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Monday, October 19, 2009

रोशनी

रोशनी
यह एक बेहद ठण्डी सुबह थी। रात भर बरसात की धीमी तेज बौछार चलती रही। रह रहकर हवा के तेज थपेड़े खिड़की के शीशों से टकरा टकराकर उन्हे झंकृत करते रहे। सर्दी में हुए इस मावठ और शीतलहर की ठण्डी हवा ने पूरे वातावरण में ठिठुरन भर दी। आकाश अभी साफतौर से खुला नहीं था।
सिस्टर बेसीला जब अतुल के घर पहुंची तो घड़ी सुबह की सात बजा रही थी किंतु अभी भी धुंधलाका पसरा हुआ था। चारों ओर छितराये मकान और खाली पड़े प्लाटों के बीच कच्ची और उबड़-खाबड़ सड़क को पार करती हुई वह अतुल के मकान तक पहुंची। सन्नाटे को चीरते हुए आगे बढ़ते हुए थ्रीव्हिलर के रूकते ही उसकी भड़भड़ाहट खामोश हो चुकी थी। बेसीला ने नेमप्लेट पढ़ी - 7 च गोकुल विहार।
हां यही घर है। उसने गर्दन हिलाई और भाड़ा चुकाया। कॉलबेल दबाने से पूर्व उसने भरपूर नजर से घर को निहारा। तो यह है अतुल का नवनिर्मित घर। कितना बुला रहा था उसे। एक बार आ जाओ। हमारा नया मकान देख जाओ। और वो उसे हमेशा ठण्डे आश्वासन ही देती रही। हालांकि उसका मकान देखने की इच्छा मन में थी।
एक्च्युल में वह बेसीला नहीं थी। मांझल थी। बेसीला तो चर्च के पादरी का दिया हुआ नाम था। मांझल अतुल की पूर्व पड़ौसिन थी। तुतलाने के कारण वह बचपन में उसे मांझल की जगह माचिस कहा करता था। बाद में भी सही बोलने के बावजूद उसने अपनी आदत नहीं सुधारी। इस नाम से उसे पुकारने में उसे अनोखा आनंद आता था। उनके बीच न खून का रिश्ता था न मित्रता का। पड़ौसी होने की, एक साथ खेलकर बड़े होने का एक आत्मीयता भरा प्रगाढ़ स्नेह था। जो कि समय बदल जाने के बाद भी, सबकुछ बदल जाने के बाद भी आज भी उसी तरह कायम था।
आज भी अतुल की स्मृति में वह घर अंकित है जो कभी मांझल का हुआ करता था। जहां वे रेत के घरोंदे बनाया करते थे। फूल पत्ती रोपकर बगीचा बनाकर उसे छोटे-छोटे शंख सीपियों से अपने नाम को लिख मांझल सजा दिया करती थी। अपने से सुंदर उसका घरौंदा देख अतुल चिड़चिड़ा उठता। तब किसी हुनुरबंद शिल्पी की तरह मांझल बड़ी गंभीरता से कहती ‘‘मेरा घर तुम ले लो मैं दूसरा बना लूंगी।’’
‘‘सच्ची में’’ अपनी विस्फारित कंचे सी आंखे घूमता हुआ अतुल अंतरिम स्वीÑति चाहता और वह सचमुच वह घरौंदा अतुल के लिये छोड़ दूसरा बनाने में जुट जाती। होनी किसे मालूम थी, वो एक काल का दिन था - सड़क हादसा हुआ और सबकुछ निगल गया। केवल मांझल बची। दस-ग्यारह साल की घायल बच्ची। फिर कुछ लोग आये थे जिन्होंने उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया था। इसके बाद वह एक अच्छे स्कूल में पढ़ने चली गई। बाद में मांझल वहां की टीचर बन गई। कभी मां के साथ मिलने चला जाया करता था अतुल। मां कुछ न कुछ ले जाया करती थी उसके लिये। एक बार उसके जन्मदिन पर अतुल की मम्मी ने उसके लिये चाकलेट भिजवाई थी। पता चला चाकलेट वह खुद खा गया और उसे एक भालू वाला छल्ला दे आया। जिसे देख वह बहुत हंसी थी। पुरानी स्मृति के उभरते ही बेसीला के होठों पर मुस्कान उभर आयी। कॉलबेल दबाने से पूर्व ही घर का द्वार खुल चुका था।
‘‘मकान ढ़ूंढने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई? अभी नई-नई बस्ती बसी है।’’ उसके हाथ से सामान लेते हुए अतुल की पत्नी वृन्दा ने पूछा।
‘‘नहीं’’ चारों ओर नजरें घुमाकर वो मुस्कुरा उठी।
