप चलावै है और तेरा वो....?’’
‘‘अभी कम्पाऊंडरी में पढ़े है.......ऐं गुलनारा, तुझे बच्चा हुआ?’’
नहीं कहकर गुलनारा हंस पड़ी। ‘‘तेरे कुछ है...?’’
उसने ‘ना’ में गर्दन हिलाई और दोनो हंस पड़ी।
‘‘तू भी नीली बट्टी से कपड़े धोवै है?’’
‘‘हां, मेरे उसको यहीं पसंद है।’’ कहते हुए उसने पेंट को पछाड़ना शुरू किया। फलस्वरूप साबुन के झाग मिले पानी के छींटे उड़ने लगे।
‘‘ऐं.......ऐं.....देख छींटे मत उड़ा। ठीक से कपड़े धो। कहीं छींटा लगे, यह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। ये तो तू मेरे शहर की है जो तुझे कुछ नहीं कह रही हूं। अगर तेरी जगह कोई ओर होती तो निगोड़ी की चुटिया पकड़ यहीं पछाड़ देती....।’’
‘‘ऐं.....ऐं.....किसे धमकावै है तू। मुझे कोई ऐसी वैसी डरपोक, कच्ची खिलाड़ी मत समझना। धोबी की बेटी हूं। बरसों से पुरखो ने नैं-नैं घाट पे कपड़े धोये, पछाड़े और निचोड़े हैं। ये तो तू है मेरे पीहर से जो लिहाज कर रही हूं। वरना ससुरी की एक टांग पकड़कर ऐसा घुमाती कि चक्करघिन्नी बनी नजर आती.....’’और हीं-हीं कर हंसने लगी।
‘‘तू धोबी की बेटी है तो मेरी रगों में भी खालिस पठान का खून बहता है। मेरा कब्बड्डी खेलना याद है कि नहीं तुझे? था कोई मेरा जोड़? हमेश कक्षा को जिताया था मैंनें........।’’
‘‘चुप कर। हम ‘अ’ अन्दर और तू ‘ब’ बन्दर थी।’’ कहकर शारदा फिर हंसने लगी। शारदा को हंसता देख गुलनारा को भी हंसी आ गई। ‘‘आगे-आगे बन्दर पीछे-पीछे रामचन्दर’’ दोनों एक साथ बोली। शारदा ने गुलनारा की ओर पानी उछाला तो गुलनारा कहां पीछे रहने वाली थी। उसने भी पानी में जमकर हाथ चलाये और बौछारे शुरू कर दी। फिर तो मानो वे उन्हीं स्कूली दिनों में लौट आयी थी। दोनों एक दूसरे पर पानी उछालती हुई वर्तमान को पीछे धकेल बचपन में लौट आयी। हाथ पकड़कर पानी में ‘डुबकी’ खाने लगी। तैरने लगी कभी सीधी तो कभी उल्टी होकर, पानी में किलौलें करने लगी।
जब वे पानी से बाहर निकली तो एक दूसरे के सिरों पे गीले कपड़ों से भरे तगारे रखने में मदद करने लगी और फिर साथ-साथ चल पड़ी। शारदा का मकान पहले आ गया। गुलनारा ने भी उसकी घर के बाहर बनी चबूतरी पर अपना सिर का बोझ उतार विश्राम लिया।
‘‘आ अंदर आ।’’ शारदा मनुहार करती हुई कहने लगी।
‘‘उं हूं! आज नहीं। तू इतनी कड़वी जुबान की क्यों हैं?’’
‘‘तेरी जुबान में कौन सी गुड़ की डली है?’’
फिर दोनो एक साथ खिलखिला कर हंस पड़ी।
यह सही था कि शारदा और गुलनारा दोनो ही सरकारी स्कूल में, एक ही कक्षा में पढ़ती थी। पर दोनो के ‘सेक्शन’ हमेशा अलग रहे थे। एक अ में थी तो दूसरी ब में। आठवीं तक दोनो साथ-साथ पढ़ी पर शायद ही उनमें कभी बातचीत हुई हो किन्तु यहां आकर उनमें एक अलग सा ही अपनापन पैदा हो गया। जिसका कारण था दोनो का एक ही शहर का होना। ससुराल का गांव चाहे छोटा था किन्तु यहां वो अपनापन किसी के साथ नहीं जुड़ पाया था जो शारदा को गुलनारा में और गुलनारा को शारदा में मिला था। उनकी प्रगाढ़ता समय के साथ बढ़ने लगी।
यह भी संयोग की बात थी कि दोनो के मकान के पिछवाड़े की छत मिलती थी। जब वे काम निपट जाती तो एक दूसरे को छत पर ककंरी डाल चलने का इशारा कर देती थी। वे साथ-साथ कपड़े धोने व नहाने आती। यहां नदी किनारे जो स्वतंत्रता उन्हें मिलती थी वह पिछवाड़े के पड़ौसी होने के बावजूद भी नहीं थी। पहले जी भर के वे चंगा-बित्तू खेलती फिर कपड़े धोती और नहाती थी।
जहां दोनों कपड़े धोती व नहाती थी वो त्रिवेणी संगम का किनारा था। बेड़ावल के जंगलों से जो बूढ़ी नदी बहकर आती थी। यहीं आकर लोड़ी नदी से मिल जाती थी। यहां आकर नदी का पाट कुछ चौड़ा हो जाता था और उसके बहाव की रफ़्तार भी धीमी हो जाती थी। दोनो नदियों का पानी जब मिलकर आगे बढ़ता था तो वे सरणी नदी कहलाती थी। इसी सरणी के किनारे किनारे आबादी बसी हुई थी। एक ओर मुस्लिम बहुल आबादी थी तो दूसरी ओर हिन्दु बहुल। दोनों आबादी को विभाजित करता बीच में सीना ताने खड़ा था - खंडित, जर्जर एक प्राचीन दरवाजा। इस दरवाजे के जर्जर कंगूरे देख सहज ही अनुमान लगया जा सकता था कि ये कभी बेहद सुन्दर रहा होगा। प्राचीन वास्तु शिल्प के साक्षी इस दरवाजे की प्राचीर के एक भाग में मजार थी और दूसरे भाग के छोटे आलिये में हनुमान मूर्ति। उपेक्षित पड़े इस मजार और मूर्ति को कोई नहीं पूछता था।
समय बदला तो बहुत कुछ बदला। ‘इस दरवाजे का जीर्णोद्धार हो’ इस पर पूरा गांव एकमत था। बस उनमें केवल उसके नाम को लेकर मतभेद था। मुसलमान अपनी पसंद का नाम देना चाहते थे जबकि हिन्दू अपनी पसंद का। दोनो समुदाय में इस बात को लेकर जब तब उलझन लगी रहती थी। कुछ समझदार लोग ये भी समझाते थे कि नाम में क्या रखा है, ये तो पुरखों की धरोहर है इस का नाम इस गांव के नाम पर या नदी के नाम पर रख दो। पर कुछ स्वार्थी लोग शान्ति रहे ऐसा कहां चाहते थे। अवसर आने पर भड़काते रहते थे।
इधर हिन्दू सर्मथकों ने दरवाजा पुनर्उद्धार की एक समिति बना ली। रातों रात गांव के उस सिरे पर भी मिटिंग हुई और मुस्लिम समर्थकों की कमेटी गठित हो गई। दोनो पक्ष कार्यवाही करने लगे। सरकार ने मौका मुआयना करने एक दल भेजना तय किया।
इसके बाद रातों रात मजार पर हरी चादर चढ़ गई। लाल गुलाब और मोगरे के फूल सज गये। जलती हुई अगरबत्ती की धूप वातावरण में फैलने लगी। इसके दो रोज बाद ही हनुमान भक्तों को इस टूटे खण्डहर वीरान पड़े उपेक्षित हनुमान लल्ला की याद हो आयी। अब यहां भी पूजा, धूपबत्ती, दीपक, सिन्दूर-मालीपन्ना, फूलमाला चढ़ने लगी। धीरे-धीरे दोनो ओर भक्तों की संख्या बढ़ने लगी। मंगलवार रामबोले हनुमान के यहां भीड़ जुटती थी तो शुक्रवार सुल्तान हाजी पीर की मजार पर। हरी लाल ध्वजाएं हवा में लहराने लगी तो इसके साथ ही भीड़ भी बढ़ने लगी। अब कुछ फूल वाली मालिने भी अपने टोकरे लिए यहां बैठने लगी। कभी कभार मूंगफली वाले, चाट पकौड़ी के थैले वाले थी यहां आने लगे। पान के केबिन का ढ़ांचा भी खड़ा हो गया है और तो और अब तो यहां उर्स भी भरने लगा। हनुमान जयन्ती मनने लगी। अन्नकूट पर भोग भी लगने लगा।
दरवाजे के उस पार और इस पार का तनाव दिनों दिन पैर पसारता जा रहा था। इन सब से बेखबर त्रिवेणी संगम पर गुलनारा और शारदा की दोस्ती परवान चढ़ती जा रही थी। उनके चंगा-बित्तू खेलने के दिन अब लद चुके थे। अब तो उनकी गोद जीते जागते खिलौनो से भरने वाली थी।
‘‘दो दिन से तू आज आयी है?’’
‘‘क्या करूं जी मचलता है। कुछ अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘इमली खायेगी?’’
क्रमश : अगली पोस्ट में

