Sunhare Pal

Friday, November 20, 2009

मैं और तुम


उसका और मेरा संघर्ष कब शुरू हुआ ये तो मुझे ठीक से मालूम नहीं, हां इतना मालूम है कि जब मेरे हाथ पैर और आंख नाक बन रहे थे और मुझमें थोड़ी- थोड़ी हरकत शुरू हुई थी तभी मैंने अपने पड़ौस मैं अपनी ही जैसी हल्की सी सरसराहट महसूस की थी। यद्यपि वो ओर मैं अपनी अलग-अलग थैलियों में थे, सिर्फ अहसास मात्र से ही एक दूसरे की उपस्थिति का हमे आभास मिल रहा था।
उसे ज्यादा जगह और ज्यादा आराम चाहिये था, उसने मुझे धकियाना शुरू कर दिया। वो ताकतवर था और मैं दुर्बल, फलस्वरूप मैं सिमटती गई और वो मेरी जगह पर भी अपना एकाधिकार करता चला गया।
मैं गहन अंधकार और पीड़ा से मुक्त होने के लिए छटपटाने लगी। पहले बाहर आने के लिए उसके और मेरे बीच संघर्ष होने लगा। पहले आगे सरककर उसने मेरा मार्ग अवरूद्ध कर दिया, मेरा दम घुटने लगा।
जब दो दस्ताना पहने हाथों ने मुझे खींचकर बाहर निकाल, उल्टा लटका दिया तब मैं बेहद घबराई हुई थी। इसलिए रोना भी भूल गई। मेरी पीठ पर थपकियां पड़ने लगी क्योंकि मैं रूक-रूककर सांस ले रही थी। चोट के दर्द से मैं बिलबिला उठी और डॉक्टर ने मुझे सीधा कर दिया। सीधा होते ही मैंने अचकचाकर पहली बार आंखें खोली।
उसके व मेरे बाहर आने का अन्तराल केवल दस मिनिट का रहा होगा किन्तु यहां भी वहीं बाजी मार ले गया। डॉक्टर द्वारा वो बड़ा और मैं छोटी घोषित हुई।
‘‘बहुत कमजोर बेबी है, उसे इन्टेसीव में रखना होगा’’ कहते हुए डॉक्टर ने मुझे पास खड़ी सफेद स्कार्फ बांधे हुई नर्स को थमा दिया। फिर मुझे कुछ होश नहीं रहा।
जब मैंने दुबारा आंखे खोली तो एक बड़े बल्ब की तेज रोशनी से मेरा परिचय हुआ। शायद वो मुझे गर्मी देना चाहते थे। सच! पीड़ा और ठण्ड के मारे मेरा बदन अकड़ा गया था। गर्मी पाकर थोड़ी राहत मिली और मैं हाथ पांव चलाने लगी। मुझे जगता देख फिर वहां से उठा लिया गया। लम्बी कारी डोर को पार करते हुये मैं नर्स की गोदी से वार्ड तक पहुंची। मुझे मेरी मां के बगल में लिटाते हुए नर्स बोली, ‘‘टेक केयर बहुत कमजोर बेबी है।‘‘
मुझे अपने सिर पर कोमल हाथों की छुअन महसूस हुई। दूसरे ही क्षण उनकी कोमल अंगुलियां मेरे काले, घने घुंघराले बालों से अठखेलियां करने लगी मैंने स्पर्श पहचान लिया, ‘‘ये तो मेरी मां है’’ खुश हो मैं मां से सटने के लिए हाथ पांव चलाने लगी। तब तक मुझे पता नहीं था कि बाहर आकर भी तुमने सर्वत्र अपना एकाधिकार जमा लिया है। मैंने देखा एक बूढ़ी औरत जो कि आंखों पर सुनहरी फ्रेम का चश्मा चढ़ाए हुये थी एक पोटली मां की ओर बढ़ाते हुए कहने लगी इसे दूध पिलाओ बहू ...... ओह! तो ये तुम हो।
जिसे मैं पोटली समझी थी दरअसल इसमे तुम थे और ये बूढ़ी औरत तुम्हारी व मेरी दादी मां ...... दादी मां तो मां का भी विस्तार होती है ऐसा कुछ-कुछ मुझे याद आ रहा था।
कड़क कलफदार साड़ी, ऊंचा, जूड़ा बांधे, नीचे झुकी हुई दादी के गले में मुझे लटकती हुई चमकती चीज ने आकर्षित किया और मैंने मुट्ठी में भीचं लिया।
‘‘हाय, देखो तो सही, अभी से मेरी चेन उतरवाने लगी है’’। कहती हुई वह मेरी बन्द मुट्ठी खोलने का प्रयास करने लगी। मैंने भी कसकर पूरी ताकत लगा रखी थी इसके बावजूद उन्होंने मेरी मुट्ठी खुलवा ली।
मैंने तुम्हारी और देखा, तुम मां की गोदी में गर्व से मुस्करा रहे थे। ‘मुझे भी गोदी में उठाओ’ मैं अपने हाथ पांव फैंकने लगी। मैंने बहुत हाथ-पैर चलाए पर मुझे किसी ने नहीं उठाया। अपनी इस हार से क्षुब्ध होकर मैं रोने लगी तभी दादी ने फटकारा,‘‘लड़की होकर गला फाड़ रही है।’’