मां किससे बात कर रही है, कौन आया है? एक एककर वृन्दा के तीनों बच्चे यह देखने चले आये।
बड़ा बबलू- सांवले मुखड़े पर पसरी नाक और उछलते हुए कटोरी कट बाल वाला। सफेद स्कूल यूनीफार्म पहने हुए, छोटा छोटू - कच्छा बनियान पहने सर्दी से कांपता हुआ, अभी आधा तैयार और तीसरी बिट्टू - दुर्बल देह पर शमीज और उस पर हाफ कट स्वेटर धारे हुए, बिल्ली के कान जैसे सिर के दोनों ओर पोनीटेल - रबड़बेंड से बंधे हुए।
‘‘हैलो पूसी केट’’ आकर्षित हो बेसीला ने उसे छूना चाहा। उसके बोलते ही बिट्टू मां के गाऊन के घेरे को अपने चारों ओर लपेटते हुए घूम गई। जिससे मां के गाऊन का घेरा कस गया। उसमें छिपी बिट्टू ऐसी नजर आ रहा थी जैसे कंगारू की झोली में बच्चा। वृन्दा उसे खींचते हुए झुंझला उठी -
‘‘छोड़ न! मुझे गिरायेगी। फिर मेहमान की ओर उन्मुख होकर बोली -
‘‘बैठो बेसीला चाय लाती हूं। बहुत सर्दी है बाहर। रात भर के सफर की थकान भी होगी।’’ कहते हुए वृन्दा ने बैठक के दीवान पर रजाई लाकर डाल दी।
-मम्मी मेरी बेल्ट कहां है.....
-तुम्हारे टिफिन में क्या रखूं? परांठा आचार या सैण्डविच....
-मेरी विज्ञान की किताब नहीं मिल रही.....तीनों स्कूल जाने की जल्दी में थे।
‘‘जरा बच्चों को स्कूल भेज दूं फिर हम तसल्ली से बैठेंगे।’’
हां हां कोई जल्दी नहीं। तुम निपटा लो। वैसे भी उदघाटन सत्र ग्यारह बजे शुरू होगा और वह सुस्ताने लगी। बेसीला ने कसकर रजाई अपने चारों ओर लपेट ली। सिस्टर बेसीला यहां तीन दिवसीय प्रशिक्षण शिविर में प्रशिक्षु बनकर आयी थी। वैसे तो बाल कल्याण विभाग वालों ने ठहरने की सारी व्यवस्था की थी किंतु वह अतुल के यहां ठहरने की अनुमति फादर से लेकर आयी थी।
-ओह! मम्मी देखो न यहां कितने मकौड़े जमा हो गये है।
-देखूं कहां......उफ! यह कचरा अभी तक यहीं पड़ा हुआ है।
-बबलू! बबलू · ·, तुमने रात को कचरा बाहर नहीं डाला।
-रात मुझे नींद आ रही थी मैंने छोटू से कहा था डालने को।‘‘बताया हुआ काम नहीं करता।’’कहते हुए शायद उसने छोटू के कान उमेठ दिये थे।
छोटू चीखकर रो पड़ा। दोनों के बीच तड़ातड़ शुरू हो गई। रसोई से बाहर निकल मां ने दोनों को अलग किया।
-क्या बात है सुबह-सुबह किस बात से मारपीट कर रहे हो?
-मम्मी देखो यह बड़े भाई पर हाथ उठाता है। बबलू तत्परता से बोला।
-नहीं पहले दादा ने मेरा कान खींचा था......ये मेरा बताया काम नहीं करता.....मैंने इसको कचरा डालने के लिये कहा था......मम्मी मक्काड़े.......मकौड़े.......... ही मक्काड़े...... मकौड़े........ बाथरूम में मैं नहाने कैसे जाऊं.......रोज-रोज कचरा डालने का मेरा ही ठेका है क्या......मैं नहीं डालूंगा आप छोटू और बिट्टू को क्यूं नहीं कहती......
-चुप ··, वृन्दा चीखी। उसके सब्र का बांध टूट चुका था। इस चीख चिल्लाहट में अतुल भी जाग गया था।
- ये क्या हल्ला गुल्ला हो रहा है बबलू.....छोटू। पिता के जागते ही घर में शान्ति सी छा गई। बच्चे बेआवाज मशीन की तरह बिना खटपट किये निपटने लगे।
बाहर ओटो रूकने का स्वर उभरा। ‘‘बबलू तुम्हारा ओटो आ गया है।’’
दरवाजा खुलने की आवाज से रजाई छोड़ बेसीला उठ खड़ी हुई। स्कूल जाते बच्चों से बाय कर लूं। बाहर अभी पूरा उजाला नहीं हुआ था। बरसात की नमी ने मौसम को और सर्द बना दिया था। बादल अभी भी छाये हुए थे।
-बबलू कचरे की थैली लेते जाना।
-नहीं मैं नहीं ले जाउंगा। बैग पीठ पर लटकाए बबलू बाहर रपट लिया।
-प्लीज बेटा ......
-नहीं, मेरे दोस्त हंसते हैं। लगभग दौड़ते हुए उसने जवाब दिया।
