Sunhare Pal

Tuesday, September 22, 2009

आरोह - अवरोह
मेरी आंखों से झर झर आंसू झर रहे थे। मुझसे उनकी ये हालत देखी नहीं जा रही थी। उन्हें सांस लेने में काफी तकलीफ हो रही थी। फिर उपर से ये खांसी का दौरा, खांसते-खांसते तो मानो प्राण ही निकल जायेंगे। वह बेदम सी हुई जा रही थी। ‘हे भगवान! इन्हें जल्दी ठीक कर दे’ मन ही मन मैं बार-बार यही गुहार लगाती हुई उनकी पसलियों पर विक्स की मालिश कर रही थी। मालिश के बाद मैंने उन्हें खांसी की दवा दी। आराम होने में कुछ समय लगा। उन्हें आराम मिला तो नींद भी आ गई।
मैंने झुककर देखा, क्या वह सो चुकी है? ‘हां ’शायद’ मैं उठने के लिए हिली तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया- ‘कहां जा रही हो?’ उनकी आंखों में ये प्रश्न चमक रहा था और साथ ही चेहरे पर खुदा हुआ आदेश भी- ‘यहीं रहो, मुझे छोड़कर मत जाओ’ और मैं उनके पास बैठकर फिर से उनकी छाती को सहलाने लगी।
सोयी हुई भी वह ममता की मूर्ति नजर आ रही थी। खुद तकलीफ देख लेती पर मुझे किसी प्रकार की तकलीफ हो यह उन्हे गंवारा न था। आगे बढ़कर गृहस्थी की चक्की में जुत जाती। भोर सवेरे से ही उठकर वह कई काम सलटा देती। मैं उठती तो सामने उनकी बनाई हुई गरमा-गरम चाय होती। मुझे चाय पिलाते समय एक सन्तुष्टि का भाव उनके चेहरे पर तैरता मिलता। मुझे भूख कब लगती है इसकी घड़ी भी उनके पास ही होती। सुबह नौ बजते ही दूध के लिए उनकी पुकार सुनाई पड़ जाती। एक बार की आवाज पर जब सुनवायी नहीं होती तो वह दूसरी बार बुलाती और तीसरी बार में तो वह खुद देने पहुंच जाती। तब बड़ा दुख होता, ‘‘आप क्यूं आयी, जीना चढ़कर ऊपर ? आपकी तबीयत ज्यादा खराब हो जायेगी तब ?
वह हंसकर कहती, ‘‘अब मर भी जाऊं तो कोई दुख नहीं, तुम आ गई हो न अब घर संभालने। अब मैं चैन से मर सकती हूं।’’
‘‘आप हमेशा मरने की बात क्यूं करती है ?’’ कहते हुए मेरी हथेली उनके मुंह को ढ़क देती। ‘‘कभी सोचा आपने, आपके जाने के बाद मेरा क्या होगा ? मैं तो आपके बिना एक पल जीने की सोच भी नहीं सकती।’’
‘‘पगली हो तुम!’’
‘‘नहीं मैं सच कह रही हूं। आपकी छाया सदैव मुझ पर बनी रहे।’’ मैं उनसे लिपट जाती और वो भावविभोर हो मेरी पीठ सहलाने लगती।
‘‘आप जल्दी अच्छी हो जाओगी।’’ और वाकई में ऐसा हुआ भी। मेरी शादी के बाद वह बहुत खुश रहने लगी थी और स्वस्थ भी। किन्तु जब कभी फिर पुरानी बिमारी उभर आती तो उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ता।
अब तो वह अस्पताल भी मेरे बिना नहीं जाती, कहती थी- ‘‘तुम आओगी मेरे साथ। तुम डॉक्टर को ठीक से बता पाओगी और उसकी कही बात को भी तुम्हें ही समझना है।’’ उनकी बात ठीक भी थी। 24 घंटे उनके साथ रहते हुए उनकी बिमारी को मैं काफी अच्छी तरह समझने लगी थी। उन्हें हर वो हिदायत देती व उस बात से दूर रखने का हर संभव प्रयत्न करती जो उनकी बिमारी का कारक बनता। दवाई के मामले में तो मैं बेहद गंभीर थी। एक खुराक भी भूले से नहीं चूकती ताकि पुरानी बिमारी दबी रहे, उभरने न पाये।
खुशहाल समय पंख लगाकर गुजरता जा रहा था। अब तो उनकी गोद में पोते-पोती खेलने लगे थे। वे बड़ी प्रसन्न थी। उन्हें तो उम्मीद नहीं थी कि वह इतना सबकुछ अपनी आंखों से देखेंगी। ‘ये सुख भी नसीब ने लिखा है’, अपनी आस से भी अधिक पाकर धीरे-धीरे वह अपनी बिमारी को भूलने लगी।
