Sunhare Pal

Monday, July 26, 2010

माटी का रंग 3



कहानी का अंतिम भाग:

दोनो स्त्रियों को इस तरह रोते बिलखते देख हाहाकार मच गया।
कुछ ही देर बाद सिकन्दर और विक्रम कच्छे पहने भीगे हुए नंगे बदन सामने खड़े थे। दोनो ने अपने अपने बच्चों को छाती से चिपटा लिया और बेहताश चूमते हुए दीवानों की तरह रोती जा रही थी।
‘‘मेरे लाल!....’’
‘‘मेरे नूर!....’’ दोनो माताएं डसूके भरने लगी।
‘‘ये दोनो आपके बच्चे है....? बड़े साहसी बच्चे हैं। इतने बच्चों में केवल ये ही तैरना जानते थे। इन्होंने ही अपनी जान पर खेलकर डूबते बच्चों को बचाया है।’’
गुलनारा और शारदा को शिक्षक की बात पर एकाएक विश्वास नहीं हुआ।
‘‘इन्होंने डूबते बच्चों को बचाया है?’’ दोनों के मुंह से एक साथ निकला।
‘‘हां, केवल तैरना ही नहीं बल्कि यूं कहो दोनो सिद्ध गोताखोर हैं। बाहर से मदद मिले जितने तक तो ये अपनी जान पर खेल गये।’’
दोनो एकटक उन्हें निहारने लगी।
‘‘मम्मी, गुलनारा मौसी ने ही तो सांस रोक पानी में डुबकी लगाना सिखाया था हमें।’’
‘‘और मम्मी शारदा खाला ने ही तो डूबने वालों को बचाना सिखाया था हमें। विपरीत धारा में तैरना हम आप दोनों से ही तो बचपन में सीखे थे।’’
‘‘बचपन की सीख तुम्हे याद है?’’ वे आश्चर्य से बोली।
‘‘हां क्यूं नहीं भला। आप दोनों शायद भूल गई है पर हम नहीं भूले।’’ दोनों एक साथ चिहुंक उठे।
अब वे दोनों एक दूसरे से गिले शिकवे शिकायत करने लगी -
‘‘तू क्यों नहीं बोलती थी मुझ से....? तुझे क्या हुआ था?’’
‘‘मैं नहीं बोली तो क्या हुआ? तू भी तो नहीं बोली थी। झगड़ा तो हिन्दू और मुसलमान के बीच हुआ था। हमारे बीच तो नहीं।’’
‘‘तेरे और मेरे बीच एक ही माटी की गंध थी तो ये बैर कहां से आ बसा?’’
‘‘हम दोनों एक ही माटी की है जिसका रंग हमारे बच्चों में भी उतर आया। फिर बता हम क्यों इत्ते साल जुदा जुदा रही? दोनों आंसुओ से तरबतर चेहरा लिए एक दूसरे से प्रश्न करती हुई पूछती रही थी पर दोनों ही निरूत्तर थी। दोनों के पास तो क्या वहां खड़ी भीड़ के इतने लोगो के पास भी क्या, किसी के पास इस यक्ष प्रश्न का उत्तर नहीं था।

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