Sunhare Pal

Wednesday, October 29, 2014

चुहल


मैं देख रहा हूं मोहन काॅलोनी की गली न. 11 में मकान नं. 115 जिस पर लिखा है - ‘शान्तिकुंज’ । जिस पर कल शाम से ही मेहमानों की आवाजाही शुरू हो गई है। सबसे पहले पम्मी आ गई। अपने पति, बेटा बहू, बेटी दामाद और पोते दोहते के साथ। पम्मी का लगाव अपनी भाभी से सदैव ही रहा। फिर भला इस मौके पर वह पीछे कैसे रहती? भाभी की सेवानिवृति का अवसर जो है।
विभा सबकी चहेती है। आॅफीस स्टाॅफ हमेशा उससे खुश रहा और अब उसकी सेवानिवृति को यादगार बनाने के लिए बलाॅक ‘ए’ स्टाॅफ, बी.बी. हेड आॅफीस और सिटी जोन सबने मिलकर पहले विदाई समारोह और फिर दावत का आयोजन रखा है। उसी में सम्मिलित होने के लिए सभी सगे सम्बन्धी, नाते रिश्तेदार, मित्र दूर दराज का सफर तय कर एकत्रित हो रहे है। सभी के लिए खाने ठहरने के सारे इंतजामात हो चुके है। सूचिया तैयार है फिर भी कई काम है जो ऐन मौके पर ही होने है। उल्लासमय वातावरण से पूरा घर गमक रहा है। फिर पम्मी का पूरे परिवार के साथ आना मानो घर में जान ही आ गई। जबसे पम्मी आई है विभा क्या सभी उसके आगे पीछे डोल रहे है। नन्द के दोहते पोते की बालसुलभ अठखेलियों से विभा बावली हुई जा रही है।
‘‘रात के ग्यारह बज रहे है, अब सो भी जाओ।’’ दिवाकर ने जम्हाई लेते विभा की ओर देखकर कहा- कल का ही दिन बचा है। बहुत कुछ तैयारी अभी बाकी है।
‘‘हो जायेगा। क्यों चिंता कर रहे हो भैया? अब तो मैं आ गई हूं। तुमहारी मदद को ये तीनो पुरूष हैं ही और बाकी रसोई में हम सब इतनी महिलाएं है ही। वैशाली बाजार का काम निब्टा देगी.....’’अपने परिवार की ओर इशारा करती पम्मी ने कहा।
‘‘वो तो सब करोगे ही पर इनका काम तो इन्हें ही निबटाना होगा न। वो तो हम करने से रहे। तुम्हारे पुराने साथियों में, स्कूल के मित्रों में कार्ड बंट गये?’’ दिवाकर ने विभा की ओर मुखातिब होकर पूछा।
‘‘छौड़ो भैया, भाभी के काम बहुत प्राॅन्ट है। सबकुछ पेपर पर कर लिया होगा। हमारी तरह दिमाग में बोझा लेकर नहीं घूमती वह। हां तो भाभी.....पम्मी विभा की ओर मुढ़कर कहने लगी- ‘‘सेवानिवृति के समय आप कौनसी साड़ी पहन रही है? जरा दिखाओ तो सही।’’
नन्द के कहते ही विभा ने अलमारी खोल साड़ी के पैकेट निकालने लगी।
मैं देख रहा हूं करीने से साड़ी कवर में न केवल साड़ी बल्कि उसकी मैचिंग के सभी चीजें उसमें व्यवस्थित रखी हुई है। जिन्हें देखते ही पम्मी ने कहा- ‘‘आहा! देखा न भैया, मैं न कहती थी भाभी के काम का जवाब नहीं। वाह! मैंगो राईप कलर। साड़ी को हाथ लगाते हुए पम्मी आगे बोली- ‘‘प्योर काॅटन है। इस पर ब्लेक थ्रेड की एम्ब्रायडी बहुत खिल रही है।’’
‘‘कैसी लगी?’’ विभा ने पूछाा।
‘‘खूब खिलेगी आप पर। वैसे आप कोई भी रंग पहने, सब जंचते है आप पर..... पर ये मैंगो राईप कलर ही क्यूं चुना आपने.... जरूर कोई कारण रहा होगा... ?.....क्यूं भैया ?