भूख के मारे मेरी आँतड़ियां कुलबुला रही थी। तुम्हें मां का दूध पीते देख मेरी भूख और तेज हो उठी। मैं और तेजी से चिल्लाने लगी।
तुम इस सबसे बेफिक्र हो चपर-चपर दूध पीने में व्यस्त थे। तभी मुझे अहसास हुआ कि मैं दो सशक्त बाहों में हूँ। मैं कुछ देख पाती इससे पूर्व ही वह चेहरा नीचे मेरे मुँह पर झुक आया। अपने मुलायम गालों पर मुझे चुम्बन के साथ एक तीखी चुभन भी महसूस हुई और मैं ऊं..ऊं.. कर उठी। मुझे चूमकर चेहरा ऊपर उठा, ‘ये तो मेरे पिता है’ मैंने झट पहचान लिया। मेरे ऊं...ऊं... करने पर उन्होंने पानी की बोतल मेरे मुंह से लगा दी।
चुप हो गटगट पानी पीने लगी। मुझे पानी बेस्वाद लगा और मैं उसे मुंह से बाहर ठेलने लगी। मेरी नजरे पिता की नजरों से टकराई।
‘उसके लिए तो मां का दूध और मेरे लिए ये उबला बेस्वाद पानी’। पिता के कठोर चेहरे की नरम नरम पनीली आंखें मे जाने क्या मुझे लहराता नजर आया मानो वे कह रही हो, ’मैं इसके सिवा तुम्हें दे ही क्या सकता हूं, मेरी बच्ची।’ उन आंखों के सम्मोहन मे बंधी मैं चुपचाप पानी पीने लगी। अपनों के इस पक्षपात पूर्ण रवैये से बेखबर नींद मुझे घेरने लगी और मैं सो गई।
शोरगुल सुन मेरी नींद टूटी। देखा बहुत से मिलने वाले लोग आये हुए थे। हर आने वाला बधाई कह रहा और तुम एक गोदी से दूसरी गोदी में घूम रहे थे। मुझे समझ नही आ रहा था कि आखिर तुममे ऐसी क्या खासियत है। सिस्टर नर्स तो कह रही थी कि मैं बहुत सुन्दर हूँ ... गोरी चिट्ठी, बड़ी बड़ी आंखों वाली हूँ, बिल्कुल अपनी मां पर गई हूँ और तुम .... मुझसे बिल्कुल विपरित काले कलूटे, तभी तुमने किसी को गोदी को शू-शू कर गीला कर दिया। पर ये क्या...। फिर भी तुम्हें सब चिपकाए है।
तुम्हारी मुट्ठी में बहुत से नोट बन्द थे। ये सब तुम्हें मिलने वालो ने उपहार स्वरूप दिये थे, जिन्हें मुट्ठी में दबाये तुम मुस्करा रहे थे। मुझे लगा जैसे तुम मुझे चिढ़ा रहे हो। यह सब मैं चुपचाप पलंग के पायताने लगे झूले में से देख रही थी। जब मुझसे अपनी और उपेक्षा सहन नही हुई तो मैं सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए जोर-जोर से हाथ-पांव चूसने लगी। जब किसी ने ध्यान नही दिया तो मुझे फिर रोना आ गया।
तभी दो नन्हीं बाहें मेरी ओर बढ़ आयी मुझे पुचकारती हुई उठाने का असफल प्रयास करने लगी, ‘‘अरे-अरे उसे मत उठाओ, अभी तुम छोटी हो’’ मां ने उसे टोका।
‘‘छोटी टहा अबटो मैं दीदी बन गई हूँ।
‘‘हां तुम दीदी बन गई हो ......’’
तू अकेली ही क्या कम थी जो बहन को और ले आयी। दादी से दीदी को मिला ये उलहाना सुन मेरी मुट्ठियां भींच गई जिनकी गिरफ्त में मेरे कुछ केश आ गये और वे खींचने लगे, मैं दर्द से बिलबिला उठी।
बहुत रोने के कारण नामकरण हुआ रोनी लड़की और तुम्हारा राजा बेटा, अक्सर मैं गीले में सोयी रहती जबकि तुम्हारी लंगोट दादी आधी-आधी रात तक जागकर बदलती रहती। मां भी पहले तुम्हें दूध पिलाती, तुम्हारा पेट भरने के बाद बचा दूध मुझे मिलता। तुम्हें गोदी से उठाए दादी कहती कितना दुबला पतला है मेरा लाल जबकि भरपूर दूध पीकर तुम गोल मटोल लगने लगे थे,‘दादी झूठ भी बोलती है।’
दादी हर रोज मेरे लिए पिता से कहती, ‘‘अरे! इसके लिए अभी से धन जमा करना शुरू कर दो, बेटी है बढ़ते हुए देर नहीं लगेगी। कुछ नहीं तो बैंक में एफ. डी. ही करवा दो बेटा, आखिर शादी का दहेज जुटाना कोई मामूली बात नहीं है।’’