बच्चे उन्हीं के पास सोते उनकी अगल-बगल में लिपटे हुए। उनमें आपस की लड़ाई होती, ‘दादी के पास कौन सोयगा?’ दादी को तंग करते हमारी तरफ मुंह करके सोओ। वह जिधर मुंह करती पीठ की तरफ वाला बच्चा नाराज हो जाता और रोने लगता। मजबूरन उन्हें सीधा लेटना पड़ता। बच्चों का कब्जा ऐसा दादी पर की उन्हें नींद आने पर ही वह करवट ले पाती। कभी-कभी तो वह झिड़कते हुए सबको दूर करते हुए कहती, ‘‘मेरे मुंह के पास न आओ, कहीं मेरी बिमारी तुम्हें ना लग जाये।
बच्चे छोटे थे तो वह गोदी में उठाये उन्हें अपने साथ मंदिर ले जाती। घर से निकले बच्चे और उधमी हो जाते। इधर उधर दौड़ा-दाड़ी करते। कुछ नहीं तो शू-शू ही कर देते। ऐसे में बेचारी की बन आती और दूसरों को उन्हें नसीहत देने का अवसर मिल जाता। इस सबसे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। उनका वात्सल्य तो मानो गहरा समुद्र वह बच्चों को खुद से ऐसे चिपका लेती जैसे कोई उनसे उनके बच्चे पृथक कर रहा हो। बच्चे बड़े हुए तो उनके प्रेम का स्वरूप बदल गया। उनकी पसंद से टिफन बनाना, स्कूल तक टिफन पहुंचाना, उनके टीचर से निजी तौर पर मिलना, अनेक हिदायतो का देना इन सबके बीच नई पौध यौवन की दहलीज के पार पहुंच गयी।
वह समय भी आया जब उनकी पोती की सगाई हुई। पोती के दामाद को देखकर वह निहाल हो गई। नसीब में इतना सुख भी छिपा है अपनी दुर्दांत बिमारी के चलते ऐसा उन्होंने सोचा भी न था। खुश हुई वह अपने नये दामाद के आगे पीछे डोलने लगी। उनके पांवों में यौवन सी शक्ति आ गई। स्फूर्त हुई वह पेट के रास्ते दामाद पर अपना नेह लुटाने लगी। उनकी पाककला अपने चरम पर पहुंच गई।
पोती की शादी में मन का सारा उल्लास फूट पड़ा। सामथ्र्य से अधिक श्रम करके उन्होंने हर अवसर को संवारा। उनके पारंगत तरीके और अनुभव चरम पर जा पहुंचे। नतीजन जर्जर देह पर पुरानी बिमारी भारी पड़ने लगी। वह फिर बिस्तर के अधीन होकर रह गई।
उनकी तामीरदारी करने वालों की संख्या अब बढ़ गई थी। अच्छे से अच्छे डॉक्टर, अच्छी से अच्छी दवाई और भरपूर इलाज से कुछ दिन का सुधार तो हुआ पर अब उनका काम करना मुश्किल हो गया। शरीर की शक्ति चुक गई। बैठे रहना उन्हे रास नहीं आता। यह स्थिति उन्हें खिजाने लगी। ऊपर से रोटी के कौर उनके गले में फंसने लगे।
दिनों दिन हालत बदतर होती जा रही थी। एक रोटी खा पाना भी मुश्किल होता जा रहा था उनके लिए। रोटी सब्जी में चूरकर खाना, दलिया-खिचड़ी खाना उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं रहा। पेट की श्रुधा का हल रोटी ही था जिसे वह खा नही पा रही थी। वह रोटी से नाराज होने लगी, क्रोधित होने लगी। कभी थाली को तो कभी रोटी को पटकने लगी- ‘‘यह रोटी मुझे दुश्मन की तरह लग रही है। ले जाओ इसे सामने से। ये सामने आती है तो मुझे चिढ़ आती है।’’ मन दुखी होता, हम सब बेबस और लाचार से उन्हें समझाने का प्रयास करते तो वह फूट-फूटकर रो पड़ती।
‘‘तुम क्या सोचते हो? मुझे खाने की इच्छा नहीं होती? पर मेरा कंठ देखो, सिकुड़ गया लगता है। पानी के साथ जबरन उतारते हुए बहुत तकलीफ होती है।’’
‘‘आप कुछ दलिया या....’’ बात अधूरी ही रह जाती। उस बूढ़े और बिमारी जिस्म में न जाने कहां से इतना तैश समा जाता कि वह इन सबका नाम लेने ही नहीं देती। फिर खुद ही फूट पड़ती- ‘‘मैं कहती हूं कि जिसकी रोटी छूटी उसका घर छूटा।’’
‘‘आप बेकार की बात न करा करें।’’ मेरी आंखे भीग उठती। अभी पिछली दफा ही डॉक्टर ने कहा था- ‘‘यह कुछ दिनों की मेहमान है। दोनों फैफड़े खत्म हो चुके है। लीवर और ह्रदय संक्रमित हो चुका है। आंतो में सूजन है अब इलाज लगना मुश्किल है। इनकी सेवा करो।’’