Friday, May 28, 2010

जिन्दगी यहां


हर कदम से ताल मिला ले
ऐसी भी आसान नहीं है जिन्दगी यहां
पल पल मरकर भी
जीते है लोग
ऐसी भी लाचार नहीं है जिन्दगी यहां
नफे नुक्सान का हिसाब न मांगे
ऐसी भी बेजुबां नहीं है जिन्दगी यहां
अरे हंसने वालो
सिसक सिसक कर दम तोड़ती
है जिन्दगी यहां
अपनी राते काली कर
महफिल रोशन करती है जिन्दगी यहां
मां बहन बेटी बीबी नहीं
सिर्फ औरत बनकर
बिस्तर की सलवटे
बनती है जिन्दगी यहां

Saturday, May 8, 2010

Mother's Day

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कहां खो गये

जागे थे भाग कभी
बजे ढ़ोल, बंटे बताशे भी
लोरी और पालने के स्वर भी वहीं
फिर आज न जाने वे नन्दलाल कहां खो गये?
मां आज तू नितान्त अकेली हो गई।

नहला धुलाकर
साफ-सुथरे कपड़े पहना
लगा दिये थे तूने काजल के टीके
फिर आज न जाने वो झूलेलाल कहां खो गये ?
मां आज तू नितान्त अकेली हो गई।

कई दौरो में
ऐसा भी इक दौर आया
तब मां मैंने तुझे खूब नचाया था
फिर आज न जाने सारे चुम्बन कहां खो गये?
मां आज तू नितान्त अकेली हो गई।

पुरवाई चली जोरसे
या बिजली ने ली अंगड़ाई
दुबके सिमटे ये उत्पाती पतंगे
फिर आज न जाने किस छोर में कहां खो गये?
मां आज तू नितान्त अकेली हो गई।


टिफन और तरकारी
के ताने बाने बुना करती थी
भोर सवेरे में
फिर आज न जाने वो सितारे कहां खो गये?
मां आज तू नितान्त अकेली हो गई।

सुनो विशाखा की मां
आओ तो दिलावर की अम्मा
सम्बोधन के तार
फिर आज न जाने ढ़ीले कहां से हो गये?
मां आज तू नितान्त अकेली हो गई।

पल्लू में लिपटे
पल्लू छूटे तो दुख सताये
तुझे बिन बताये
फिर आज न जाने वे छैने कहां खो गये?
मां आज तू नितान्त अकेली हो गई।

डांटकर तो कभी
पुचकार कर तूने सिखाये थे
चाहत के सबक
फिर आज न जाने वे सबब कहां खो गये?
मां आज तू नितान्त अकेली हो गई।

झरबेरी हो चाहे
खट्टी-मीठी, तेरी नयनों का मधु
बरसा था दिनरैन
फिर आज न जाने तेरे दीवाने कहां खो गये?
मां आज तू नितान्त अकेली हो गई।


तूने जनी संताने
गूंजे भी थे तेरे घरोंदे
खामोश सदा के लिए
फिर आज न जाने ये वीराने क्यों हो गये?
मां आज तू नितान्त अकेली हो गई।

आंचल को फैलाये
तूने तो ढ़क दिये थे
सबको गिन गिनकर
फिर आज न जाने सभी शावक कहां खो गये?
मां आज तू नितान्त अकेली हो गई।

ना कोस किस्मत को
ना दे कर्मो की दुहाई
जमाने की द्रुत गति में
फिर आज न जाने हम सब कहां खो गये?
मां आज तू नितान्त अकेली हो गई।