‘मेरे प्रति सबके मन में यह चिन्ता का कैसा बोझ’। मैं सहमकर सिसकियां भरने लगी। मां ने मुझे उठा लिया तभी गले से स्टेथोस्कोप लटकाए डॉक्टर आ पहुंची जिनसे मैं खूब परिचित थी। हर माह गर्भ में यहीं तो हमारा परीक्षण करती थी। मैंने तुम्हारी ओर नजर उठाकर कहा तुम इससे बेखबर छत ताक रहे थे।
‘‘बहुत रोती है यह’’ मां मेरी शिकायत डॉक्टर से करने लगी।
‘‘बच्ची कमजोर है, उसे तुम्हारा दूध अधिक पिलाया करो’’ और वो मुआयना करने में जुट गई।
‘‘सुन लिया माँ मैं यूं ही नही रोती’’
एक मीठी आवाज सुन मैं चौंकी। आप चाहे तो इसे मैं ले जाऊं, मैं झट पहचान गई ये तो मेरी नानी है’ जो मुझे गोदी में लेने के लिए नीचे झुकी हुई थी। बिल्कुल दादी की तरह बूढ़ी, जिस तरह दादी तुम्हें सीने से सटाती थी ठीक उसी तरह नानी ने मुझे अपने वक्ष से चिपका लिया। गर्व से में पुलकित हो उठी। मैंने तुम्हारी ओर देखा, तुम बेफिक्र हो अंगूठा चूसने में मगन थे ‘‘बुद्धू कहीं के’’, नानी आयी है और तुम पहचान भी नहीं पाये।
नानी मुझे साथ ले जाना चाहती थी इस बात पर मेरे पिता मौन थे। मैंने मां की ओर देखा उनकी आँखों मे हल्की सी चिन्ता की लकीरे उभरी हुई थी।
माँ तुम कैसे रखोगी इसे ये बहुत रोती है।’’
नानी के सामने मां का यह आरोप सुन मुझे बहुत दुख हुआ क्या मैं ऐसे ही रोती हूँ। गीले में पड़ी रही तब भी नहीं रोऊं ? क्या भूखी होऊं तब भी नहीं। यहां तक कि दादी उल्टी सीधी कहे तब भी नहीं।
नानी कह रही थी इसके लिए बकरी पाल लूंगी। उह! मुझे नहीं पीना बकरी का दूध। तुम्हारे लिए मां का दूध और मेरे लिए बकरी का दूध! पहली बार घृणा का भाव मेरे मन मैं जागृत हुआ।
आखिर यही तय हुआ कि कुछ दिनों के लिए नानी मुझे ले जायेगी ताकि मां तुम्हारी अच्छी तरह देखभाल कर सके। जाते समय पिता ने मुझे चिपका लिया। इतना कसकर की मेरा दम घुटने लगा और मैं रो पड़ी, वो मुझे पुचकारने लगे उनके कई चुम्बन मेरे मेरे गालों पर पड़ने लगे। मैंने भी कसकर उनकी कमीज पकड़ ली।
‘‘बेटी है बेटा इससे इतना स्नेह मत बढ़ाओ, कितना भी प्यार करोगे तो भी एक दिन छोड़कर चली जायेगी’’।
दादी की बात चुभ गई और मेरी मुट्ठी की बन्द कमीज छूट गई।
कुछ दिन बाद मां तुम्हें लेकर मुझे देखने के लिए नानी के यहां आयी। तुम आते ही मेरे बिस्तर पर लेट गये उस समय मैं सोई हुई थी। तुमने शू-शू करके मुझे भी गीला कर दिया। ‘तुम यहां भी आ धमके अपना एकाधिकार जमाने, आखिर क्यों?’
मुझे नींद से जगती देख मां ने मुझे उठाकर सीने से ले लगा लिया। मैं विद्रोह कर चिल्ला उठी, ‘मुझे नही आना तुम्हारी गोदी में। मैं तुम्हारा स्पर्श भूल चुकी हूं, इसमे मेरी कोई गलती नहीं, तुमने क्यों अपने से जुदा किया मां? क्या जिस जगह भैया पला-बढ़ा उस जगह मैं न पली थी? तुम्हारे ही खून से मेरा निर्माण हुआ था तो क्यों तुमने मेरे और भाई के बीच ये पक्षपात किया?’
मैंने आंखे उठा कर देखा-मां की आंखों में बन्द मोती लुढ़कने को बैचेन थे। जिन्हें उन्होंनें कठीनता से भींचे रखा था। ‘ये तुम्हारे चेहरे पर कैसी पीड़ा है मां? ये तुम्हारे आगोश में कैसी नर्म गर्मी है जिसकी आंच में मैं पिघलती जा रही हूँ ..... पिघलती जा रही हूँ। सारे शिकवे शिकायत भूलकर जमती जा रही हूँ ..... स्पंदनहीन हुई समाती जा रही हूँ मीठी नींद के आगोश में ........’