-अरे इसमें हंसने की क्या बात हुई। बाहर सड़क पर ही तो फैंकनी है। रात भर कचरा पड़ा रहने से देखो कितनी गंदगी हो गई है। मां कहती ही रह गई। बबलू ऑटो में बैठ चुका था।
-अच्छा छोटू तुम लेते जाओ।
-नहीं मां मुझे शर्म लगती है।
-इसमें शर्म कैसी घर का काम है। मेरा राजा बेटा। मां ने उसे पुचकारा किंतु दादा की तरह वह भी बैग, बोतल व टिफिन उठाये टैम्पो में लद चुका था।
अस्त व्यस्त मौन घर तूफान गुजर जाने जैसा लग रहा था। अतुल भी निवृत हो अखबार लिये आ बैठा।
‘‘कैसी हो? घर ढ़ूंढ़ने में कोई परेशानी तो नहीं हुई। फोन कर देती, मैं लेने आ जाता........ वृन्दा चाय में कितनी देर है?’’
‘‘लाती ही होगी। बच्चे अभी ही स्कूल गये है। क्या तुम्हारे यहां हर रोज ‘सुबह’ ऐसी ही तूफानी होती है।’’ बेसीला ने मुस्कुराते हुए पूछा।
‘‘हां, ऐसी ही तीन सुबह और तुम्हें यहां गुजारनी है।’’ जवाब देते हुए अतुल भी मुस्कुरा उठा।
‘‘किसी को पागल करने के लिये बहुत है।’’ बेसीला ने कहां और खिलखिला पड़ी।
‘‘शाम को तुम मोबाइल कर देना मैं लेने आ जाऊंगा। कब तक फ्री हो जाओगी?’’
वृन्दा चाय ले आयी। वे पीने लगे।
‘‘यह तो वहां जाकर ही पता चलेगा कितना वर्क लोड है।’’
‘‘केवल खानापूर्ति होते है ऐसे प्रोग्राम होना जाना कुछ नहीं। सबकुछ जस का तस रहता है।’’
‘‘ऐसा तो नहीं है.......’’
‘‘नब्बे प्रतिशत ऐसा ही होता है’’ अतुल अपनी बात पर बल देते हुए आगे समीक्षा करने लगा - हां, पर करने पड़ते है ऐसे प्रोग्राम। ऊपर से प्रेशर रहता है। बजट पूरा करो...... काफी फंड रहता होगा.......?’’
‘‘हां, बाल कल्याण के नाम से काफी फंड आता है......विदेशों से भी।’’
‘‘कितने भी प्रोग्राम कर लो कोई फायदा नहीं। पर यहां प्रोग्राम होने से एक फायदा यह हो गया कि तुम्हारा यहां आना हो गया।’’ और वह हंस पड़ा। उसकी इस बात पर बेसीला भी मुस्कुरा उठी थी।
तभी डोर बेल बज उठी। डिंग · डांग · डिंग · डांग ·।
‘‘आ गई......’’ चिहकती हुई वृन्दा ने दरवाजा खोला।
-दीदी कचरा है क्या.....?
-तीन दिन से आई क्यूं नहीं कितना जमा हो गया है........
जमा तो उस पर भी हो गई थी मैल की कई गर्ते। गंदेले कपड़े, मुंह और हाथ पांव पर जमी मैल ने उसकी रंगत ही मटियाली कर दी थी। बिखरे उलझे शुष्क बाल तिस पर पीठ पर लटकता हुआ कचरे का झोला। घिन आने के लिये बहुत था। पर अब तक कुछ खिन्न उदिग्न सी बैठी वृन्दा के चेहरे पर उसे देख खुशी फूट आई।
तीन पोलीथीन बड़ी बड़ी कचरे से ठूंसी थैलिया उठा लाई वह और उसे पकड़ाते हुए अतुल से बोली - जरा दो रूपये देना और अतुल ने जेब से सिक्का निकाल वृन्दा की ओर उछाल दिया।
-कुछ और.....आशा से भरी हुई थी उसकी नजरें।
-हां देती हूं......थोड़ा ठहर अभी लाती हूं। वृन्दा भीतर से जब वापस बाहर आयी तो उसके हाथों में डिब्बा व कटोरा था।
-ले.......थैली निकाल......
उसने झोले में से मुड़ी तुड़ी थैली निकाल खोली व उसमें बासी भात, तरोई परमल और रायता मिली हुई सब्जी साथ में डेढ चपाती भी उसमें उलटती गई। कल बहुत बचा था तो नहीं आई सब कुत्तों को डालना पड़ा।
‘कुत्तों को’ कहते हुए रोष उभर आया था उसके स्वर में। ‘रोज आने की’ अधिकार भरी हिदायत उसे दे, दरवाजा बंद कर वह कुर्सी पर आ बैठी और ठण्डी हुई चाय का लम्बा घूंट भर खत्म कर दी- ठण्डी हो गई।
‘‘चाय तो पी लेती कम से कम। ऐसी भी क्या जल्दी थी। वो कहीं भागी तो नहीं जा रही थी?’’
