Sunhare Pal

Wednesday, July 14, 2010

माटी का रंग

‘छपाक!’ की आवाज हुई और कई पानी की बूंदे इधर-उधर, चारों ओर उछल गई। इसके साथ ही वह घूमी और गुस्से से दांत पीसती हुए चीखी - ‘‘कौन है ये बेशरम......?’’
दूसरे ही पल उसकी नजरे पानी के छींटे उड़ाने वाली से मिली और वो स्तब्ध रह गई। उसका मुंह खुला का खुला रह गया। फिर उसके मुंह से फूटा - ‘‘अरी शारदा तू........यहां............?’’
‘‘म्हें भी यही पूछूं हूं, तू यहां कैसे?.........गुलनारा ही नाम है न तेरा।’’ वह इत्मीनान करती हुई पूछने लगी। उसने ‘हां’ में गर्दन हिलायी। दोनों मुस्कुरा उठी।
पहचान में भी एक अपनापन होता है और ये अपनापन उस समय और भी बढ़ जाता है जब एक ही शहर के दो व्यक्ति कहीं अन्यत्र मिलते हैं आने शहर में रहते हुए चाहे वे आपस में कभी न बोले हो पर अन्य जगह की बात ही कुछ ओर है। वहां अपने ही शहर के व्यक्ति को देख कर विश्वास से भरा जो अपनेपन का भाव पैदा होता है उसकी आत्मीयता निराली होती है। जाति, वर्ण, वर्ग, रंग सब भेदभाव भूलकर वे अपने बन जाते हैं। यहां भी यही दृष्टिगोचर हो रहा था। गुलनारा और शारदा एक दूसरे का हाथ पकड़कर वहीं नदी किनारे बने कच्चे घाट पर बैठ गई जैसे कभी गहरी मित्रता रही हो।
बरसात के दिन थे और सरणी नदी पूरे उफान पर थी। चारों तरफ फैली हरीतिमा ने वातावरण को खुशगवार बना दिया था। वहीं घाट के पत्थर पे कपड़े धोती हुई आपस में बतियाने लगी -
‘‘तेरी शादी कब हुई?’’ शारदा ने पूछा।
‘‘पिछले बरस ही और तेरी.....?’’
‘‘पूरे आठ महीने और दस दिन हुए है। तेरा वो क्या करै रे?’’
‘‘ड्राईवर है, जीप चलावै है और तेरा वो....?’’
‘‘अभी कम्पाऊंडरी में पढ़े है.......ऐं गुलनारा, तुझे बच्चा हुआ?’’
नहीं कहकर गुलनारा हंस पड़ी। ‘‘तेरे कुछ है...?’’
उसने ‘ना’ में गर्दन हिलाई और दोनो हंस पड़ी।
‘‘तू भी नीली बट्टी से कपड़े धोवै है?’’
‘‘हां, मेरे उसको यहीं पसंद है।’’ कहते हुए उसने पेंट को पछाड़ना शुरू किया। फलस्वरूप साबुन के झाग मिले पानी के छींटे उड़ने लगे।
‘‘ऐं.......ऐं.....देख छींटे मत उड़ा। ठीक से कपड़े धो। कहीं छींटा लगे, यह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। ये तो तू मेरे शहर की है जो तुझे कुछ नहीं कह रही हूं। अगर तेरी जगह कोई ओर होती तो निगोड़ी की चुटिया पकड़ यहीं पछाड़ देती....।’’
‘‘ऐं.....ऐं.....किसे धमकावै है तू। मुझे कोई ऐसी वैसी डरपोक, कच्ची खिलाड़ी मत समझना। धोबी की बेटी हूं। बरसों से पुरखो ने नैं-नैं घाट पे कपड़े धोये, पछाड़े और निचोड़े हैं। ये तो तू है मेरे पीहर से जो लिहाज कर रही हूं। वरना ससुरी की एक टांग पकड़कर ऐसा घुमाती कि चक्करघिन्नी बनी नजर आती.....’’और हीं-हीं कर हंसने लगी।
