Sunday, December 27, 2009
अंधेरे और उजालो के बीच
धूप और बैसाख की
परवाह किए बिना
हर शाख बुनती तब एक घरौंदा
दूधिया, धवल या
फिर हो सुआपंखी
हर रंग में लुभाती जिन्दगी
दाना - दाना खाने
लिए अधखुली चौंचे
हर दम करती मानो बंदगी
पीन पंख फड़फड़ाएं
उड़ने को जी चाहे
हर मंजिल अनजानी, है नई डगर
न जाने राह लम्बी
आंख अभी धुंधली
हर आहट...डराये, है जोश मगर
नव कौंपल जब
नीड़ कोई सजाए
नभ भर लाये झोली भर सितारे
तब सूरज चंदा
मिलजुल कर सारे
नववर्ष की संध्या पर नव गान पुकारे
प्रेम सुधारस बरसाये
राग मधुर सुनाये
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3 comments:
विमलाजी की इस कविता में जिंदगी के प्रति आशावादिता के स्वर प्रस्फुटित हो रहे है.
कवयित्री के प्रकृति प्रेम से जीवन के अनुभवों की व्याख्या बहुत ही यथार्थ व सुन्दर बन पड़ी है .
इस काव्य रचना के लिए आपको बहुत बहुत बधाई !
नववर्ष की संध्या पर नव गान पुकारे
प्रेम सुधारस बरसाये
राग मधुर सुनाये
-बहुत उम्दा रचना!!
Vimala Ji.
Bahut badhia kam kiya hai. Badhai. sabhi rachanai shresth hai. Please keep it up.
Kunjan
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