‘‘तुम क्या जानो आज पूरे तीन दिन से आयी है मरी। पूरा घर सडांध मार रहा था। खाली कप ले वह वह उठ खड़ी हुई। वर्षा की बूंदाबांदी फिर शुरू हो गई। जो दिनभर चलती रही। खाली पड़े प्लोटों में यहां वहां पानी भर गया। खुला इलाका होने से हवा तीर सी सनसनाती लग रही थी। रात भर रिमझिम चलती रही। यह इतवार का दिन था। बच्चे सोये हुए थे। वृन्दा ने राहत की सांस ली। ‘‘अच्छा हुआ आज छुट्टी है वर्ना बच्चे बेचारे ठण्डे मर जाते।’’ बबलू की टांग बाहर निकली हुई थी और छोटू की पीठ। बिट्टू तो पूरी उघड़ी हुई। मां ने तीनों को रजाई से अच्छे से ओढ़ा दिया। ममता उसके चेहरे पर फूट पड़ी।
‘‘आज सर्दी बहुत बढ़ गई है’’ सुबह उठते पहला वाक्य वृन्दा के मुंह से यही निकला था।
तभी डोर बेल बज उठी। ‘वह आ गई दीखती है’ वृन्दा उठ खड़ी हुई और उसने दरवाजा खोला। दरवाजा क्या खुला ठण्डी बयार भीतर घुस आयी।
दीदी कचरा है क्या......? वहीं रोज का रटा रटाया वाक्य।
‘‘हां लाती हूं’’ कहकर वृन्दा पलटी। वापस लौटी तो उसके हाथ में कचरा भरी थैली थी। झटपट थैली और सिक्का दे दरवाजा बंद करने के लिये उसके ठिठुरे कदम पलटने वाले ही थे कि-
-दीदी कुछ पहनने को......
उसके कातर स्वर ने उसे रोक दिया। ‘‘देखती हूं।’’
कुछ देर बाद वह स्वेटर ले आयी थी नीले रंग का।
‘‘मम्मी यह मेरा स्वेटर है इसे नहीं दोगी।’’ रजाई से मुंह बाहर निकाल बबलू चीखकर उठ खड़ा हुआ। और एक ही झटके में मां के हाथ से स्वेटर खींच लिया। फिर कुछ देर बाद -
-तुम भी अजीब हो। देने को मेरा ही स्वेटर मिला। प्योर वूल का है। अन्दर पहन लूंगा।
वह ठिठुरती हुई दरवाजे के सहारे आस लगाये खड़ी थी। हमेशा की तरह झोला उसकी पीठ पर लदा हुआ था और चेहरे पर वही मैल की जाजम बिछी हुई थी। जिस पर आज करूणा नाच रही थी सिड़कती सांस की ताल पर। ठिठुरन और नाक से उठती हुई सड़-सूं की जुगलबंदी सुबह की नीरवता को चीर रहे थे। वृन्दा ने अपना पुराना शॉल देकर दरवाजा बंद कर दिया।
बेसीला को उठता देख वह चाय ले आयी। अतुल भी आ गया। तीनों चाय पीने लगे।
‘‘ये जो तुम दया दिखाती हो न ठीक नहीं। अकेला घर है न अड़ौस न पड़ौस, यही लोग ताक लगाये बैठे रहते हैं। फिर मौका देखकर घर साफ कर जाते हैं। और बातों ही बातों मैं पिछले दिनों में शहर में हुई कई चोरियों के किस्से बयान कर दिये अतुल ने, चाय के साथ। वृन्दा का मुंह कसैला हो चुका था अब तक। हर रोज की तरह वह बिना कुछ बोले कप समेट उठ खड़ी हुई।
‘‘वापस रात को ही आओगी?’’ बेसीला से पूछा था उसने।
‘‘हां’’ बदले में संक्षिप्त सा उत्तर मिला था उसे।
आज बेसीला चली जायेगी......यह आखिरी सुबह थी अतुल के घर की। बेसीला आज जल्दी उठ गई थी। उसे जल्दी जाना था। प्रशिक्षण का आखिरी दिन और समापन सत्र के साथ और भी बहुत से काम निपटाने थे उसे। फिर शाम 8 बजे की गाड़ी थी। निवृत हो उसने अपना सामान बांध लिया और अतुल ने अपनी गाड़ी निकाल ली थी, उसे छोड़ने के लिये।
‘‘वह आज नहीं आयी ?’’ जूड़े पर आखिरी पिन लगाते हुए बेसीला ने वृन्दा से पूछा।
- कौन ?
- वहीं कचरे वाली।
वृन्दा कुछ नहीं बोली, लापरवाही से उसने कंधे उचका दिये। मानो कह रही हो कचरे से भी कम महत्वपूर्ण छोटीमोटी बात का उसे क्या ख्याल? बेसीला चली गई अतुल के साथ और वृन्दा व्यस्त हो गई अपनी गृहस्थी में।
शाम आठ बजे वे लोग प्लेटफार्म पर थे। बेसीला को विदाई देने आये थे। समय अभी शेष था गाड़ी चलने में। बेसीला के बगल में बैठे सात-आठ बच्चों को देख वह चौंक उठे।