डॉक्टर की बात सुनकर मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ। ऐसा कैसे हो सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। बरसो से इन्हें बिमार देख रही हूं। कुछ दिन बाद यह फिर ठीक हो जायेंगी। अभी इनको और जीना है हम सबके लिए। इनके बिना जीने की बात मेरी बर्दाश्त के बाहर थी। उनका इलाज चालू रहा। डॉक्टर बदल गये। दवाईयां बदल गई तो परिणाम भी सुखद निकला। एक बार फिर उनकी जीवन गाड़ी ढ़र्रे पर आ गई।
कुछ समय तो ठीक से गुजरा किन्तु थोड़े समय बाद वह फिर बिस्तर की होकर रह गई। फिर से उनका खाना-पीना मुहाल हो गया। एक एक अंग उनका साथ छोड़ने लगा था। वह धीरे-धीरे मौत की ओर बढ़ रही थी। मैंने अपने आपको इतना असहाय कभी नहीं पाया। उन्हें एक पल भी छोड़ना और उनके लिये मौत की बात भी सोचना मेरे लिए असá था।किन्तु वह थी कि हिदायते देने लगी। मुझे समझाने लगी- ‘‘देखो, तुम गंगाजल व तुलसी मेरे मुंह में रखना, साथ में गंगामाटी भी। मुझे मोक्ष मिले। मेरी काया को गति मिले। मेरे मरने के बाद तुम्हें क्या-क्या करना होगा, तुम ध्यान से सुन लो। फिर तुम्हें कौन बतायेगा?’’
और मैं?..... हंसकर टाल जाती उनकी इन बातों को। ‘‘आप अच्छा-अच्छा सोचो। आप नहीं मरेंगी। आपको जीना होगा हमारे लिए। आप जल्दी ठीक होने की सोचो।’’ मैं उनका विश्वास बढ़ाने की सोचती और खुद भी विश्वस्त होने की कोशिश करती।
तीन दिन हो गये, अन्न का एक दाना भी उनके मुंह में नहीं गया। किसी तरह का जूस देकर उनकी खांसी को बढ़ाना था। सूप या मूंग की दाल का पानी उन्हें पसन्द नही। उनका पसंदीदा पेय चाय के बस घूंट दो घूंट, यहीं उनके हलक से उतर रहे थे।
आज गणगौर का त्यौहार था। उन्होंने हमें पूजा करने जाने का आंखों से ही आदेश दिया। वो अब इतनी नि:शक्त हो चुकी थी कि शब्दों को मुंह से ठेल भी नहीं पा रही थी। कुछ अस्फुट स्वर ही उनके मुंह से निकल रहे थे।
मैंने पूजा के लिए विशेषतौर से गोटा लगी चुनर पहनी। ‘मुझे इसमें सजी देखकर वह बहुत खुश होगी।’ ऐसा मेरा अनुभवभरा जीवन रहा है। पूजा करने जाने से पहले मैं उन्हें दिखाने गई, ‘‘देखो मां! तुम्हारी बहू कैसी लग रही है?’’ उनकी आंखे भावना शून्य थी। प्रेम रस से सरोबर आंखे आज सूनी सूनी थी। मुझे आश्चर्य हुआ मोह का सेतु कैसे टूट सकता है? ‘मोह रखने वाली ये आंखे आज इतनी निर्मोही कैसे हो गई?’
बाहर सड़क पर बहुत शोरगुल था। ढ़ोल नगारे बज रहे थे। गणगौर की सवारी अपने पूरे यौवन पर थी। इधर वह बेदम हुई जा रही थी। पास बैठी हुई मैं मन ही मन कामना कर रही थी कि ये एक बार, बस एक बार ठीक हो जाये। तभी उन्होंने इशारा किया। हाथ से गोलाई खींचते हुए हाथ मुंह की ओर ले गई। मैं तत्काल समझ गई। वह रोटी मांग रही है। मैं उठी और एक गरम, घी से चुपड़ी नरम रोटी ले आयी। ताकि वे खा सके। मैंने कौर तोड़कर उनके मुंह में डाला। उन्होंने कौर को मुंह में घुमाया, चबाया पर वो निगल नहीं सकी। कौर गले में ही अटक गया। वो उलझ गई। खांसी का दौर उठा तो रोटी का कौर बाहर था। वह खांसते-खांसते बेदम होकर लुढ़क गई।
अनायास ही मेरे हाथ उपर की ओर उठ गये, ‘‘ हे भगवान! अब इन्हें मुक्ति दे। इनकी ये हालत मुझसे नहीं देखी जा रही।’’ उसी क्षण कहीं भीतर कुछ चटका। मेरी अरदास थी या मोह के सेतु का टूटना। पंछी पिंजरा छोड़कर उड़ गया। मेरे हाथों से उनकी नब्ज खिसकती चली गई और आंखें फटी की फटी रह गई। जिन्हें बंद करते हुए मैं अपराधबोध से बोझिल हुई जा रही थी-
‘ये मुझे क्या हो गया था? मैं क्यों बदल गई? हमेशा ईश्वर से मैंने इनके लिए जीवन मांगा आज मौत कैसे मांग ली। ये क्या हो गया था मुझे? मैं ऐसे कैसे बदल गई? क्या मैं बड़ी हो गई?