Thursday, April 29, 2010

विश्वास


मैं ‘सुसाईड’ कर रही हूं। मैंने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया है। कमरे के सभी खिड़की दरवाजे भीतर से बंद कर दिए है और टी. वी. चालू करके उसकी आवाज तेज कर दी है ताकि बाहर मेरे मम्मी पापा को भी किसी तरह की भनक ना लगे कि मैं क्या करने जा रही हूं। मैंने पंखे से साड़ी बांधकर फांसी का झूला बना लिया है और अब इस पर लटकने वाली हूं। लटकने से पहले सोचा आपसे बात कर लूं ताकि अपने आप को निर्दोष साबित कर सकूं। इसमें मेरा कोई दोष नहीं .......
आपके पास किसी का फोन आये और ये कहे तो? इतना सुनते ही आपके होश उड़ जाते। मेरे साथ भी यही हुआ। घबरा कर मैंने उससे कहा- ‘‘रूको, रूको · · तुम कौन हो?’’
‘‘आपने मुझे पहचाना नही? मैं सुखबीर हूं। उस उस दिन बस में आपसे मिली थी। पाली से जोधपुर के सफर के दौरान और वहीं मैंने आपके फोन नम्बर लिए थे। मुझे पता था कभी न कभी आपके फोन नम्बर मेरे काम आयेंगे। और आज जब मैं मरने जा रही हूं तो केवल आपको ही बताना चाहूंगी कि मैं बिल्कुल निर्दोष हूं। उन्होंने बेवजह मुझ पर शक किया और झूठे, बेबुनियाद आरोप लगाये। उन्होंने......’’
‘‘अरे! सुखबीर बात क्या हुई ?’’ उसकी बात मुझे बीच में काटनी पड़ी।
‘‘कुछ नहीं मेडम, अब मुझसे सहन नहीं होता। मेरी शक्ति चुक चुकी है। अब एक पल भी मैं जीना नहीं चाहती। मेरे बच्चे का कुछ पता नहीं और मेरा सामान......(सिसकी उभरती है उसकी) वे मेरा सारा सामान पैक करके यहां पीहर छोड़ गये है।’’ यह कहकर वह फूट फूटकर रोने लगी।
बड़ी असंमजस थी क्या कहूं? मैंने कहा -‘‘सुनो सुखबीर तुम सबसे पहले अपना फोन बंद करो। मैं तुम्हें फोन लगाती हूं.................. मैं फोन लगा रही हूं। कहते हुए मैंने फोन काट दिया।
मैंने दीर्घ श्वास खींची। देखा, मेरे सिर से पसीना चुह रहा है और दिमाग सुन्न। दिल जोर-जोर से
धड़क रहा था। याद आया वह पल जब मैं पाली से जोधपुर जा रही थी। मेरे पास पानी से भरी बोतल थी। मेरे साथ वाली सीट पर बैठी युवती की गोद में दो-ढ़ाई बर्ष का बच्चा था। वह बार-बार अपनी मां को तंग कर रहा था। मैंने ध्यान दिया बच्चे की पानी की बोतल खाली हो चुकी थी और शायद वह मेरी बोतल से पानी चाहता था। इसके लिए वह बार-बार अपनी मां को कोहनी मार रहा था।
‘‘क्या चाहिए?’’ बात को समझते हुए मैंने बच्चे से पूछा।
मेरे कहने पर वह कुछ बोला तो नही बल्कि रूठता हुआ मां को देखने लगा।
‘‘पानी चाहिए?’’ मेरे दोबारा पूछने पर उसने गर्दन हिला दी।‘‘यह लो’’ उसकी स्वीकोरक्ति पाते ही मैं अपनी बोतल का ढ़क्कन खोलने लगी। मैं उसे पानी देने को तैयार थी तभी उसकी मां ने कहा-‘‘मेडम, आप थोड़ा ही पानी देना। जब से बस में बैठा है यह पानी ही पी रहा है। पूरी बोतल पी गया है इतने से रास्ते में।’’ उसने थोड़ा पानी लिया और पूछने लगी - आप कहां जा रही है?
-जोधपुर
-वहीं रहती है?
-नहीं अस्पताल का काम है।
-अस्पताल का?
-हां, मेरी समधिन का फोन आया था। उनकी बेटी की प्रसूति होने वाली है।
-तो आप चिकित्सक है?
-नहीं, मेरे पास रहने से उन्हें तसल्ली रहेगी। मुझ पर बहुत विश्वास है उन्हें। विश्वास ही बड़ी पूंजी है। कहते है विश्वास के सहारे आदमी जीता है विश्वास के बिना आदमी मर जाता है।
-बात तो आपकी 100 प्रतिशत सही है।
-विश्वास की इस अहमियत पर मेरी मां अक्सर एक किस्सा सुनाया करती थी। सफर काटने की गरज से मैंने बातचीत का सूत्र आगे बढ़ाया। वह कहती थी, बात उस समय की है जब छप्पन का अकाल पड़ा था। लोगों के घरों में खाने को एक दाना नहीं था। भूखे मरते लोग भूसा खा रहे थे। भूख से बेबस लोग नमक-आटे के बदले अपने बच्चो को बेचने लगे थे। ऐसे दुष्काल से निजात पाने के लिये अब पलायन ही एक मात्र रास्ता था। काफिले के काफिले गांव छोड़कर जाने लगे। ऐसे ही एक दम्पति का बुरा हाल था। चार दिन से बच्चो ने कुछ नहीं खाया था वे लगातार रोटी मांग रहे थे और रोटी थी नही। भोजन के अभाव में उनको बिलबिला कर मरते देखना उनकी बर्दाश्त के बाहर था। इधर सारा गांव खाली हो चुका था। आखिरी काफिला था। लोगों ने उन्हे अंतिम बार साथ चलने के लिए पूछा तब विवश हो उन्हे निर्णय लेना पड़ा। वे जाने लगे तो बच्चों ने उनके तार-तार हुए कपड़े पकड़ लिए। पूछने लगे आप सब कहां जा रहे है? क्या आप रोटी लेने जा रहे है? एक बच्चे ने पूछा तो बेबस माता पिता को बहाना मिल गया और मां ने आंसू रोकते हुए अपने बच्चो से कहा- हां, हम रोटी लेने जा रहे है।
विदा लेते पिता ने कहा- तब तक तुम यहां खेलते रहना। हम जल्दी ही रोटी लेकर लौट आयेंगे।
छ: माह गुजर गये। वर्षा हुई तो समय सुधरा। सुकाल आया तो लागों के काफिले पुन: अपने गांव की ओर लौटने लगे। वह दम्पति भी पहुंचे। दुखी मन से उन्हांेने अपने घर का दरवाजा ठेलना चाहा। जानते थे अब उनका सामना बच्चो से नहीं उनके कंकाल से होगा। वह दरवाजा ठेलते इससे पूर्व ही हंसते-खेलते बच्चो ने माता पिता की आवाज पहचान दरवाजा खोल दिया। बच्चो को सही सलामत पा दम्पति के हर्ष ठिकाना नहीं रहा। अभी वह स्थिति से उबरे भी न थे कि बच्चो पूछा - आप रोटी लाये?
उन्होंने मना कर दिया- हम रोटी तो नहीं लाये। हमें क्या मालूम था कि तुम जीवित....
अभी उनकी बात मुंह में थी कि ‘ना’ सुनते चारो बच्चे वहीं जमीन पर गिर गये। माता पिता ने उन्हें संभाला तो उनके प्राण पखेरू उड़ चुके थे।
कहने का तात्पर्य है कि छ: महीने तक बच्चे भूखे प्यासे होकर भी इस विश्वास के सहारे जीवित थे कि हमारे मां-बाप आयेगे और रोटी लायेंगे। किन्तु जैसे ही उनका विश्वास टूटा वे वहीं खत्म हो गये। तब से यह बात प्रचलित हुई कि आदमी विश्वास के सहारे जीता है और विश्वास के टूटे मरता है।
आपकी बात बहुत सही है आंटी।’’ उसने भाव विभोर होकर बड़े अपनत्व के साथ उसने मुझे कहा। मेरे जीवन में भी कुछ ऐसा ही है। मेरा नाम सुखबीर है और यहां पाली में मेरा पीहर है। जोधपुर में मेरी ससुराल है। मेरे पति मेरी जेठानी के कहे पर चलते है। जेठानी मेरे बारे में उल्टी सीधी बाते करके उन्हे मेरे खिलाफ भड़काती है और ये है कि आंख मूंद कर अपनी भाभी की बात को सही मानते है।
-तुम्हारी सास कुछ नहीं कहती?