-ये लड़कियां और लड़के....... ये तो वही बच्चें है जो कचरा बीनते हैं। बिल्कुल साफ सुथरे और व्यवस्थित और उसकी ओर तो उसकी नजरें टिकी रह गई। वह पहचान गया - तुम.....यहां? वृन्दा ने उस मटमैली लड़की की ओर इंगित किया था परन्तु बदले में जवाब बेसीला ने दिया -
‘‘इन्हें मैं ले जा रही हूं। कुछ देर की दया दिखाने नहीं’’, फिर एक-एक शब्द चबाते हुए बोली बेसीला - ‘‘पूरा जीवन संवारने.......इंसान बनाने’’।
दोनो चौंक पड़े। ‘‘धर्म परिवर्तन कर मिशन का काम कराने......’’तीखेपन से अतुल ने कहा।
‘‘धर्म? धर्म किसे कहते है? ये अबोध जिन्हें दो जून की रोटी नसीब नहीं। जिन्हें कंपकंपाती ठण्ड में कपड़े भी मयस्सर नहीं। जिनके सिर पर है नंगा आकाश और पैरों तले उबड़-खाबड़ जमीन। स्वास्थ्य शिक्षा जैसी बुनयादी जरूरतों से भी वंचित हैं जो। वे क्या जानेगें धर्म को। इनका धर्म पेट की आग से जुड़ा है।
‘‘उसी का फायदा उठाकर तुम लोग इनका धर्म परिवर्तन.....’’
बात बीच में ही लपकते हुए बेसीला ने प्रत्युक्तर दिया। ‘‘इल्जाम लगाने से पूर्व अच्छी तरह सोच लो अतुल। जहां तक धर्म की बात है मेरी दृष्टि में मानव धर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं। आज तुम्हें अपने बच्चों की कितनी फिक्र है परन्तु कभी इन बच्चों के बारे में सोचा कभी?’’
‘‘मैं.......?....... भला क्यों.......? बेसीला के सीधे सवाल से अचकचा उठा अतुल।
‘‘सोचने लगा’’ वाक्य पूरा किया बेसीला ने। कोई भी नहीं सोचता दूसरों के लिये। अपनों के लिये सभी सोचते है पर मुझ जैसे अनाथों, विपत्ती के मारो का क्या होगा? किसी को तो आगे आना ही होगा। जैसे उस समय फादर ने मेरी उचित देखभाल न की होती तो मेरा क्या होता? मैं किसी धर्म को नहीं मानती।
‘‘नहीं मानती तो.......ये क्या?’’
‘‘फादर का प्रेम से दिया नाम मैंने अपनाया जरूर है पर सन्यास मैंने अपनी मर्जी से लिया है।’’ बेहद संयत स्वर में बेसीला बोली।
उस दिन वह अपनी शादी का कार्ड देने गया था तब उसने सहज ही पूछा था -
‘‘तुम कब शादी कर रही हो माचिस?’’
‘‘नहीं मैं सन्यास ले रही हूं.’’
‘‘भला क्यों?.....यह भी कोई उम्र है सन्यास लेने की?’’ वास्तव में कुछ दिनों बाद उसने सन्यास ले लिया था। वह मांझल से सिस्टर बेसीला बन गई थी। एक सच्ची संत, मानवता की महान पुजारी उसके आंखों के सामने थी। गदगद हुए अतुल वृन्दा की आंखे भर आयी।
‘‘मुझे नहीं मालूम था नाम अपना असर छोड़ता है। जो जीवन में कहीं न कहीं अपनी छाप छोड़ता है। प्रत्येक सार्मथ्यवान व्यक्ति अगर एक अबोध बेसहारा का सहारा बन जाय तो इस देश का भविष्य ही कुछ ओर होगा।’’ अतुल बुदबुदा उठा।
‘‘मुझ जैसे बहुत है इस दुनिया में जिनका मैं सहारा बन सकती हूं। जिनके उपयोग में मेरा जीवन आ जाये तो मेरे एकमात्र परिवार में जिन्दा बचे रहने की सार्थकता होगी। मेरे भीतर जब तक अपने साथ गुजरी त्रासदी की आग दफन है मैं दूसरों के जीवनदीप जलाती रहूंगी।’’ इतना कहकर वह हंस दी।
‘‘बिल्कुल माचिस की तरह, खुद जलकर दूसरों को रोशन करती रहोगी।’’ उसकी ये निश्छल हंसी ही तो बहुत अच्छी लगती थी अतुल को।
गाड़ी धीरे धीरे पटरियों पे सिरकने लगी। वृन्दा अतुल ने अपनी नम आंखे पौंछी और कूपे से नीचे उतर आये। बच्चे, वृन्दा व अतुल आगे बढ़ती गाड़ी को हाथ हिलाहिला अलविदा कहते रहे जब तक खिड़की से झांकती उस संत की दिव्यता रफ्तार के साथ बिन्दु में बदल विलीन न हो गई।