‘‘ओह! पम्मी....... एक तो इसमें फोटो अच्छे आयेंगी और दूसरा इस पर दाग नहीं लगेंगे। तुम तो जानती ही हो कि सेवानिवृति के समय अक्सर लोग...... माला गुलाल....’’ पीछे शब्द फुसफुसाकर कहती हुई विभा शर्मा गई। विभा की स्थिति देख सब हंसने लगे।
‘‘हूं तो ये बात है।’’ कहते हुए पम्मी ने विभा के कंधों पर साड़ी फैला दी। ‘‘बहुत खूबसूरत लग रही है आप।’’
‘‘हश!’’ पम्मी की इस टिप्पणी पर विभा फिर शरमा गई। पम्मी ने झूठ नहीं कहा साठा की उम्र में भी विभा वाकई में अभी बहुत आर्कषक लगती है। सरकार चाहे उसे रिटार्यड कर दे पर अभी उसके शरीर में बिजली जैसी चपलता और ऊर्जा है। मैंने देखे है उसके नौकरी के 38 बरस। सरकारी नौकरी करके उसने दिवाकर की पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने में पूर साथ दिया। जीवन के अड़तीस बरस किसी कामकाजी महिला के लिए कम नहीं होते सो लगातार संघर्षाे की धूपछांव से गुजरते विभा को आराम कम और काम का बोझ ज्यादा ही ढ़ोना पड़ा।
पर ये जरूर कहूंगा कि निरंतर कार्य करते रहने के कारण उसके व्यक्त्वि में एक अनूठी आभा समाहित हो गई। जिससे शारीरिक सौष्ठव भी बकरार रहा। चहुं ओर भूरि भूरि प्रशंसा के उठते स्वर उसमें ऊर्जा भरते रहे। क्या कुछ पीछे छूट गया है शिकायतों के स्वर मंद होते गये। इसका आकलन उसने क्या किसी ने नहीं किया। कब गर्म तवे से हाथ चिपके, कब स्कूटी से पैर फिसला और हड़बड़ी में एक के बदले कब वो दो दो चश्मे सिर ओर आंखों पर चढ़ाए वह दफ्तर पहुंच गई। ये भला अब कोई क्यूं याद करेगा। महीने के शुरूआत में मिली पगार में कितना इन्तजार भरा मिठास है अब यह चरचा यहीं विराम ले रही है क्योंकि आने वाली सुबह अब हमेशा जैसी सुबह नहीं होगी। कल के सूरज का आगमन विश्राम की सुप्तपड़ी कलियों को चटका देगा और फिर जीवन को विश्रान्ति मोड में ले जाकर हमेशा के लिए टिका देगा।
मैं देख रहा हूं आॅफीस जाने के लिए तैयार होती विभा की तस्सली और ठण्डापन को। घर से चली तब भी चिरपरिचित सहकर्मियों के बीच कार्यकाल का अंतिम गुजरते दिन पर मन की सर्द छाया उसके मुखमंडल को घेरे हुए थी। काम की गति को शाम 5 बजे रजिस्टर पर अंतिम हस्ताक्षर अंकित करते समय प्रत्येक उपस्थित व्यक्ति खुशी व गम के रीमिक्स वातावरण में तैर रहा था। विभा ने साईन कर हौले पेन बंद किया। मैंगो राईप साड़ी का बसंती रंग, डायमण्ड रूबी की ज्वेलरी, होठों पर लगी लिपिस्टिक का नूरानीपन इस ठण्डेपन को दूर करने में असफल हो रहा था। एकाएक विभा की आंखें छलछला आयी। पर्स खोल रूमाल निकाल उसमें उन बूंदों को मानो सहेज लिया। उसके गले में एक माला आ गिरी। उसकी नजरे उठी। उसकी जगह कार्य संभालने वाला उसका अधिनस्थ था। फिर तो एक के बाद एक करके मालाएं उसके गले में आती रही। गला पूरा मालाओं से लद गया।
आॅफीस बिल्डिंग के खुले लाॅन से सटे बरामदे में कुर्सिया लगी थी। निके आगे टेबल कुर्सिया लगाकर मंच बना दिया था। एक ओर माईक रखा था। वहीं किनारे की टेबिल पर ढ़ेर सारी फूलमालाएं व चमकती पिन्नियों में बंद उपहार के पैकेट सजे हुए थे। सुशान्त ने माईक संभाला विदाई समारोह का संचालन करने के लिए। ये सुशान्त ही है जो है स्टनोग्राफर पर उसे मंच संचालन का बहुत शौक है। अपने इस हुनूर को दिखाने के अवसर आॅफीस में यदा कदा ही ऐसे अवसर आते है। सुशान्त अनिकेत का मित्र है ओर अनिकेत विशाल का और विशाल देवदत्त का।
‘‘विभा इनसे मिलो ये है देवदत्तजी।’’
‘‘हां हां पहचानती हूं इन्हें।’’
‘‘बताओ तो कौन है?’’