‘‘तू धोबी की बेटी है तो मेरी रगों में भी खालिस पठान का खून बहता है। मेरा कब्बड्डी खेलना याद है कि नहीं तुझे? था कोई मेरा जोड़? हमेश कक्षा को जिताया था मैंनें........।’’
‘‘चुप कर। हम ‘अ’ अन्दर और तू ‘ब’ बन्दर थी।’’ कहकर शारदा फिर हंसने लगी। शारदा को हंसता देख गुलनारा को भी हंसी आ गई। ‘‘आगे-आगे बन्दर पीछे-पीछे रामचन्दर’’ दोनों एक साथ बोली। शारदा ने गुलनारा की ओर पानी उछाला तो गुलनारा कहां पीछे रहने वाली थी। उसने भी पानी में जमकर हाथ चलाये और बौछारे शुरू कर दी। फिर तो मानो वे उन्हीं स्कूली दिनों में लौट आयी थी। दोनों एक दूसरे पर पानी उछालती हुई वर्तमान को पीछे धकेल बचपन में लौट आयी। हाथ पकड़कर पानी में ‘डुबकी’ खाने लगी। तैरने लगी कभी सीधी तो कभी उल्टी होकर, पानी में किलौलें करने लगी।
जब वे पानी से बाहर निकली तो एक दूसरे के सिरों पे गीले कपड़ों से भरे तगारे रखने में मदद करने लगी और फिर साथ-साथ चल पड़ी। शारदा का मकान पहले आ गया। गुलनारा ने भी उसकी घर के बाहर बनी चबूतरी पर अपना सिर का बोझ उतार विश्राम लिया।
‘‘आ अंदर आ।’’ शारदा मनुहार करती हुई कहने लगी।
‘‘उं हूं! आज नहीं। तू इतनी कड़वी जुबान की क्यों हैं?’’
‘‘तेरी जुबान में कौन सी गुड़ की डली है?’’
फिर दोनो एक साथ खिलखिला कर हंस पड़ी।
यह सही था कि शारदा और गुलनारा दोनो ही सरकारी स्कूल में, एक ही कक्षा में पढ़ती थी। पर दोनो के ‘सेक्शन’ हमेशा अलग रहे थे। एक अ में थी तो दूसरी ब में। आठवीं तक दोनो साथ-साथ पढ़ी पर शायद ही उनमें कभी बातचीत हुई हो किन्तु यहां आकर उनमें एक अलग सा ही अपनापन पैदा हो गया। जिसका कारण था दोनो का एक ही शहर का होना। ससुराल का गांव चाहे छोटा था किन्तु यहां वो अपनापन किसी के साथ नहीं जुड़ पाया था जो शारदा को गुलनारा में और गुलनारा को शारदा में मिला था। उनकी प्रगाढ़ता समय के साथ बढ़ने लगी।
यह भी संयोग की बात थी कि दोनो के मकान के पिछवाड़े की छत मिलती थी। जब वे काम निपट जाती तो एक दूसरे को छत पर ककंरी डाल चलने का इशारा कर देती थी। वे साथ-साथ कपड़े धोने व नहाने आती। यहां नदी किनारे जो स्वतंत्रता उन्हें मिलती थी वह पिछवाड़े के पड़ौसी होने के बावजूद भी नहीं थी। पहले जी भर के वे चंगा-बित्तू खेलती फिर कपड़े धोती और नहाती थी।
जहां दोनों कपड़े धोती व नहाती थी वो त्रिवेणी संगम का किनारा था। बेड़ावल के जंगलों से जो बूढ़ी नदी बहकर आती थी। यहीं आकर लोड़ी नदी से मिल जाती थी। यहां आकर नदी का पाट कुछ चौड़ा हो जाता था और उसके बहाव की रफ़्तार भी धीमी हो जाती थी। दोनो नदियों का पानी जब मिलकर आगे बढ़ता था तो वे सरणी नदी कहलाती थी। इसी सरणी के किनारे किनारे आबादी बसी हुई थी। एक ओर मुस्लिम बहुल आबादी थी तो दूसरी ओर हिन्दु बहुल। दोनों आबादी को विभाजित करता बीच में सीना ताने खड़ा था - खंडित, जर्जर एक प्राचीन दरवाजा। इस दरवाजे के जर्जर कंगूरे देख सहज ही अनुमान लगया जा सकता था कि ये कभी बेहद सुन्दर रहा होगा। प्राचीन वास्तु शिल्प के साक्षी इस दरवाजे की प्राचीर के एक भाग में मजार थी और दूसरे भाग के छोटे आलिये में हनुमान मूर्ति। उपेक्षित पड़े इस मजार और मूर्ति को कोई नहीं पूछता था।