4 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

सुन्दर मार्मिक कथा, इंसान बेबस है उस अंतिम सत्य के सामने,

दिनेश कुमार माली said...

विमलाजी आप बहुत भाग्यशाली हैं ,माँजी के प्राण आपकी गोदी में निकले. आपने उनकी बहुत सेवा की ,अतः उनकी बिगड़ती तबीयत को देखकर आपकी मनोस्थिति का बदल जाना किसी प्रकार का अपराध-बोध नहीं हैं .मुझे वे दिन याद हैं ,जब पिताजी की तबीयत इतनी बिगड़ गयी थी ,कि डॉक्टरो ने जवाब दे दिया था . वह अहमदाबाद की वाडीलाल हॉस्पिटल में भर्ती थे. उनकी असहनीय अवस्था देखकर माँ ईश्वर से प्राथना करने लगती थी कि हे ईश्वर ! भले उनके प्राण ले लें मगर उनको इतना कष्ट न दें .यह सत्य है कि जो मनुष्य जिनको जितना प्रेम करता हैं वह उसके दुःख-दर्द देख नहीं सकता है.यही तो जीवन का आरोह-अवरोह हैं.

Dr. Vimla Bhandari said...

आप के द्वारा दी गई प्रतिक्रियाएं मेरा मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन करती हैं। आप मेरे ब्लॉग पर आये और एक उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया दिया…. शुक्रिया.
आशा है आप इसी तरह सदैव स्नेह बनाएं रखेगें….

rashmi ravija said...

bahut hi sundar ,marmik rachna...dil me halchal macha gaya..