5 comments:

Saleem Khan said...

तुम्हारी मुट्ठी में बहुत से नोट बन्द थे। ये सब तुम्हें मिलने वालो ने उपहार स्वरूप दिये थे, जिन्हें मुट्ठी में दबाये तुम मुस्करा रहे थे। मुझे लगा जैसे तुम मुझे चिढ़ा रहे हो। यह सब मैं चुपचाप पलंग के पायताने लगे झूले में से देख रही थी। जब मुझसे अपनी और उपेक्षा सहन नही हुई तो मैं सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए जोर-जोर से हाथ-पांव चूसने लगी। जब किसी ने ध्यान नही दिया तो मुझे फिर रोना आ गया।

Saleem Khan said...

बहुत ही खूबसूरत रचना

सलीम खान
संयोजक
हमारी अंजुमन
(विश्व का प्रथम एवम् एकमात्र हिंदी इस्लामी सामुदायिक चिट्ठा)

अनिल कान्त said...

aap bahut achchha likhti hain

kahani kahne ka andaaz bahut achchha hai

Dr. kavita 'kiran' (poetess) said...

आपकी कहानियां दिल को छू लेनेवाली होती हैं.शुक्रिया दीदी मेरे ब्लॉग पर आने का

PRATIBHA RAI said...

आप ने गर्भ में ही बेटी की सारी पीड़ा अपनी लेखनी से उतार दी। अभी भी अधिकांशत: हमारे समाज में एक-दो बेटियों के बाद अगर तीसरी आ गई तो ऐसा होता है। लेकिन अब ज़माना-समाज़ बदल रहा है।