-जेठानी के आगे सास की भी कुछ नहीं नहीं चलती। बड़ी तेज है वह। सब उससे डरते है। उसकी नजर हमेशा मेरे पति की कमाई पर रहती है। शादी के पहले तो वह सारा पैसा उसको दे देते थे तो चलता था पर अब हमें भी अपनी गृहस्थी बसानी है कि नहीं? इतना कहकर वह रूक गई और मेरी ओर देखा। मेरा समर्थन पाकर वह आगे कहने लगी-‘‘जी आज एक बच्चा है कल को बड़ा होगा। अच्छे स्कूल में पढ़ाने के लिए पैसा भी तो चाहिये। आजकल स्कूल वाले डोनेशन मांगते है तब जाकर एडमिशन हो पाता है अच्छे स्कूल में। मेरी बहन को भी पचास हजार देने पड़े थे बबली के एडमीशन के समय । जी क्या क्या बात कहे? आजकल मंहगाई देखो न सुरसा की तरह बढ़ती ही जा रही है। सब दे देंगे तो कहां से लायेंगे पैसा? मांगेगे तो वह तो ठेंगा ही बताने वाली है जी।
मैंने उसे ब्रेक देते हुए पूछा- ‘‘तुम्हारे पति करते क्या है?’’
-जी मेडमजी, सब्जी मार्केट में रेडीमेड कपड़ो की दुकान है। रब की दया से गल्ला भी अच्छा आ जाता है। रोज के पांच-छ: हजार तो घर ले ही आते है। इसी बात को लेकर तो वह कुढ़ती है।
-तुम अलग क्यों नहीं हो जाती? मेरे इस सुझाव पर वह व्यग्रता से झल्ला उठी- ‘‘रे बाबा! अलग की बात मैं मुंह से निकाल भी नहीं सकती। मेरे पति मुझ पर नहीं भाभी पर एतबार करते है। खाना भी उसीसे मांगते है और गल्ला भी उसे ही सौंपते है। मेरी तो हर बात में उन्हें कमी ही नजर आती है। हर बात में कहते है - सुख्खी भाभी से सीखा कर जरा।
‘‘फिर तुम्हें बुरा लगता होगा। गुस्सा आ जाता होगा। और मुंह फुलाकर बात करना बंद कर देती होगी। तब वह तुम्हें मनाते है या नहीं?’’ मैंने उसे हल्का सा छेड़ा।
‘‘नहीं आंटी, जब तक मुझे रूला न ले उन्हें शान्ति नहीं होती। तंग आ गई हूं इस मैं रोज की किच किच से।’’ बातों का सिलसिला जो चला तो वह गंतव्य आने पर ही थमा। मेरे उतरने से पहले ही उसने वायदा लिया था कि मैं उसके फोन का जवाब जरूर दूंगी।
‘‘ठीक है, मैं दूंगी जवाब।’’
.................और आज ये अप्रत्याक्षित रूप से यह फोन.......मैं बड़ी विचित्र स्थिति में अपने आप को पा रही थी। कैसे और क्या किया जाय? वो भी केवल फोन पर। वह कहीं कुछ कर न बैठे इस दबाव के चलते दूसरे ही पल मेरी अंगुलिया उसके फोन नम्बर पर घूमने लगी। एक घंटी के जाते ही सुखबीर ने फोन उठा लिया था।
‘‘हलो आंटी, जल्दी बोलिये।’’
‘‘मरने के लिए इतनी तत्परता? मैंने कड़ाई से पूछा - ‘‘सुखबीर क्या हुआ मुझे सबकुछ विस्तार से बताओ।’’
वह बोली- ‘‘मेरी कोई गलती नही और फिर रोने लगी।’’
-तुम्हारा बेटा कहां है?
-मुझे नहीं मालूम।
-तुम्हारे पति कहां है?
-पता नहीं।
-तुम्हें बिना बताये वह कहीं चले गये है?
-हां।
-जब वह गये तुम कहां थी?
-मैं जयपुर गई हुई थी।
-कौन था तुम्हारे साथ?
-मेरे दीदी जियाजी।
-जाने से पहले पति से पूछा था?
-हां, पर उन्होंने मना कर दिया था।
-फिर तुम क्यों गई?
-दीदी ले गई थी। दीदी के मकान की रजिस्ट्री होने वाली थी। दीदी चाहती थी कि मैं उनके साथ जाऊं।
-लगता है तुम्हारे चले जाने से तुम्हारे पति नाराज हो गये।
वह कुछ नहीं बोली सुबकती रही।
-फिर किया हुआ? जब तुम लौटी तो पति ने झगड़ा किया?
-नहीं · वह सिसक उठी। मेरे लौटने से पहले ही वह मेरा सामान पैक करके मेरे पीहर छोड़ गये। मेरे बेटे और पति को मैंने लौटने के बाद देखा तक नहीं।
-ओह! सुखबीर गलती तो तुमसे हुई है।
-मैंने और गलती? नहीं जी....
-हां सुखबीर, अपने यहां शादी के बाद पत्नी इस तरह पति की इजाजत के बिना चली जाय तो वह बर्दाश्त नहीं करते।
-मैं किसी ओर के साथ तो गई नहीं थी। अपनी दीदी के साथ ही तो गई थी। मेरी इच्छा थी कि मैं भी दीदी का मकान देखूं। ये तो कहीं ले जाते नहीं खुद ही अकेले चले जाते है और वो भी मुझे बगैर बताये तब?
-वो तो ठीक है सुखबीर यह तुम समझ रही हो। किन्तु तुम्हारे पति ने तो इस तरह से सोचा नहीं न। और वह तुमसे नाराज हो गये।
-ठीक है आंटी वो मुझसे ना बोले पर मेरा बेटा? जाने किस हाल में होगा वह.....
-जहां भी होगा सुरक्षित ही होगा। तुम अपनी चिन्ता करो ।
-आप कह रही है तो मुझे भी अब लग रहा है कि इस तरह बिना बताये मुझे भी नहीं जाना चाहिये था। पर इसका मतलब यह तो नही कि वह मुझ पर शक करे और घर से ही निकाल दे। अब चार दिन बाद दीपावली का त्यौहार है। मुझे यहां आस पड़ौस वाले देखेंगे तो क्या समझेंगे। मेरे मम्मी पापा उन्हें क्या जवाब देगे? आपको पता है इस डर के मारे मैं बाहर तक नहीं निकली हूं। बंटी से भी नहीं मिली। कहीं लोग ये ना पूछ ले कि त्यौहार पर तुम इधर कैसे?
-सुखबर प्लीज, तुम लागो कि चिन्ता छोड़ो। एक दो दिन में तुम्हारे पति का गुस्सा उतर जायेगा और वह तुम्हें लेने आ जायेंगे।
-सच! आंटी ऐसा होगा? उन्हें अपनी गलती का अहसास होगा? फिर तो मैं भी सॉरी बोल दूंगी।
-आज तुम्हे भी तो महसूस हो रहा कि तुमसे कहीं भूल हुई है।
-आं आंटी। उसकी स्वीकारोक्ति के बाद मैंने पूछा- मगर गलती तो तुम अब करने जा रही हो। क्या मरने से इसका समाधान हो जायेगा? और तुम आत्महत्या करके मर गई तो जो शक तुम पर किया गया है उस दोष से कैसे मुक्त हो सकोगी?
वह मौन रही। कुछ पल बाद मैंने कहा- ‘‘अपने को निर्दोष तुम तभी साबित कर सकती हो जब जीवित रहोगी। वर्ना तुम अपने साथ यह झूठा कलंक लेकर जाओगी।’’
-ओह! यह तो मैंने सोचा नहीं था। अब क्या करूं आंटी?
-तुम नार्मल हो जाओ। एक दो दिन इंतजार करो या तो वह आयेंगे या तुम्हारे पास उसका फोन आयेगा। उन्होंने यह सब गुस्से में किया है और तुम भी यह सब गुस्से में ही कर रही हो। गुस्सा करना अच्छी बात नहीं। पति पत्नी में रूठना मनाना तो चलता रहता है।
-देखती हूं।
इतना ही कहा था उसने और फोन कट गया। इसके बाद उसका कोई फोन नहीं आया। मेरे मन में बराबर उथल पुथल लगी रही कि सुखबीर का पति आया या नहीं? उसे बच्चा मिला या नही? कहीं झगड़ा और बढ़ तो नहीं गया। अनेक बुरी बाते मन में घूम रही थी। फिर भी मन में यह विश्वास अपनी जड़े जमाये हुए था कि शुभ शुभ सोचो। अच्छा ही हुआ होगा।
दीपावली धूमधाम से आयी और अपनी रौनक बिखेर कर चली गई।
मैं थोड़ी फुर्सत में बैठी अपने मोबाईल पर आये एस.एम.एस. पढ़+ रही थी। एक हिन्दी में आये एस.एम.एस. पर मेरी नजर पड़ी- ‘दीपावली की शुभकामनाएं’ और नीचे नाम सुखबीर का देख मैं चौंक उठी। क्षणभर में यह सोचकर राहत मिली कि वह जीवित है यानि उसने आत्महत्या नहीं की। दूसरे ही पल मैंने उसका नम्बर डायल कर दिया। उधर से सुखबीर का चहकता हुआ स्वर सुनाई दिया -
‘‘थैंक्यू आंटी। आपके आर्शीवाद से हमारी दीपावली
हुत अच्छी मनी। अब मैं अपने घर आ गई हूं और बहुत खुश हूं।’’
-सही कह रही हो सुखबीर? कहते हुए मुझे अपना स्वर आद्र लगा। ‘‘और वो लड़ाई?’’
-नहीं आंटी हमने अब नहीं लड़ने की कसम खा ली है। उन्होंने मुझसे और मैंने उनसे क्षमा मांग ली है। वो मुझ पर विश्वास करेंगे और मैं उन पर......................