समय बदला तो बहुत कुछ बदला। ‘इस दरवाजे का जीर्णोद्धार हो’ इस पर पूरा गांव एकमत था। बस उनमें केवल उसके नाम को लेकर मतभेद था। मुसलमान अपनी पसंद का नाम देना चाहते थे जबकि हिन्दू अपनी पसंद का। दोनो समुदाय में इस बात को लेकर जब तब उलझन लगी रहती थी। कुछ समझदार लोग ये भी समझाते थे कि नाम में क्या रखा है, ये तो पुरखों की धरोहर है इस का नाम इस गांव के नाम पर या नदी के नाम पर रख दो। पर कुछ स्वार्थी लोग शान्ति रहे ऐसा कहां चाहते थे। अवसर आने पर भड़काते रहते थे।
इधर हिन्दू सर्मथकों ने दरवाजा पुनर्उद्धार की एक समिति बना ली। रातों रात गांव के उस सिरे पर भी मिटिंग हुई और मुस्लिम समर्थकों की कमेटी गठित हो गई। दोनो पक्ष कार्यवाही करने लगे। सरकार ने मौका मुआयना करने एक दल भेजना तय किया।
इसके बाद रातों रात मजार पर हरी चादर चढ़ गई। लाल गुलाब और मोगरे के फूल सज गये। जलती हुई अगरबत्ती की धूप वातावरण में फैलने लगी। इसके दो रोज बाद ही हनुमान भक्तों को इस टूटे खण्डहर वीरान पड़े उपेक्षित हनुमान लल्ला की याद हो आयी। अब यहां भी पूजा, धूपबत्ती, दीपक, सिन्दूर-मालीपन्ना, फूलमाला चढ़ने लगी। धीरे-धीरे दोनो ओर भक्तों की संख्या बढ़ने लगी। मंगलवार रामबोले हनुमान के यहां भीड़ जुटती थी तो शुक्रवार सुल्तान हाजी पीर की मजार पर। हरी लाल ध्वजाएं हवा में लहराने लगी तो इसके साथ ही भीड़ भी बढ़ने लगी। अब कुछ फूल वाली मालिने भी अपने टोकरे लिए यहां बैठने लगी। कभी कभार मूंगफली वाले, चाट पकौड़ी के थैले वाले थी यहां आने लगे। पान के केबिन का ढ़ांचा भी खड़ा हो गया है और तो और अब तो यहां उर्स भी भरने लगा। हनुमान जयन्ती मनने लगी। अन्नकूट पर भोग भी लगने लगा।
दरवाजे के उस पार और इस पार का तनाव दिनों दिन पैर पसारता जा रहा था। इन सब से बेखबर त्रिवेणी संगम पर गुलनारा और शारदा की दोस्ती परवान चढ़ती जा रही थी। उनके चंगा-बित्तू खेलने के दिन अब लद चुके थे। अब तो उनकी गोद जीते जागते खिलौनो से भरने वाली थी।
‘‘दो दिन से तू आज आयी है?’’
‘‘क्या करूं जी मचलता है। कुछ अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘इमली खायेगी?’’
क्रमश : अगली पोस्ट में

2 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत अच्छी कहानी....सियासत और धर्म ही ज़हर घोलते हैं वरना तो सब मेलमिलाप से रह सकत हैं..

अपर्णा said...

कहानी आगे पढ़ने की उत्सुकता है ... जिस मोड़ पर कहानी को छोड़ा है वह जिज्ञासा बढ़ा देता है.... प्रतीक्षा में ...