9 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

आप सौभाग्यशाली मित्रों का स्वागत करते हुए मैं बहुत ही गौरवान्वित हूँ कि आपने ब्लॉग जगत मेंपदार्पण किया है. आप ब्लॉग जगत को अपने सार्थक लेखन कार्य से आलोकित करेंगे. इसी आशा के साथ आपको बधाई.
ब्लॉग जगत में आपका स्वागत हैं,
http://lalitdotcom.blogspot.com
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डॉ. राधेश्याम शुक्ल said...

kahani abhi padha naheen haifir bhi chittha jagat men swagat.

वन्दना अवस्थी दुबे said...

abhi keval swaagat. kahani padhane dobara aaungi.

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत सुंदर और मार्मिक कहानी. शुभकामनाएं.

रामराम.

अजय कुमार said...

स्वागत और शुभकामनाएं

Unknown said...

आपका लेख पड्कर अछ्छा लगा, हिन्दी ब्लागिंग में आपका हार्दिक स्वागत है, मेरे ब्लाग पर आपकी राय का स्वागत है, क्रपया आईये

http://dilli6in.blogspot.com/

मेरी शुभकामनाएं
चारुल शुक्ल
http://www.twitter.com/charulshukla

Amit K Sagar said...

चिटठा जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. मेरी शुभकामनाएं.
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हिंदी ब्लोग्स में पहली बार Friends With Benefits - रिश्तों की एक नई तान (FWB) [बहस] [उल्टा तीर]

डिम्पल मल्होत्रा said...

kahaani padhi nahi abhi just dekhi hai padh ke cmnt karungee..n thanx 4 ur cmnt.....

Swati said...

It was a touchy presentation of down-trogdden people of our socity that inspire us to do something for them, instead of just chat about it.

Nice and keep it up....