Friday, April 23, 2010

हर बार

ऐसा क्यों होता है
कि हर बार
मुझे ही हारना होता है
फिर चाहे वह
मेरी तरूण अवस्था हो
या यौवन का मधुमास
मेहनत का फल
क्यों खट्टा ही
पकता है मेरी
अम्बुए की डाल
मेरे सामने हर बार हार ही होती है
जीत से तो वास्ता
मेरा कभी पड़ा नहीं
छद्म रूपधारी देवताओं की तरह
उसे तुम पहले ही हथिया लते हो
क्यों मुझे भोगना होता है
सारा का सारा
कुंठा और संत्रास
सीता हरण का अंश हो
या अग्नि परिक्षण का दंश
उठती है अंगुली तुम्हारी
हरदम मेरी ओर
जो मुझे बोना करती
बोनसाई कर देती है
खुद अपनी ही नजर में
कठघरे में हरदम
घिरी मैं ही क्यों होती हूं
क्यों नहीं मैं खुलकर
हंस पाती हूं
महफिल की मैं बात नहीं करती
अपने ही घर में
जी भी नहीं पाती
कई बार पूछती हूं मैं अपने आप से
ये सवाल
क्यों जीत पर मेरा नहीं अख्तियार
क्यो होता है मेरे साथ ऐसा हरबार