‘‘बचपन से ही इन्हें जानती हूं। ये देवदत्तजी है। इनके पिता मेरे पिता के मित्र रहे। इसलिए इनका हमारे घर आना जाना था।’’
‘‘ठीक पहचाना तुमने’’ दिवाकर ने कहा।
‘‘लीजिये यह मिठाई लीजिये।’’ विभा ने देवदत्त से कहा।
‘‘नहीं मिठाई मैं नहीं खाता, डायबिटीज है।’’ विभा ने खमण की प्लेट आगे कर दी। देवदत्त ने एक टुकड़ा खमण का उठा लिया। ‘आती हूं’ कहकर इसके बाद विभा आगे बढ़ गई। हंसी खुशी में मगन विभा को देखकर बहुत अच्छा लग रहा है।
समय पंख लगाकर उड़ गया। आज विभा कितना थक गई होगी। रात बिस्तर पर गिरते ही  पहली बात विभा ने यहीं कही ‘‘बहुत थक गई हूं।’’
‘‘तुम क नहीं थकती, यह तो तुम्हारा तकिया कलाम है। दिवाकर का कुछ ओर ही मूड था उसने विभा से चुहल की तो वह चिढ़ गई।
‘‘तुम्हें तो मशीन लगती हूं मैं। दो दिन से लगातार चल रही हूं क्या थकूंगी नहीं।’’
‘‘कम से कम आज तो मूड खराब मत करो।’’ देवदत ने अपनी बाहें पसारी।
‘‘आप बात ही ऐसी करते है।’’ विभा कुछ ढ़ीली हुई।
‘‘अच्छा ये बताओ तुमको देवदत्त से बात करते हुए कैसा लग रहा था?’’
‘‘क्या मतलब? कैसा क्य?
‘‘नहीं नहीं मैं वैसे ही पूछ रहा था। वो तुम्हारे यहां आता जाता था न! दिवाकर के कहने का अर्थ विभा समझ गई। ‘'उससे क्या? जिस रास्ते जाना ही नहीं मैं उधर देखती ही नहीं।’’ विभा ने कहा और करवट बदलकर मुंह फेर लिया।
सही तो कह रही है विभा। विभा का छोटा भाई इस मौके पर नहीं आया। सब आये पर वो नहीं आया। विभा ने उसे बुलाया ही नहीं। उससे सारे नाते तोड़ लिए। दिवाकर ने मना किया तो कहने लगी- जिस रास्ते जाना ही नहीं उधर क्यूं देखना? 
विभा के खर्राटों का कठघरा दिवाकर को जकड़ने लगा। खामोश विभा की हर श्वास चीख रही है- ‘खून के रिश्ते से नाता तोड़ लेने वाली विभा के बारे में देवदत्त को लेकर ये विष कीड़ा दिवाकर तुम्हारे मन में क्यों पनपा?’ 
मैं देख रहा हूं विभा सो चुकी है गहरी निद्रा में लीन और दिवाकर जाग रहा है कचैटते मन में क्षणभर पहले आये विषैले ख्याल के फन को कुचलते हुए- ‘‘विभा के बिना रह सकते हो तुम? बेशक देवदत्त बचपन में विभा के घर आता जाता रहा। विभा के पिता ने देवदत्त से उसके विवाह की बात भी चलाई...पर बात आगे बढ़ी नहीं। खत्म हो गई..... तो फिर ये मन कौन सा बिना छोर सिरा ढूंढ लाया। विभा से विवाह हुए 40 वर्ष गुजर चुके। आज भी दीवाना हूं उसका। आज ीाी वह मुझे लुभाती है। उसके बिना जीने की कल्पना नहीं। उम्र के इस पड़ाव पर आखिर ये क्षुद्र विचार मन में आया कहां से? विभा ने पूरी निष्ठा से अपना जीवन, तन और मन मुझे समर्पित कर दिया फिर ये शक का कीड़ा....क्यों कर कुलबुलाया। बिन बरीश बरसाती मच्छर ने डंक मार दिया हो.‘‘....आक! थूं’’ मुंह में कसैलापन भर गया था। उठकर उसने बेसिन में कुल्लाकर पानी पीया। मुंह का जायका बल चुका था। विभा ने करवट बदली खिड़की से आती निर्मल चांदनी में उसका मुंह कांतिमान होता दिवाकर के सामने था। दिवाकर उस चेहरे की सौम्यता पर झुकने ही वाला था कि गर्म सांस उससे टकराती कह गई- ‘तुम मर्द कितना जल्दी अपना संतुलन खो बैठते हो....।’

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