Saturday, April 3, 2010

आज का दिन






आज का दिन खूनी था शायद, तभी तो- अभी वह घर से निकलकर पचास कदम आगे बढ़ भी नहीं पाया था कि........
बस! एक मोड़ ही मुड़ा था। सीधी और चौड़ी सड़क थी। सुबह के सात बजे वह निकला था, तब हल्का धुंधलाका था पर अब सात बजकर पांच मिनिट होने को हैं, चारों ओर पूरा उजियाला पसर चुका है। स्ट्रीट लाईट बंद हो चुकी है। वीरान सी सड़कों पर कुछ इक्के दुक्के लोगों के होने का एहसास भर हुआ था उसे।
वे लोग- उनके चेहरे कपड़े से लिपटे हुए थे। उसे लगा वे सफाई कर्मचारी है, आज शायद सड़क पर कोई विशेष सफाई अभियान हो। पर वह गलत था। वह सफाई करने वाले नहीं थे, बल्कि हमलावर थे। यकायक उन्होंने आकर उसे घेर लिया और प्रहार के लिए जैसे उनके डण्डे उठे, वह भागा। उसने न इधर देखा न उधर बस पांव जिधर उठ गये वो सरपट दौड़ पड़ा। उसने बेतहाशा दौड़ बढ़ाई। वे पीछे थे, कुल गिनती में चार लोग।
वह दौड़ रहा था और दौड़ते-दौड़ते ही उसने निर्णय किया- कहीं पनाह लेनी होगी। एक घर सामने था- मिश्राजी का।
वह उन्हें अच्छी तरह जानता था। घर की फाटक खोल भीतर घुसने में वह सफल हो गया। दरवाजे तक पहुंच पाता इससे पूर्व ही उन हमलावारों में से एक के लठ्ठ का प्रहार उसके पांव पर गिरा। पिंडली पर लगी भंयकर चोट के कारण वह थोड़ा लड़खड़ाया इतने में दूसरा प्रहार उसके कंधे को तोड़ गया। वह संभल नहीं पाया। वहीं अपने सिर को दोनों हाथों से बचाते हुए उकड़ू बैठ कर सहायता के लिए पुकारने लगा। अब तो वे चारों उस पर पिल पड़े। वे उसे इस तरह पीट रहे थे मानो रूई धुन रहे हो। तड़ातड तड़ातड़, प्रहार पर प्रहार। उसकी भयानक चीखे और डण्डे बरसने की आवाजे दोनों घुलमिलकर खौफनाक रिदम बन गई थी।
जानलेवा हमला हो रहा था उस पर। डण्डों के अगले मुहाने पर लगभग 6 इंच तक कीले ठुकी हुई थी। जो पिटाई के साथ साथ उसकी चमड़ी भी उधेड़े जा रही थी। धड़ाधड़
धड़ाधड़........
आज का दिन ममता भरा दिन था शायद, तभी तो- सड़क बुहारते हुए उसकी नजर इस हमले पर गिरी। वह झाडू हाथ में लिए हुए अपनी सरकारी ड~यूटी पर थी। सड़क से कचरा हटा रही थी। इसी दौरान उसे दौड़ते हुए बूटों का स्वर सुनाई पड़ा। सामने देखा- एक युवक के पीछे कुछ लठैतों को दौड़ते हुए। वह कुछ समझ पाती तब तक वह लड़का एक घर के भीतर घुस गया, पर वह वहीं बाहर संकरी बाऊंडरी में फंसकर धिर चुका था। वे उसे निर्दयता से पीट रहे थे। वह उस जगह के लिए दौड़ी जहां ये हादसा हो रहा था। उसने उन्हें रोकते हुए ललकारा- ‘‘खबरदार जो किसी ने अब इस पर हाथ भी उठाया तो.......क्या मार डालोगे उसे?कमीनों · · ...... एक निहत्थे पर चार चार पिल रहे हो। शर्म नहीं आती तुम्हें.......दफा हो जाओ यहां से नहीं तो एक एक को टांग तोड़कर .....’’दहाड़ते हुए उसके हाथ में झाडू मजबूती से कुछ इस तरह ऊपर उठ आया मानो एक सशक्त हथियार हो। उसने हमलावरों में से एक का हाथ पकड़ कर धक्का दिया और घेरे को तोड़ती हुई भीतर घुस कर उसने अपना आंचल पीटने वाले पर फैलाकर ढ़कने की कोशिश में वह उससे लिपट गई। इसी बीच एक वार से खनखनाकर कांच की सारी चूड़िया झड़ गई।
अचानक हुए इस व्यवधान से हमलावर कुछ ठिठके। वह गुस्से में भरी हुई फिर बरसी- ‘‘कुछ तो शर्म करो। ओ मोहल्ले वालो क्या तुमको कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा है ? आंख कान वाले
अंधों-बहरो.....जरा सुनो तो....क्या सबके सब नपुसंक होकर दुबके बैठे हो? खोलो, अपने दरवाजे खोलो......’’
समय की नजाकत को समझ हमलावर भाग खड़े हुए। अब वह उस भयभीत युवक को सहला रही थी। अपने आंचल से उसके बहते खून को पौंछते हुए उसने पुचकारा- ‘‘क्यों ये दुष्ट तेरी जान के पीछे पड़े थे...........कहां कहां चोट लगी तुझे......मुझे बता तो......’’
अब तक दबे बैठे, या तमाशा देखने वाले सभी लोग बाहर निकल आये थे। सभी के मुख से उसके गुणगान हो रहे थे। कोई कह रहा था.......जन्म देने वाली से भी बढ़कर, नवजीवन देने वाली मां’’, किसी ने कहा- ‘‘उसके जीवन की रक्षा कर सचमुच वह यशोदा मैया बन गई है।’’ यहां वे इस बात को सब नजरअंदाज कर चुके थे कि यहीं वो महिला है जिसने अभी-अभी मोहल्ले वालो को गाली गलौच दी थी। उन्हें बेशर्म और खुदगर्ज कहकर उनकी गैरत को ललकारा था।
आज का दिन शायद मानवीय सभ्यता के कलंक अछूत दर्शन का भी था। तभी तो- मुर्दा बस्ती के उन लोगों ने यह भी कहा था- हरिजन स्त्री है, इसे क्या मुंह लगाना यह तो हर रोज ही सड़क बुहारने आती है।
‘जल ही जीवन है’ जिसे वह घायल युवक मांग रहा था। वह युवक जो कि उनकी पिछली सड़क पर रहने वाले डगवाल सा. का बेटा था जिसे वे भलीभांति पहचानते थे। कोई भी उसे पानी नहीं दे रहा था क्योंकि वह उस हरिजन स्त्री की गोदी में गिरा पानी मांग रहा था। एक मेहतर ने इसे छू लिया है। अब कौन अपना धर्म भ्रष्ट करें?
मैया अपने आंचल से उस पर हवा कर रही थी। पर पानी...? पानी...वो कहां से लाती? तमाशाबीन लोग खामेश से इस बेबसी का अनोखा खेल देख रहे थे। उसने हाथ जोड़कर मोहल्ले वालो से प्रार्थना की। तब जाकर किसी एक का मन पसीजा और विकल्प के रूप एक आईडिया उसको क्लिक हुआ होगा तभी तो वह एक डिस्पोसेबल ग्लास में पानी भर कर दूर रख गया। उस मैया ने उसे सहारा देकर उठाना चाहा तो वह उठ नहीं पाया। उसका कंधा झूल गया। मैया ने चम्मच के लिये फिर याचक दृष्टि दौड़ाई। कोई समझकर प्लास्टिक का चम्मच लाता इससे पूर्व ही उस युवक की पत्नी दौड़ती हुई चली आई। उसके पीछे पीछे उसकी सगी मां भी थी। सचमुच यह एक संवेदनाशून्य दिवस होता अगर वे लोग नहीं आयी होती तो? उनके आने से सोये लोगों की संवेदनाएं अब जाग चुकी थी।
आज का दिन एक सुनियोजित अपराध का भी था। पूरणमल ठेकेदार बरसो से वर्मा स्टील कम्पनी में टेण्डर भरता आ रहा था। अभी तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि टेण्डर उसे न मिला हो या किसी ने कोई मीनमेख भी निकाली हो। बरसो से वेस्ट का मलबा वही उठाता आ रहा है। इस बार देखो- ये नया नया लड़का क्या आया, अकल की गर्मजोशी दिखाने लगा। जोड़ बाकि की गणित तो पिछले भी सब जानते थे पर वे सब भरी पूरी उम्र के घर गृहस्थी वाले लोग थे। उनकी भी अपनी जरूरते थी। पैसे के बिना सब सून, सेटल था ऊपर से लेकर नीचे तक।
‘‘अब इसने आकर ऊपर बैठे अफसर को कौनसा पान चबवाया कि इस बार का टेण्डर उसके हाथ ही निकल गया। मेरा तो सारा धंधा ही चौपट कर दिया इस कल के लौंडे ने.......’’पिच्च करके पीक थूकते हुए पूरणमल ने इस छोरे को सबक सीखाने की ठान ली थी। किसी को कानों कान खबर न हो और काम हो जाय। ऐसा ही तरीका था पूरणमल का।
आज का दिन भंयकर असमंजस से गुथमगुत्था होने का दिन भी था शायद। किसने हमला करवाया? कौन थे हमलावर? क्या रंजिश थी? कुछ लूटकर तो नहीं ले गये?
सब यथावत था। जेब को हाथ तक नहीं लगाया गया, घड़ी, चेन, मोबाईल सब यथावत थे तो फिर क्यों जानलेवा हमला हुआ? किसलिए और किसने किया अपराध? जितने मुंह उतनी बाते। जितनी संवेदनाएं उतने दिमाग। खोज लाये दूर की कौड़ी पर-
किराये के अपराधी कहीं पकड़ में आते हैं क्या? आज का दिन अपराध का ही नहीं भ्रष्ट प्रशासनिक दर्शन का भी था। पिटाई करने वालो के खिलाफ एफ.आई.आर. भी दर्ज हुई। किसने हमला करवाया और कौन थे हमलावर, आखिर पता लग ही गया।
जब सब खोज खबर हो गई तो क्यों नहीं पकड़े गये अपराधी? प्रश्न सिक्के के एक पहलू की तरह सामने था तो उत्तर भी सिक्के के दूसरे पहलू की तरह पीछे दबा, छिपा झलक रहा था। सभी ने जान लिया था- पिटने वाले युवक ने भी, उसके घर वालों ने भी, तमाम रिश्तेदारों ने भी यहां तक कि मोहल्ले वालों ने भी। पुलिस रिपोर्ट का कोई परिणाम नहीं निकलेगा। कोई नहीं पकड़ा जायेगा क्योंकि उन गुण्डों में से दो पुलिस वालों के बेटे थे और बाकि बचे दो राजनैतिक संरक्षण पाये हुए शराबी कबाबी। जिनका वास्ता तत्कालीन विधायक से होता हुआ कुछ और ऊपर तक.....शायद भाई भतीजे थे।
तो आज का दिन.....................अभी भी बहुत कुछ शेष है, ये किस्सा अंतहीन है। कहां तक की बात मैं कहूं?

Friday, January 22, 2010

‘तुम चुप रहो!’


यदि महिला आरक्षण की बात नहीं होती तो उसका नाम कौन लेता?
‘‘जठे परधान वणवां वास्ते होड़-होड़ी में आदमियां’रा माथा फूटी जावता, वठे अणी पद ने आरक्षित करी’न सरकार बब्बूड़ी’री तकदीर खोल दीदी’’।
झण्डा पार्टी की ओर से बब्बूड़ी को चुनाव टिकट मिला था। वैसे तो बब्बूड़ी अर्थात चन्द्रकला में कई योग्यताएं होते हुए भी ऐसी कोई योग्यता नहीं थी कि उसको चुनावी टिकट मिलता। न तो उसका कोई राजनैतिक कद था और न ही पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता। उसने कभी पार्टी के लिए कोई काम नहीं किया था। करती भी कैसे? उसे पार्टी, राजनिति से क्या लेना देना? सुबह से लेकर शाम तक चौप्पों’चौपायों’, खेत खलिहानों और रसोड़े से जो थोड़ी बहुत फुर्सत मिलती वो उसके छोरों के हक की थी। राजनिति क्या होती है वो तो क ख ग भी नहीं जानती थी। निपट ढ़ोर, अनाड़ी बब्बूड़ी। फिर बब्बूड़ी में ऐसी क्या योग्यता थी कि किसी ओर को न मिलकर सत्तारूढ़ पार्टी ने अपना टिकट देकर उसे चुनावी दंगल में उतारने का फैसला लिया?
सीधीसी बात है बब्बूड़ी के पिता इस टिकट के असली हकदार थे। अब जब प्रधान की कुर्सी महिला के लिए आरक्षित थी तो पिता टिकट लेकर क्या करते? पुत्री का नाम दे दिया। देने को तो वो बहूओं का नाम भी दे सकते थे पर एक तो बहुएं उनसे पर्दा करती थी। फिर बहुओं का मर्दो के सामने आना, बतियाना उन्हें पसन्द नहीं था। बेटो की भी यहीं राय थी। दूसरा बब्बूड़ी का उसके पति से झगड़ा चल रहा था। कोई पांचेक बरस से उसका डेरा मैके में डला हुआ था।
कल बब्बूड़ी फार्म भरने जायेगी।
‘‘इधर आ बब्बूड़ी’’
‘‘भिंया दुई’न आऊं दाता होकम’’ वह भैंस को बांटा रख दुहने की तैयारी कर रही थी।
अरे! पैली अठी आ। भौजाई ने कैव जो भिंया दुई लेगा। थूं अठीं आ।’’
बब्बूड़ी घाघरे से गीले हाथ पौंछती दरीखाने पहुंची। देखा वहां पिता के साथ पार्टी के और भी कार्यकर्ता मौजूद है। उसे देख कई हाथ ‘नमस्कार’ कर उठे। उसको ‘अचरज’ हुआ। अपने ही गांव के आदमी जिन्हें वह काकोसा, दादासा, भाईसा कहती रही, जिनकी गोद में वह खेली, अंगुली पकड़कर चली और बड़ी हुई वे उसे नमस्कार करें? उसने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि शर्मा गयी।
‘‘चन्द्रकला देवी अब आप हमारी नेता है....चन्द्रकला देवी जिन्दाबाद’’ रामबोला दर्जी ने उत्साह में भर नारा लगाया।
चुनाव पूर्व सरगर्मी वहां देखी जा सकती थी। दो, चार, तीन के समूह में खुसर-पुसर, कईं मुंह कान पर लगे थे। मतदाता सूची सामने फैली पड़ी थी। मर्मज्ञ राजनीतिज्ञों ने मिल बैठकर तमाम सूची को जातिगत आधार पर कई खण्डों में विभक्त कर दिया था। मसलन 15 घर सुनारों के जिनमें 34 मतदाता थे। महाजनों के कुल 20 वोट ही थे। ‘चतुरानन्द की महाजनों के वोट पर अच्छी पकड़ है’ दीनू फुसफुसाया। गूजरा, भोईयों, मालियों और पटेलों के 60 और 80 के आसपास वोट थे। बलाई, खटीकों और मुसलमानों, सिंधियों के भी काफी वोट है। दर्जी धोबी, रेगर, भिस्ती....कई जातिगत बंटाव, मतदाता बैंक की गणित चल रही थी। किसके कितने वोट है? कितने वोट पार्टी पक्ष में है और कितने विपक्ष के और कितने तटस्थ। पक्ष वाले तो झोली में थे ही। देखना यह था कि विपक्ष की जाजम में कितने छेद किये जा सकते है? कितनी सेंध, कहां-कहां मारी जा सकती है और सर्वाधिक ताकत तो तटस्थ वोटों पर लगानी थी। कितने जुटाये या तोड़े जा सकते है? हार जीत का फैसला तो यहीं मतदाता करते है।
‘‘काले ही फार्म भरनों है। साढ़े दस बजा रो मौ’रत आयो है’’
‘‘काले थ्हारी घरवाली ने भी बब्बूड़ी रे ल्हारे तै’सील में जाणों है।’’ शाम के सात बजने वाले थे। बब्बूड़ी ने जम्हाई ली, यह सब देख सुन उकताहट होने लगी। ‘‘दाता, होकम...’’
‘‘तू चुप रह...! हां, यो ठीक रैगा। आठ-दस लुंगायां रो जत्थो साथ वैणो चावै।’’
‘‘हां बाऊजी, चन्द्रकला देवी के साथ आठ दस नहीं कम से कम पचास औरते होनी चाहिए। हरेक जाति में से पांच-पांच औरते होनी चाहिए। ये हमारी ताकत का प्रदर्शन होगा। आधी गुवाड़ी मैं नूता भिजवा दों। पहले फार्म भरना फिर जीमण’’
‘चुनाव के लिए कल फार्म भरेगी बब्बूड़ी’ पूरे गांव में, बस्ती में लोगो को खबर लग गई थी। नूते लग गये थे।
‘‘चन्द्रकला देवी के पक्ष में अच्छा वातावरण है’’
‘‘हमारी जीत निश्चित है’’
‘‘परधान हमारा होगा’’ कार्यकर्ताओं में पूरा उत्साह था।
भोर का सूरज सूर्यप्रतापसिंह के आंगन में पसरा पड़ा था। अन्दर की डयोढ़ी में आज बब्बूड़ी हमेशा की भांति पौट्टे ’गोबर की थेपड़ी’ नहीं थाप रही थी। उसका सात वर्षीय बेटा भारतेन्दु उसे हस्ताक्षर करवाने की अन्तिम ‘प्रेक्टिस’ करवा रहा था। पास में ही बैठा उसका छोटा बेटा अमलेन्दु मां के हाथ से पैन खींचने की कोशिश में लगा था। मानो कह रहा हो ‘पेन पर मेरा अधिकार है।’
‘‘हां! यों·· यों··· ले बैठ’’ बब्बूड़ी उसे उठाकर जरा दूर बैठा आयी। वह पहुंचती इससे पूर्व ही वह पहुंचकर पेन उठा चुका था।
‘‘बाईसा पेन तो मर्दा रे हाथ में’ईज सौवे’’ भाभी के कहने पर बब्बूड़ी ‘फिस्स’ से हंस पड़ी।
झमरू मासी, पार्वती भुआ, गोदावरी तैलण, मंगनी जाटनी, नाथूड़ी रंगरेजण, बसन्ती मालण, गोवनी मीणी और न जाने कितनी जानी अनजानी औरतों का हजूम तहसील की ओर जा रहा था। रंगबिरंगे घाघरा-लूगड़ी में सजी हुई औरते, घूंघटा निकाले औरते, जिनके सबके हाथ में पार्टी के छोटे-छोटे झण्डे थे। औरतों के पीछे मर्दो का टोला था। यह भीड़ तहसील की मुख्य सड़क पर पहुंच चुकी थी। उत्साही कार्यकर्ता नारे लगाने लगे।
‘‘चन्द्रकला देवी....जिन्दाबाद·’’
‘‘झण्डा पार्टी...जिन्दाबाद··’’
एक उत्साही कार्यकर्ता जोर से चिल्लाया- ‘‘जब तक सूरज चांद रहेगा...’’
चन्दाबाई, चन्दू बाईसा, चन्द्रकला देवी, बब्बूड़ी...कई नामों की आवाजे आपस में गडमड हो गई तो नारों का स्वर धीमे से धीमा होता गया। युवा कार्यकर्ता खिलखिला उठे फिर हंसी का फव्वारा छूट गया।
‘‘चोप्प·’’ बुजुर्ग ने उन्हें दपटा...‘ढ़ग से नारे लगाओ’
युवको में खुसर पुसर हुई फिर नारे लगने लगे, एक स्वर में एक लय में।
हरे गोटे वाली मलमल की साड़ी और लाल बूंटेदार रेशमी लहंगा पहने, मुंह पर आधा घूंघट डाले, कई फूलमाला गले में पहने बब्बूड़ी अर्थात चन्द्रकला देवी बड़ी ‘ठहमराई’ ’गम्भीरता’ के साथ चल रही थी। उसकी जिन्दगी में यह पहला अवसर था। मन ही मन घर के सगला देवी देवता, डयाढ़ी माता, कुलदेवी बाणमाता और भैरूजी को बारम्बार यह कहते हुए धोग लगा रही थी कि ‘हे बावजी! म्हारो सत राखजै। म्हूं सत्राणी री फतै करजै।’
जय जयकार के साथ उसने फार्म पर अपने हस्ताक्षर किये। जैसे ही वह तहसील भवन के बाहर निकली सामने उसका पति भूपेन्द्रसिंह एक जीप के पास खड़ा था। आठ-दस लोग हाथ में लठ्ठ सम्भाले उसके साथ तने हुए थे। भूपेन्द्रसिंह आगे बढ़ा और उसका रास्ता रोकते हुए बोला-
‘‘तू चुनाव नहीं लड़ेगी। रजपूत की लुगाई है अपनी मरजादा में रह। बेसरम अब तू वोट मांगने घर-घर जायेगी? येई’ज काम पांती आया है तेरे...करमखोड़ली पूर्वजांे का नाम डूबायेगी...?...’’
वह चुप्प धणी को यहां इस तरह देख भौंचकी रह गई। वह कुछ कहती इससे पूर्व उसे धकियाते उसके पिता सूर्यप्रतापसिंह सामने आ गये। ‘‘घरै पधारो कंवरसा। पामणा भाई ने तै’सील में हील हुज्जत सोभा नीं देवे। आप घरै पधारो। पामणा री सोभा हवेली रे दरीखाने वैं है।’’
श्वसुर को समने पा भूपेन्द्रसिंह ठिठका। कड़ाई से कहे गये शब्द सम्मानजनक होते हुए भी उसे विष के घूंट की तरह लगे। उसने वहीं जमीन पर थूंक दिया। बुजुर्ग कार्यकर्ताओं ने समय की नजाकत को समझा। कहीं विपक्ष वाले इसका राजनैतिक लाभ न ले ले। इससे पूर्व ही वे यहां से खिसक लें। उन्होंने नारा लगाया- ‘‘चन्द्रा देवी...जिन्दाबाद’’
जिन्दाबाद के नारों के बीच से गुजरती हुई बब्बूड़ी एक मुकाम पार कर मैदान में उतर चुकी थी। इस दौड़ की पहली बाधा उसका पति अपने आदमियों के साथ दरीखाने पहुंच चुका था।
सूर्यप्रतापसिंह ने राजनीति में पूरी उमर खपा दी थी। वह समय की नजाकत को समझ रहा था। चन्द्रकला फार्म भर चुकी थी। चुनाव में केवल दस दिन बाकी थे। उसे अपनी पूरी ताकत से इस चुनाव को लड़ना ही नहीं, जीतना भी था। विपक्ष का जोर भी कुछ कम नहीं था। वैसे भी आजकल चुनाव लड़ना आसान चीज नहीं रहा। पैसा पानी की तरह बहता है। मोटी रकम का हिस्सा अगर दामाद को राजी रखने में चुक गया तो क्या हुआ। वैसे तो उसे टेढ़ी अंगुली से घी निकालना भी आता था, पर वह भलीभांति जानता था कि यह अवसर दामाद को नाराज करने और उत्तेजित होने का नहीं है। वह मौका देखकर तिलक निकालना खूब जानता था। सो जंवाई के साथ पधारे हुए अतिथिगणों का खूब आदर सत्कार हुआ। मीठे शर्बत और मीठे फलों से उन्हें तृप्त किया गया। अब दामाद की बारी थी। ‘एक बार बब्बूड़ी परधान बन जाय। ऐसे कई वारे न्यारे तो वो आगामी पांच सालो में कर लेगा’ उसने दांव लगा ही दिया। अखबार में लिपटा नोटो का बण्डल उसने दामाद के सामने करते हुए अत्यन्त मधुरता से कहां, ‘‘यो आपरी सीख रो बीड़ों, हाजर..और कई ताबेदारी वे तो कौं’’ । भूपेन्द्रसिंह एक नम्बर का पियक्कड़। इतने रूपये देखते ही उसकी बांछे खिल गई।
सामने आयी बला सूर्यप्रताप की कुशलता से टल चुकी थी। अब बब्बूड़ी को ले वह निर्विघ्न चुनावी मैदान में उतर गये। यह बब्बूड़ी के जीवन में पहला मौका था जब वह ‘जीपड़े’ में बैठ चुनाव प्रचार पर निकली थी। गवाड़ी गवाड़ी जाकर ‘वोट किन्ने देणो है?’ समझाती। किसी कटाक्ष के प्रत्युत्तर भी वह अपने तरीके से दे आती थी। रोज की घर गृहस्थी, खेतीबाड़ी की जिन्दगी से यह अनुभव अलग था। घर आकर अपने अनुभव भाभीयों को सुनाती- ‘पाणी कठारो तो रोटियां कठै, लुगाई जात वास्ते घणों करड़ों काम है।
‘‘बाईसा आप राज कींकर समभालोगी?’’
‘‘ऐ यालो! कींकर कई, रोज ढ़ोर चौप्पा नीं समभालै कई..विस्तर ही तो सम्भालनो पड़तो वैई।’’ साड़ी मुंह में दबाकर दानी बुर्जग महिलाएं सभी हंस पड़ी।
विपक्ष भी पूरी कमर कस कर मैदान में उतरा था। बब्बूड़ी के सामने प्रत्याशी थी गमेरी कलाल। दोनों बचपन की साथिन चुनावी दंगल में आमने-सामने। पहले पहल आमना सामना हुओ तो खुश खुश मिली। धीरे धीरे माहौल गर्माने लगा। सवर्ण और पिछड़ी जातियों के अलग-अलग खेमे बन गये। दो धड़े हो गये। लोग खुलकर सामने आने लगे। इसका असर प्रत्याशियों पर भी पड़ा। गमेरी और बब्बूड़ी आमने सामने हो जाते तो ‘जिन्दाबाद’ के नारे लगने लग जाते। चुनाव प्रचार में व्यक्तिगत आक्षेप होने लगा। राजनीति के रंग से अब तक अछूती महिलाओं में चैतन्य आ गया था। किसी के सिर पर घास का ‘भारा’ लदा हुआ है तो किसी के सिर पर पानी से भरा ‘बेवड़ा’। यूं तो वह बोझे मर रही होती है पर चुनाव की चर्चा छिड़ते ही वह खड़ी रह जाती, सिर का बोझ भूल जाती। गोबर के हाथ सने हो या राख से बर्तन रगड़नें वाले, हार जीत की अटकले लगने लगती।
चुनाव में आयी इस चेतना से वोटों की गणित गड़बड़ाने लगी। बुजुर्गो के आदेश मानने वाले युवा बागी नजर आते थे। महिलाओं को भी समझाना मुश्किल पड़ रहा था।
इस चुनाव में गांवों के विकास या सिद्धान्तों की बाते तो नगण्य प्राय: थी। प्रतिष्ठा के प्रश्न अड़े हुए थे। टक्कर कांटे की थी। सूर्यप्रतापसिंह कोई ‘रिस्क’ नहीं लेना चाहते थे। रातों रात कारगर उपाय कर डाले। कुछ जातियों से मुफ्त में यात्रा का वायदा हुआ तो कुछ मांस मदिरा से माने।
मतदान की तारीख आ पहुंची। कड़े बंदोवस्तों के बीच मतदान सम्पन्न हुआ। प्रधान की कुर्सी जीतकर बब्बूड़ी ने विजयमाला पहनी। जगह-जगह स्वागत समारोह हुए। वह भीड़ को संबोधित करने लगी-
‘‘सरकार लुगायां ने कुर्सी दीदी। लुगायां घर सम्भालै, छोरा छौरी सम्भालै अबै राज सम्भाली’ई ...गाय बकरिया री गुवार वे के पामण पीर री खातरी, माथे आई पड़िया सगलो करै। अबै आप री सैवा रो मौको मल्यो है तो आपरी परख मांय खरी उतरू’’ कहते हुए वह उसने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए। भीड़ ने ताली बजाई। कभी विद्यालय का मुंह न देखने वाली बब्बूड़ी आज प्रधान बन चुकी थी।
हस्ताक्षर करने वाली इस जनप्रतिनिधी के पंचायत के काम तो उसके पिता की निगरानी में ही पूरे होते थे। उसे कोड आदेश थे कि फंला चपरासी के हाथों भेजे गये कागजों, फाईलों पर ही मंजूरी के हस्ताक्षर करने है। सब कुछ पहले से ही तय, समझाया हुआ चलता। वह तो केवल चिन्हित स्थानों पर हस्ताक्षर करती थी। बाकि मामलों मे वह चुप्पी साध लेती। पिता के ऐसे ही आदेश थे। छ: माह तो सब निर्बाध गति से चलता रहा। विपक्ष अपना पैंतरा चलता तो सूर्यप्रताप उसे ध्वस्त कर देता। उसने अपना खेमा मजबूती से बांध रखा था।
विपक्ष ने अपनी नई चाल चली। उन्होंने भूपेन्द्रसिंह अर्थात चन्द्रकला देवी के पति को अपना मोहरा बनाया। उसे उकसाया और भड़काया कि वह अपनी रूठी पत्नी को मैके से ले आये। उसकी पत्नी प्रधान है। पत्नी के प्रधान होने से जो इज्जत और धन उसे मिलना चाहिये, वह सब उसका ससुर ऐंठ रहा है। फलस्वरूप वह अपनी पत्नी ‘प्रधान’ को मना घर ले आया। अब जो सरकारी मजमा सुसर के यहां लगा रहता था वह उसके द्वार पर रहने लगा। उसकी छाती फूलकर चौड़ी हो गई। उसकी दखल बढ़ने लगी। एक सुबह की बात है-
‘‘दो-तीन कप ‘चा’ बना ला’री’’
बब्बूड़ी चाय लेकर आयी। भूपेन्द्रसिंह ऑफीस के चपरासी के साथ बैठे एक आदमी से बतिया रहा था। यह चाय उसने उन्हीं के लिए बनवायी थी। ‘‘सबको पानी भी पिला और मेरे बूट के पालिस कर दे।’’
‘‘वो जो आज टेण्डर खुलने वाले है उसमें बखतावर का काम हो जाना चाहिये।’’
‘‘पर वो तो एक नम्बर वाले का...’’
‘‘तू चुप रै! समझदार की पूछड़ी। म्हे कैऊं जो कर’’
वह मनमाने तरीके से धन ऐंठने लगा। श्वसुर और उसके बीच टकराहट होने लगी। सूर्यप्रताप ने पैतरा खेला। भूपेन्द्रसिंह इतना दक्ष खिलाड़ी तो था नहीं। कहीं न कहीं मात खानी ही थी। वह उलझन में पड़ गया। घर आकर उसने सारी झल्लाहट अपनी पत्नी पर निकाली -
‘‘थ्हे ट्रांसफर री लिस्टा में धांधली क्यूं कीदी?’’
‘‘म्हने तो दाता होकम कियो। मैं वणाने पूछया बगैर नी करूं।’’
‘‘जूता खाणा वै तो जबान लड़ावजै..’’
‘‘नै करूं...नै करूं...कई कर लेइ..?’’
तभी भूपेन्दzसिंह ने उसकी चोटी खींच एक लात जमा दी।
ड्राईवर हो या बाबू, चपरासी हो या अफसर, उसकी बात न मनाने पर वह सबके सामने ही गाली गलौच करता या झापड़ रसीद कर देता। रोज-रोज की ठुकाई और अपमान से घबराकर वह फिर पिता के पास लौट आयी।
वह अस्वस्थ रहने लगी। उसे अंदेशा होने लगा तो डाक्टरी परीक्षण करवाया। उसका संदेह ठीक निकला। वह गर्भवती है। जब पिता को मालूम चला तो मानो उन पर गाज गिर गई। प्रधान का पद हाथ से जाता दिखा। चुनाव में रूपया पानी की तरह बहा था। अभी तो खेत भी गिरवी पड़े है। बैठे बिठाये ये मुसीबत कहां से आ पड़ी। तीसरी संतान होते ही बब्बूड़ी को इस्तीफा देना पड़ेगा। नया कानून ही ऐसा आया है।
बब्बूड़ी की शहर के प्राईवेट अस्पताल में जांच हुई। बच्चा तो ठीक था पर उसका ब्लड प्रेशर कम था। डाक्टरनी ने गर्भपात नहीं कराने की सलाह दी।
सूर्यप्रतापसिंह माथा पकड़कर बैठ गये। अब क्या हो? उन्होंने बेटी से पूछवाया तो पता चला वह भी गर्भपात के विरोध में थी। उसके दो बेटे थे और अब बेटी की आस उसके मन में पलने लगी थी। सूर्यप्रताप धर्मसंकट में फंस गये। एक तरफ प्रधान की दावेदारी जाती है दूसरी तरफ बेटी की जान। उसकी मर्जी के बिना गर्भपात कराना भी मुश्किल है। ये बाते छुपाये नहीं छुपती, कहीं विपक्ष या इसके पति को पता चल गया तो? समस्या एक नहीं कई खड़ी हो जायेगी। आखिर निर्णय तो लेना ही था। उन्होंने पत्नी की मदद ली और समझाबुझाकर बड़ी गोपनीयता से काम को अंजाम दिया गया। कागजों में पीलिये का केस बताया गया।
अस्पताल में बब्बूड़ी पीली पंजर पड़ी हुई थी। मानो शरीर का सारा रक्त ही निचुड़ गया हो। उसके पिता के पास मिलने वाले कई परिचित आते, हालचाल पूछते। फूलों का गुलदस्ता लिए विधायक महोदय आये -
‘‘अब कैसी है प्रधानजी?’
‘प्रधानजी’ उसे लगा जैसे किसी ने घौंसा मार दिया हो। ‘भाड़ में जाय प्रधान की कुर्सी वह बिलबिला उठी। जैसे ही बब्बूड़ी ने बोलने को मुंह खोला, पिता ने कहा -
‘‘तू चुप रह! आराम कर’’ और उसने अपने होठ मजबूती से ‘सी’ लिए।